________________
भगवई
१६३
श.५: उ.४ : सू.९३-९९
यह जनता की भाषा है।
की अपनी-अपनी भाषा में बदल जाती है, श्रोता उसे अपनी-अपनी भाषा में सुन लेते हैं। दूसरी विशेषता—यह देवों की भाषा है। तीसरी विशेषता
छद्मस्थ और केवली का ज्ञान-भेद-पद
छउमत्थ-केवलीणं नाणभेद-पदं
छद्मस्थ-केवलिनोनिभेद-पदम् ९४. केवली णं भंते ! अंतकरं वा, अंतिम- केवली भन्ते! अन्तकरं वा, अन्तिमशरीरिकं सरीरियं वा जाणइ-पासइ?
वा जानाति-पश्यति? हंता जाणइ-पासइ॥
हन्त जानाति-पश्यति।
९४. 'भन्ते! केवली अन्तकर और अन्तिमशरीरी को जानता-देखता है? हां, जानता-देखता है।
९५. जहा णं भंते ! केवली अंतकरं वा, यथा भदन्त ! केवली अन्तकरं वा अन्तिम- ९५. भन्ते ! जिस प्रकार केवली अंतकर अन्तिम
अंतिमसरीरियं वा जाणइ-पासइ, तहा णं शरीरिकं वा जानाति-पश्यति, तथा छद्म- शरीरी को जानता-देखता है, क्या उसी प्रकार छउमत्थे वि अंतकरं वा, अंतिमसरीरियं वा स्थोऽपि अन्तकरं वा, अन्तिमशरीरिक वा छद्मस्थ भी अंतकर और अन्तिमशरीरी को जाणइ-पासइ? जानाति-पश्यति?
जानता-देखता है? गोयमा ! णो इणढे समढे। सोच्चा जाणइ- गौतम ! नायमर्थः समर्थः। श्रुत्वा जानाति- गौतम ! यह अर्थ संगत नहीं है। वह सुनकर अथवा पासइ, पमाणतो वा॥ पश्यति, प्रमाणतो वा।।
किसी प्रमाण से जानता-देखता है।
९६. से किं तं सोच्चा?
अथ किं तत् श्रुत्वा? सोच्चा णं केवलिस्स वा, केवलिसावगस्स श्रुत्वा केवलिनो वा, केवलिश्रावकस्य वा, वा, केवलिसावियाए वा, केवलिउवासगस्स केवलिश्राविकाया: वा, केवल्युपासकस्य वा, केवलिउवासियाए वा, तप्पक्खियस्स वा वा, केवल्युपासिकाया: वा, तत्पाक्षिकस्य तप्पक्खियसावगस्स वा, तप्पक्खियसावि- वा, तत्पाक्षिकश्रावकस्य वा, तत्पाक्षिकयाए वा तप्पक्खियउवासगस्स वा तप्पक्खि- श्राविकाया: वा, तत्पाक्षिकोपासकस्य वा, यउवासियाए वा। से तं सोच्चा॥ तत्पाक्षिकोपासिकाया: वा। तस्य तत् श्रुत्वा।
९६. वह श्रुत्वा' (सुनकर) क्या है?
छद्मस्थ पुरुष, केवली के श्रावक, केवली की श्राविका, केवली के उपासक, केवली की उपासिका, स्वयंबुद्ध, स्वयंबुद्ध के श्रावक, स्वयंबुद्ध की श्राविका, स्वयंबुद्ध के उपासक अथवा स्वयंबुद्ध की उपासिका के पास जानता
९७. से किं तं पमाणे?
अथ किं तत् प्रमाणम्? पमाणे चउविहे पण्णत्ते, तं जहा—पच्च- प्रमाणं चतुर्विधं प्रज्ञप्तम, तद् यथा-प्रत्य- क्खे अणुमाणे ओवम्मे आगमे, जहा अणु- क्षम् अनुमानम् औपम्यम् आगमः, यथा ओगदारे तहा नेयव्वं पमाणं जाव तेण परं अनुयोगद्वारे तथा नेतव्यं प्रमाणं यावत् तेन परं सुत्तस्स वि अत्थस्स वि नो अत्तागमे, नो सूत्रस्यापि अर्थस्यापि नो आत्मागमः, नो अणंतरागमे, परंपरागमे॥
अनन्तरागमः, परम्परागमः।
९७. वह प्रमाण क्या है?
प्रमाण चार प्रकार का प्रज्ञप्त है—प्रत्यक्ष, अनुमान, औपम्य और आगम। प्रमाण का विवरण अनुयोगद्वार की भांति ज्ञातव्य है यावत् गणधर के प्रशिष्यों के लिए सूत्रागम और अर्थागम दोनों न आत्मागम हैं, न अनन्तरागम हैं, किन्तु परम्परागम
९८. केवली णं भंते ! चरिमकम्मं वा, चरिम- केवली भदन्त ! चरमकर्म वा चरमनिर्जरांवा ९८. भन्ते ! केवली चरम कर्म और चरम निर्जरा को णिज्जरं वा जाणइ-पासइ? जानाति-पश्यति?
जानता-देखता है? हंता जाणइ पासइ ।। हन्त ! जानाति-पश्यति॥
हां, जानता-देखता है।
९९. जहा णं भंते ! केवली चरिमकम्मं वा, यथा भदन्त ! केवली चरमकर्म वा, ९९. भन्ते ! जिस प्रकार केवली चरमकर्म और चरम
चरिमणिज्जरं वा जाणइ-पासइ, तहा णं चरमनिर्जरा वा जानाति-पश्यति, तथा निर्जरा को जानता देखता है, क्या उसी प्रकार छउमत्थे वि चरिमकम्म वा, चरिमणिज्जरं छ्दमस्थोऽपि चरमकर्म वा चरमनिर्जरा वा छ्दमस्थ भी चरम कर्म और चरम निर्जरा को वा जाणइ-पासइ? जानाति-पश्यति?
जानता-देखता है?
१. ओवा. सू. ७१-सा वि य णं अद्धमागहा भासा तेसिं सव्वेसिं आरियमणारियाणं अप्पणो समासाए परिणामेणं परिणमा
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org