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भगवई
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श.५: उ.४: सू.१०३-१०७
इहगए केवली अह्र वा हेउं वा पसिणं वा इहगत: केवलीअर्थं वा हेतु वा प्रश्नं वाकारणं मनुष्य-लोक में स्थित केवली जिस अर्थ, हेतु, प्रश्न, कारणं वा वागरणं वा वागरेइ, तण्णं अणु- वा व्याकरणं वा व्याकरोति, तद् अनुत्तरोपपा- कारण अथवा व्याकरण का उत्तर देते हैं, उसे अपने त्तरोववाइया देवा तत्थगया चेव समाणा तिका: देवा: तत्र गताश्चैव सन्त: जानन्ति- विमानों में रहते हुए अनुत्तरोपपातिक देव जानतेजाणंति-पासंति? -पश्यन्ति?
देखते हैं? गोयमा! तेसिं णं देवाणं अणंताओ मणो- गौतम ! तेषां देवानाम् अनन्ता: मनोद्रव्य- गौतम ! उन देवों को अनन्त मनोद्रव्य की वर्गणाएं दव्ववग्गणाओ लद्धाओ पत्ताओ अभि- वर्गणा: लब्धाः प्राप्ता: अभिसमन्वागताः लब्ध, प्राप्त और अभिसमन्वागत हो जाती है। समण्णागयाओ भवंति। से तेणटेणं गोयमा! भवन्ति। तत्तेनार्थेन गौतम! एवमुच्यते—यद् गौतम! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है—मनुष्यएवं वुच्चइ–जण्णं इहगए केवली अह्र वा इहगत: केवली अर्थंवा हेतुं वा प्रश्नवा कारणं __-लोक में स्थित केवली जिस अर्थ, हेतु, प्रश्न, कारण हेउं वा पसिणं वा कारणं वा वागरणं वा वा व्याकरणं वा व्याकरोति, तद् अनुत्तरोप- अथवा व्याकरण का उत्तर देते हैं, उसे अपने विमानों वागरेइ, तण्णं अणुत्तरोववाइया देवा तत्थ- पातिका: देवा: तत्रगताश्चैव सन्त: जानन्ति- में रहते हुए अनुत्तरोपपातिक देव जानते-देखते हैं। गया चेव समाणा जाणंति-पासंति।। -पश्यन्ति।
भाष्य
१. सूत्र १०३-१०६
प्रस्तुत आलापक में मानसिक संप्रेषण का सिद्धान्त प्रतिपादित है। अनुत्तर विमान के देवों के मन में कोई प्रश्न उपस्थित होता है तो वे वहां बैठेबैठे मनुष्य-लोक में विद्यमान केवली के साथ मानसिक आलाप-संलाप करते हैं। केवली उनके प्रश्न को जानकर मानसिक स्तर पर उसका उत्तर देते हैं। वे प्रश्नकर्ता देव केवली की मनोद्रव्य-वर्गणा के आधार पर उसे जान लेते हैं। केवली के ज्ञानात्मक भावमन नहीं होता किन्तु योगरूप मानसिक प्रवृत्ति होती है। (भ. ५/१००-१०२ का भाष्य द्रष्टव्य है)। केवली कुछ कहना चाहते हैं तब उनके आत्म-प्रदेशों का स्पन्दन होता है। उससे मनोद्रव्य
वर्गणा (मानसिक पुद्गल-स्कन्धों) का ग्रहण होता है। उन पुद्गलों को अनुत्तर विमान के देव ग्रहण कर जान लेते हैं। वृत्तिकार के अनुसार उनके अवधिज्ञान का विषय-क्षेत्र लोक-नाडी है। जिसका विषयक्षेत्र लोक का संख्येय भाग होता है, वह भी मनोद्रव्य-वर्गणा को जान लेता है तो जिसका विषय क्षेत्र लोक-नाडी है, वह मनोद्रव्य-वर्गणा को कैसे नहीं जानेगा?
___ जयाचार्य ने २१वें तीर्थंकर नमि की स्तुति में उक्त विषय को काव्य की भाषा में लिखा है
सुर अनुत्तर विमाण ना सेवैरे, प्रश्न पूछ्या उत्तर जिन देवैरे। अवधिज्ञान करी जाण लेवै, प्रभु नमिनाथ जी मुझ प्यारा रे॥'
१०७. अणुत्तरोववाइया भंते ! देवा किं उदिण्णमोहा? उवसंतमोहा? खीणमोहा?
अनुत्तरोपपातिका: भदन्त ! देवाः किम् १०७. 'भन्ते! अनुत्तरोपपातिकदेव क्या उदीर्ण (उत्कट) उदीर्णमोहा:? उपशान्तमोहा:? क्षीणमोहा:? मोह वाले हैं? उपशान्त मोह वाले हैं? क्षीणमोह वाले
हैं?
गोयमा ! नो उदिण्णमोहा, उवसंतमोहा, नो गौतम ! नो उदीर्णमोहा:, उपशान्तमोहाः, खीणमोहा॥
नो क्षीणमोहा:।
गौतम ! वे उदीर्ण मोह वाले नहीं है, उपशान्त मोह वाले हैं, क्षीणमोह वाले नहीं हैं?
भाष्य
१. सूत्र १०७
वृत्तिकार के अनुसार प्रस्तुत सूत्र में 'मोह' शब्द वेदमोह के अर्थ उदय नहीं होता और वह क्षीण भी नहीं होता, किन्तु उपशान्त रहता है। में विवक्षित है। मोह की तीन अवस्थाएं होती हैं—उदय अवस्था, उपशान्त उमास्वाति ने ग्रैवेयक और अनुत्तर विमान के देवों को अप्रवीचार बतलाया है। अवस्था और क्षीण अवस्था । अनुत्तर विमान के देवों में वेदमोह का उत्कट उनमें मोह अल्प होता है, इसलिए वे निरन्तर समाधि के सुख में लीन रहते १. प. खं. धवला पु.१/खं. १ भा. १ सू. १२३ पृ. ३६८-जीवप्रदेशपरिस्पन्दहेतुनो कर्म- संभित्रलोकनाडीविषयोऽसौ कथं न मनोद्रव्यग्राही भविष्यति? इष्यते च लोकसबयेयजनितशक्त्यस्तित्वापेक्षया वा तत्सत्त्वान्न विरोधः।
भागावधेर्मनोद्रव्यग्राहित्वं, यदाह२.भ. वृ.५/१०६-यतस्तेषामवधिज्ञानं संभिन्नलोकनाडीविषयं, यच्च लोकनाडीग्राहकं तन्मनो-
संखेज मणोदव्वे भागो लोगपलियस्स बोद्धव्वो। वर्गणाग्राहकं भवत्येव, यतो योऽपि लोकसङ्खयेयभाग विषयोऽवधिः सोऽपि मनोद्रव्यग्राही यः पुनः ३. छोटी चौबीसी, २१/५।
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