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________________ श.५: उ.४: सू.९४-१०१ १६४ भगवई गोयमा ! णो इणढे समढे। सोच्चा जाणइ- गौतम ! नायमर्थ: समर्थः। श्रुत्वा जानाति-पासइ, पमाणतो वा। जहा णं अंतकरेणं पश्यति, प्रमाणतो वा। यथा अन्तकरेण आलावगो तहा चरिमकम्मेण वि अपरि- आलापकः तथा चरमकर्मणाऽपि अपरिसेसिओ नेयव्वो॥ शिष्टः नेतव्यः। गौतम ! यह अर्थ संगत नहीं है। वह सुन कर अथवा किसी प्रमाण से जानता-देखता है। जिस प्रकार अन्तकर का आलापक है, उसी प्रकार चरम कर्म का भी आलापक अविकल रूप से ज्ञातव्य है। भाष्य १. सू. ९४-९९ योजना आगम-संकलन-काल में हुई अथवा उससे पूर्व अथवा पश्चात् हुई, प्रस्तुत आलापक में भी केवली और छद्मस्थ के बीच भेदरेखा यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता। यदि देवर्धिगणी के द्वारा यह पाठ खींची गई है।' छुदमस्थ अन्तकर, अन्तिम शरीरी, चरम कर्म और चरम प्रक्षिप्त होता. तो प्रत्यक्ष और परोक्ष इन दो प्रमाणों का उल्लेख करते, जो निर्जरा वाले को नहीं जानता-देखता। केवली उसे जानता-देखता है। जैन प्रमाण-मीमांसा का मौलिक वर्गीकरण है। ___ छद्मस्थ केवली की भांति साक्षात् नहीं जानता-देखता किन्तु शब्द-विमर्श श्रवण और प्रमाण इन दो हेतुओं से जान सकता है: १. श्रवण केवली के पास सुन कर अथवा जिसने केवली के अन्तकर, अन्तिम शरीरी-द्रष्टव्यभ.५/७८-८२ का भाष्या पास सुना है, उससे सुन कर। चरम कर्म-चतुर्दश गुणस्थानवर्ती अयोगी (शैलेशी) अवस्था २. प्रमाण-आगम साहित्य में प्रमाण के दो वर्गीकरण मिलते के चरम समय में भोगा जाने वाला कर्म। चरम निर्जरा-चरम कर्म के अनन्तर समय में जीव-प्रदेशों से अणुओगद्दाराई में प्रमाण-चतुष्क (प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, होने वाला कर्म का परिशाटन अथवा निर्जरण। आगम) का वर्गीकरण है। नंदी में प्रमाण-द्वय (प्रत्यक्ष और परोक्ष) का केवलि-श्रावक-केवली केपास सुनने वाला। वर्गीकरण है। प्रथम वर्गीकरण नैयायिक-सम्मत है। अणुओगद्दाराई के कर्ता केवलि-उपासक-सुनने के लक्ष्य के बिना केवली की उपासना आर्यरक्षित पहले न्याय-दर्शन के पण्डित थे। फिर जैन मुनि बने। उन्होंने करने वाला।' न्याय-दर्शन सम्मत प्रमाण-चतुष्टयी को जैन परम्परा में स्वीकृत कर लिया। तत्पाक्षिक-केवलिपाक्षिक, स्वयंबुद्ध । (द्रष्टव्य असोच्चा' प्रकरण, भ. ९/९-३२) आत्मागम, अनन्तरागम, परम्परागम-तीर्थंकर अर्थ का आगम के प्राचीन युग में पांच ज्ञान की व्यवस्था थी। प्रमाण की प्रतिपादन करते हैं, इसलिए अर्थ उनके आत्मागम, स्वोपज्ञ आगम होता है। व्यवस्था आगम के अर्वाचीन काल में विकसित हुई। प्रत्यक्ष और परोक्ष इस गणधर सूत्र का गुम्फन करते हैं; इसलिए सूत्र उनके आत्मागम होता है, अर्थ वर्गीकरण को उत्तरवर्ती सभी जैन दार्शनिकों ने अपनाया। तत्त्वार्थसूत्र में भी उनके अनन्तरागम-साक्षात् तीर्थंकर से प्राप्त आगम होता है। गणधर-शिष्यों यही प्रमाण-व्यवस्था सम्मत है। प्रमाण-चतुष्टय की व्यवस्था उत्तरवर्ती के लिए सूत्र और अर्थ दोनों ही न आत्मागम होते हैं, न अनन्तरागम, किन्तु दार्शनिक साहित्य में समादृत नहीं हुई। प्रस्तुत आगम में प्रमाण-चतुष्टय की परमपरागम होते हैं।' केवलीणं पणीय-मण-वइ-पदं केवलिनां प्रणीत-मनोवाक्-पदम् केवली के प्रणीत-मन-वचन-पद १००. केवली णं भंते ! पणीयं मणं वा, वईवा केवली भदन्त ! प्रणीतं मनो वा, वाचं वा १००. 'भन्ते ! क्या केवली प्रणीत मन और वचन को धारेज्जा? धारयेत् ? धारण करता है—उनका प्रयोग करता है? हंता धारेज्जा। हंत! धारयेत्। हां, धारण करता है। १०१. जण्णं भंते ! केवली पणीयं मणं वा, वइं यद् भदन्त ! केवली प्रणीतं मनो वा वाचं वा वा धारेज्जा, तण्णं वेमाणिया देवा जाणंति- धारयेत्, तद् वैमानिका: देवा: जानन्ति- -पासंति? - पश्यन्ति? १०१. भन्ते ! केवली प्रणीत मन और वचन को धारण करता है, इसे वैमानिक देव जानते-देखते हैं? १. द्रष्टव्य भ. ५/६८-७४। २.भ.प. ५/९८-चरमकर्म यच्छलेशीचरमसमयेऽनभयते, चरमनिर्जरा त यत्ततोऽनन्तरसमये जीवप्रदेशेभ्यः परिशटति। ३. वही. ५/९६-केवलिनभुपास्ते यः श्रवणानाकांक्षी तदुपासनमात्रपर: सन्नसौ केवल्युपासकः। ४. अणु. ५५१- अहवा आगमे तिविहे पण्णते. तं जहा- अत्तागमे अणंतरागमे परंपरागमे। तित्थगराणं अत्थस्स अत्तागमे। गणहराणं सत्तस्स अत्तागमे, अत्थस्स अणंतरागमे। गणहरसीसाणं स्त्तस्स अणंतरागमे, अत्थस्स परंपरागमे। तेण पर सुनस्स वि थिस्स वि नो अत्तागमे, नो अणंतरागमे परंपरागमे। Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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