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________________ भगवई गोयमा । अत्येगतिया जाणंति पासंति, अत्येगतिया ण जागंति, ण पासंति १०२. से केणद्वेण भंते ! एवं वुच्चइ — अत्थे गतिया जाणंति - पासंति, अत्थेगतिया ण जाणंति, ण पासंति? तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते — अस्त्येकके जानन्ति पश्यन्ति, अस्त्येकके न जानन्ति न पश्यन्ति? जहा - माइमिच्छादिट्ठीउववण्णगा अमाइसम्पदिडी उबवण्णगा व तत्व णं जे ते माइमिच्छादिट्ठीउववण्णगा ते ण जाणंति, ण पासंति। तत्थ णं जे ते अमाइसम्मदि ट्टीउववण्णगा ते णं जाणंति- पासंति । सेकेणणं ? गोयमा बेमाणिया देवा दुविहा पण्णत्ता, तं गौतम! वैमानिकाः देवाः द्विविधाः प्रज्ञप्ता, तद् यथा -- मायिमिथ्यादृष्ट्युपपन्नकाश्च अमाविसम्यग्दृष्टयुपपत्रकारचा तत्र ये एते मायिमिथ्यादृष्ट्युपपन्नका ते न जानन्ति, न पश्यन्ति यत्र वे एते अमाविसम्बादृष्ट्युपपनका ते जानन्ति पश्यन्ति । तत् केनार्थेन? गोयमा ! अमाइसम्मदिडी दुबिहा पण्णत्ता, तं जहा - अणंतरो ववण्णगा य, परंपरो गाय । तत्थ णं जे ते अणंतरोववण्णगा तेण जाणंति, ण पासंति । तत्थ णं जे ते परंपरोववण्णमा ते णं जाणंति पासंति । सेकेण? य. गोयमा ! परंपरोववण्णगा दुविहा पण्णत्ता, तं जहा - अपज्जत्तगाय, पज्जत्तगाय । तत्थ जे ते अपज्जत्तगा ते ण जाणंति, ण पासंति। तत्थ णं जे ते पज्जत्तगा ते णं जाणंति पासंति जहा - अणुवउत्ता य उवउत्ता य। तत्थ णं जे अणुवत्ता ते जाणंति, ण पासंति। तत्थ णं जे ते उवउत्ता तेषं जाणंति पासंति से - तेणट्ठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ— अत्थे गतिया जाणंति- पासंति, अत्थेगतिया ण जाणंति, ण पासंति ॥ १६५ गीतम! अस्त्येकके जानन्ति पश्यन्ति, अस्त्येकके न जानन्ति, न पश्यन्ति। सेकेणणं ? गोदमा ! पज्जतगा दुबिहा पण्णत्ता, संगीतम! पर्याप्तकाः द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद् यथा— अनुपयुक्ताश्च उपयुक्ताश्च । तत्र ये एते अनुपयुक्ताः ते न जानन्ति, न पश्यन्ति । तत्र ये एते उपयुक्ताः ते जानन्ति पश्यन्ति। तत्तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते— अस्त्येकके जानन्ति पश्यन्ति । अस्त्येकके न जानन्ति, न पश्यन्ति । -- Jain Education International गौतम ! अमायिसम्यग्दृष्टयः द्विविधाः प्रज्ञप्ता: तद्यथा— अनन्तरोपपन्नकाश्च, परम्परोपपन्नकाश्च । तत्र ये एते अनन्तरोपपन्नकाः ते न जानन्ति, न पश्यन्ति। तत्र ये एते परम्परोपपन्नकाः ते जानन्ति पश्यन्ति । तत् केनार्थेन? गौतम ! परम्परोपपन्नकाः द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद् यथा— अपर्याप्तकाश्च पर्याप्तकाश्चा तत्र वे एते अपर्याप्तकाः ते न जानन्ति न पश्यन्ति। तत्र ये एते पर्याप्तकाः ते जानन्तिपश्यन्ति । तत्केलान? १. सूत्र १००-१०२ मन क्षयोपशम (ज्ञानावरण और दर्शनावरण के आंशिक विलय) से होने वाला ज्ञान है। केवली का ज्ञान क्षायिक होता है— ज्ञानावरण का सर्वधा विलय होने से होता है, इसलिए केवली को नोसंज्ञी नोअसंजी कहा है।' इसका तात्पर्य है कि केवली के संज्ञामन नहीं होता। प्रस्तुत आलापक भाष्य १. (क) पण्ण. ३१ / ४ मणूसा सण्णी वि असण्णी वि नो सण्णी नोअसण्णी वि। (ख) प्रज्ञा. वृ. प. ५३४ --- केवली हि यद्यपि मनोद्रव्यसम्बन्धभाक् तथापि न तैरसौ भूतभवद्भाविभावस्वभावपर्यालोचनं करोति, किन्तु क्षीणसकलज्ञान-दर्शनावरणत्वात् श. ५: उ. ४: सू. १००-१०२ गौतम ! कुछ देव जानते देखते हैं, कुछ देव नहीं जानते-देखते। १०२. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है— कुछ देव जानते देखते हैं, कुछ देव नहीं जानते, नहीं देखते? गौतम ! वैमानिक देव दो प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे मायि मिध्यादृष्टि उपपत्रक और अमायि - सम्यक दृष्टि-उपपन्नक। इनमें जो मायि - मिथ्यादृष्टि - उपपन्नक हैं, वे न जानते हैं, न देखते हैं। इनमें जो अमाथि उपपन्नक हैं, वे जानते देखते 新 For Private & Personal Use Only यह किस अपेक्षा से? गौतम! अमाथि सम्यकदृष्टि दो प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे—अनन्तरोपपन्नक और परम्परोपन्नक। इनमें जो अनन्तरोपपन्नक हैं, वे न जानते हैं, न देखते हैं। इनमें जो परम्परोपपत्रक हैं, वे जानते देखते हैं। यह किस अपेक्षा से? गौतम ! परम्परोपपन्नक दो प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे अपवप्तक और पर्याप्तक। इनमें जो अपर्याप्तक है, वे न जानते हैं, न देखते हैं। इनमें जो पर्याप्त हैं, वे जानते देखते हैं। यह किस अपेक्षा से? गौतम ! पर्याप्तक दो प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे— अनुपयुक्त और उपयुक्त। इनमें जो अनुपयुक्त हैं, वे न जानते हैं, न देखते हैं। इनमें जो उपयुक्त हैं, वे जानतेदेखते हैं। गौतम ! इस अपेक्षा से कहा जा रहा है कुछ देव जानते देखते हैं, कुछ देव नहीं जानते, नहीं देखते। में केवली में मन का अस्तित्व स्वीकार किया गया है। मन दो प्रकार का होता है— द्रव्यमन और भावमन । द्रव्यमन पौगालिक होता है और भावमन ज्ञानात्मक होता है। केवली के भावमन नहीं होता, किन्तु द्रव्यमन होता है। यहाँ द्रव्यमन की अपेक्षा से ही केवली में मन पर्यालोचनमन्तरेणैव केवलज्ञानेन केवलदर्शनेन च साक्षात्समस्तं जानातिपश्यति च ततो न संज्ञी, नाप्यसंज्ञी | www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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