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________________ श.५: उ.४ : सू.१०७-१०९ १६८ भगवई हैं। सहज ही परम सुख से तृप्त होते हैं। इसलिए रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द के भोग की आकांक्षा उत्पन्न नहीं होती। पण्णवणा में भी इसी मत का उल्लेख है। यहाँ 'उपशान्त मोह' पद सापेक्ष है। अनुत्तर विमान के देवों में मोह सर्वथा उपशान्त नहीं होता किन्तु वह उपशान्त रहता है। उसका सर्वथा उपशमन केवल उपशम श्रेणी की अवस्था में होता है।' केवलीणं इंदियनाण-निसेध-पदं केवलिनाम् इन्द्रियज्ञान-निषेध-पदम् केवलियों के इन्द्रिय-ज्ञान का निषेध-पद १०८. केवली णं भंते ! आयाणेहिं जाणइ- केवली भदन्त! आदानै: जानाति-पश्यति? १०८. 'भन्ते ! क्या केवली आदान (इन्द्रियों) के द्वारा पासइ? जानता-देखता है? गोयमा ! नो तिणढे समढे ॥ गौतम ! नायमर्थ: समर्थः। गौतम ! यह अर्थ संगत नहीं है। १०९. से केणटेणं भन्ते ! एवं वुच्चइ-केवली तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते—केवली १०९. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा हैणं आयाणेहिं ण जाणइ, ण पासइ? आदानै: न जानाति, न पश्यति? केवली आदान (इन्द्रियों) से न जानता है, न देखता है? गोयमा ! केवली णं पुरत्थिमे णं मियं पि गौतम ! केवली पौरस्त्यै मितमपि जानाति, गौतम ! केवली पूर्व दिशा में मित को भी जानता है, जाणइ, अमियं पि जाणइ। एवं दाहिणे णं, अमितमपि जानाति। एवं दक्षिणे, पश्चिमे, अमित को भी जानता है। इसी प्रकार दक्षिण, पश्चिम, पच्चत्थिमे णं, उत्तरे णं, उड्ढे, अहे मियं पि उत्तरे, ऊर्ध्वम् अध: मितमपि जानाति, अ- उत्तर, अर्व और अधो दिशा में वह मित को भी जानता जाणइ, अमियं पि जाणइ। मितमपि जानाति। है, अमित को भी जानता है। सव्वं जाणइ केवली, सव्वं पासइ केवली। सर्वम् जानाति केवली, सर्वम् पश्यति केवली सब को जानता है, सब देखता है। केवली। सव्वओ जाणइ केवली, सव्वओ पासइ सर्वत: जानाति केवली, सर्वतः पश्यति केवली सब ओर से जानता है, सब ओर से देखता केवली। केवली। सव्वकालं जाणइ केवली, सव्वकालं पासइ सर्वकालं जानाति केवली, सर्वकालं केवली सब काल को जानता है, सब काल को देखता केवली। पश्यति केवली। सव्वभावे जाणइ केवली, सव्वभावे पासइ सर्वभावान् जानाति केवली, सर्वभावान् केवली सबभावों को जानता है, सबभावों को देखता केवली। पश्यति केवल अणते नाणे केवलिस्स, अणंते दंसणे अनन्तं ज्ञानं केवलिन:, अनन्तं दर्शनं केवली का ज्ञान अनन्त है, केवली का दर्शन अनन्त केवलिस्स। केवलिनः। निव्वुडे नाणे केवलिस्स, निबुडे दंसणे निर्वृत्तं ज्ञानं केवलिन:, निर्वृत्तं दर्शनं केव- केवली का ज्ञान निरावरण है, केवली का दर्शन केवलिस्सा से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ लिन:। तत् तेनार्थेन, गौतम ! एवमुच्यते निरावरण है। गौतम! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा केवली णं आयाणेहिं ण जाणइ, ण —केवली आदानै: न जानाति, न पश्यति। है—केवली आदान (इन्द्रियों) से नहीं जानता, नहीं पासइ॥ देखता। भाष्य १. सू. १०८, १०९ अतीन्द्रिय-ज्ञान और अतीन्द्रिय-ज्ञानगम्य जगत् से परिचित नहीं है। हमारे ज्ञान का मुख्य स्रोत इन्द्रियां हैं। बाह्य जगत् स्पर्श, रस, अतीन्द्रिय-ज्ञान के तीन प्रकार हैं-अवधि, मन:पर्यव और गन्ध, रूप और शब्दात्मक है। उसका ज्ञान इन्द्रियों के माध्यम से ही होता है। केवला अतीन्द्रिय ज्ञानी सीधा आत्मा से जानता है, उसे इन्द्रियों के माध्यम इसलिए हम इन्द्रिय-ज्ञान और इन्द्रिय-ज्ञानगम्य जगत् से परिचित हैं, की आवश्यकता नहीं होती। इन्द्रिय-ज्ञान आवरणयुक्त होता है। केवलज्ञान १. त.सू.भा.वृ. ४/१०–परे अप्रवीचारा:--अविद्यमानप्रवीचारा: अप्रवीचाराः, कल्पो- सुखमन्यनिवासेषु शब्दादि विषयनिरपेक्षत्वात् सहजम् अतस्तेनजन्मप्रभृत्या स्थितिक्षयात् पन्नेभ्यः परे ये देवा ग्रैवेयकवासिनोऽनुत्तरविमानवासिनश्चाप्रवीचारा भवन्ति, अल्प- सततमेव तृप्तास्त इति। सवलेशत्वाद्धेतोरन्त:शुद्धत्वात् च, ते स्वसमाधिजमेव सुखमुपभुजते, अधिकतरं चैषां तद् २. पण्ण, ३४/१८-वेज्जअणुत्तरोववाइया देवा अपरियारगा। भवत्यल्पमोहत्वात् कायक्लेशरहितम्, स्वस्थाः प्रतनुकमोहनीयकर्मपटलानुरञ्जित स्वरूपत्वात् ३. भ.वृ. ५/१०७–'उदिण्णमोह' त्ति उत्कटवेदमोहनीयाः ‘उवसंतमोह' ति अनुत्कटवेदमन्ददेवाग्नित्वाच्छीतीभूता:पञ्चविधाः प्रवीचारा: रूपरसगन्धस्पर्शशब्दा: प्रवीचाराहेतवो। मोहनीयाः परिचारणायाः कथञ्चिदप्यभावात्, न तु सर्वथोपशान्तमोहा: उपशमश्रेणेस्तेषामभावात् मनोहरा: कारणे कार्योपचाराध्यारोपादुक्ताः तत्समुदायजादपि सुखविशेषाद् परिमित- 'नो खीणमोह' ति क्षपकश्रेण्या अभावादिति। गुणप्रीतिप्रकर्षा बहुगुणप्रीतिप्रकर्षयुजः परमसुखतृप्ता एव भवन्ति। दुर्लभं हि तादृक् संसारे Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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