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श.५: उ.४: सू.१००-१०५
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भगवई
का अस्तित्व बतलाया गया है।
___मन और वचन का घनिष्ठ सम्बन्ध है। इसीलिए यह प्रश्न उपस्थित होता है कि केवली के मन नहीं है तो फिर वचन का प्रयोग कैसे होगा?
विशेषावश्यक भाष्य में बताया गया है कि विशिष्ट वचन का प्रयोग मानसिक चिन्तनपूर्वक होता है। गोम्मटसार के अनुसार इन्द्रियज्ञानी का वचन मनपूर्वक होता है। केवली व अतीन्द्रिय-ज्ञानी में मन उपचार से स्वीकृत है। धवला में भी यह प्रश्न चर्चित है—यदि केवली में मन नहीं है तो मन के अभाव में उसके कार्यभूत वचन का अस्तित्त्व कैसे होगा? इसके
उत्तर में आचार्य ने कहा-वचन ज्ञान का कार्य है-मन का कार्य नहीं।' इसलिए केवली में वचन का अस्तित्व हो सकता है। भ. ५/८३-८८ का भाष्य द्रष्टव्य है।
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प्रणीत–प्रकृष्ट शुभा
मायी मिथ्यादृष्टि, अमायी सम्यग्दृष्टि-द्रष्टव्य भ. १/१०१ का भाष्य।
अणुत्तरोववाइयाणं केवलिणा आलाव- अनुत्तरोपपातिकानां केवलिना आ- अनुत्तरोपपातिक देवों द्वारा केवली के साथ पदं
लाप-पदम्
आलाप का पद १०३. पभू णं भंते! अणुत्तरोववाइया देवा प्रभव: भदन्त ! अनुत्तरोपपातिका: देवाः १०३. 'भंते ! अनुत्तरोपपातिक देव अपने विमानों में तत्थगया चेव समाणा इहगएणं केवलिणा तत्रगताश्चैव सन्तः इहगतेन केवलिना रहते हुए ही मनुष्य-लोक में स्थित केवली के साथ सद्धिं आलावं वा, संलावं वा करेत्तए? सार्द्धम् आलापं वा, संलापं वा कर्तुम्? आलाप अथवा संलाप करने में समर्थ हैं? हंता पभू॥ हन्त प्रभवः।
हां, समर्थ हैं।
१०४. से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ—पभू णं तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-प्रभवः, १०४. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है
अणुत्तरोववाइया देवा तत्थगया चेव समाणा अनुत्तरोपपातिका: देवाः तत्र गताश्चैव सन्तः अनुत्तरोपपातिक देव अपने विमानों में रहते हुए ही इहगएणं केवलिणा सद्धिं आलावं वा, संलावं इहगतेन केवलिना सार्द्धम् आलापंवा, संलापं मनुष्य-लोक में स्थित केवली के साथ आलाप वा करेत्तए? वा कर्तुम्?
अथवा संलाप करने में समर्थ हैं? गोयमा ! जण्णं अणुत्तरोववाइया देवा गौतम ! यद् अनुत्तरोपपातिका: देवा: तत्र गौतम ! अनुत्तरोपपातिक देव अपने विमानों में रहते तत्थगया चेव समाणा अटुं वा हेउं वा पसिणं गताश्चैव सन्त: अर्थं वा हेतुं वा प्रश्न वा हुए ही जो अर्थ, हेतु, प्रश्न, कारण अथवा व्याकरण वा कारणं वा वागरणं वा पुच्छंति, तण्णं कारणं वा व्याकरणं वा पृच्छन्ति, तद् इहगत: पूछते हैं, मनुष्य-लोक में स्थित केवली अर्थ, हेतु, इहगए केवली अटुं वा हेउं वा पसिणं वा केवली अर्थं वा हेतुं वा प्रश्न वा कारणं वा प्रश्न, कारण अथवा व्याकरण का उत्तर देते हैं। गौतम ! कारणं वा वागरणं वा वागरेइ। से तेणतुणं व्याकरणं वा व्याकरोति। तत् तेनार्थेन गौतम! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-अनुत्तरोपपातिगोयमा ! एवं वुच्चइ-पभू णं अणुत्तरो- एवमुच्यते—प्रभव: अनुत्तरोपपातिका: देवाः क देव अपने विमानों में रहते हुए ही मनुष्य-लोक ववाइया देवा तत्थगया चेव समाणा तत्रगताश्चैवसन्त: इहगतेन केवलिना सार्द्धम् में स्थित केवली के साथ आलाप-संलाप करने में इहगएणं केवलिणा सद्धिं आलावं वा, आलापं वा संलापं वा कर्तुम् ।
समर्थ हैं। संलावं वा करेत्तए।
१०५. जण्णं भंते ! इहगए केवली अहँ वा हेडं यद्भदन्त ! इहगत: केवली अर्थं वा, हेतुं वा १०५. भन्ते! मनुष्य-लोक में स्थित केवली जिस अर्थ,
वा पसिणं वा कारणं वा वागरणं वा वागरेइ, प्रश्नं वा कारणं वा व्याकरणं वा व्याकरोति, हेतु, प्रश्न, कारण अथवा व्याकरण का उत्तर देते हैं, तण्णं अणुत्तरोववाइया देवा तत्थगया चेव तद् अनुत्तरोपपातिका: देवा: तत्रगताश्चैव उसे अपने विमानों में रहते हुए अनुत्तरोपपातिक देव समाणा जाणंति-पासति? सन्त: जानन्ति-पश्यन्ति?
जानते-देखते हैं? हंता जाणंति-पासंति॥ हन्त जानन्ति-पश्यन्ति।
हां, जानते-देखते हैं।
१०६. से केणतुणं भन्ते ! एवं वुच्चइ-जण्णं तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते यद् १०६. भन्ते यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है१. वि.भा.गा. ३०७२ वृ.-मन:पूर्वकत्वात् विशिष्टवचसः।
__उत्तो मणोवयारेणिदियणाणेण हीणम्मि॥ २. गो.सा.जी.गा.२२८ (जै.सि.को.भा. १, पृ.१६३)
३. प.खंधवला, पु. १, खं १, भा. १, सू. १२३, पृ.३६८-तत्र मनसोऽभावे तत्कार्यस्य मणसहियाणं वयणं दिडं तप्पुव्वमिदि सजोगम्हि।
वचसोऽपि न सत्त्वमिति चेन् न, तस्य ज्ञानकार्यत्वात्।
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