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भगवई
श.५ : उ.४: सू.८३-९०
मणसा चेव इमं एयारूवं वागरणं वागरिया मनसा चैव पृष्टेन मनसा चैव इदम् एतद्रूपं समाणा समणं भगवं महावीरं वंदामो व्याकरणं व्याकृतौ सन्तौ श्रमणं भगवन्तं नमंसामो जाव पज्जुवासामो त्ति कटु भगवं महावीरं वन्दावहे नमस्याव: यावत् पर्युपास्वहे गोयमं वंदति नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता इति कृत्वा भगवन्तं गौतमं वन्देते नमस्यतः, जामेव दिसं पाउन्भूया तामेव दिसिं पडि- वन्दित्वा नमस्यित्वा यस्याः एव दिश: गया।
प्रादुर्भूतौ तामंव दिशं प्रतिगतौ।
नमस्कार करते हैं यावत् पर्युपासना करते हैं, ऐसा कह कर वे भगवान गौतम को वन्दन नमस्कार करते हैं। वन्दन-नमस्कार कर वे जिस दिशा से आए उसी दिशा में चले गए।
भाष्य
१. सूत्र.८३-८८
मानसिक प्रश्न और मानसिक उत्तर—यह अतीन्द्रिय ज्ञान की क्रिया के रूप में होता है। मस्तिष्क के ज्ञानतंतु भी इसी ज्ञानात्मक क्रिया को विशेष प्रक्रिया है। कोई भी व्यक्ति मानसिक स्तर पर प्रश्न पूछ सकता है और सम्पादित करते हैं। क्रियावाही तन्त्रिकाएं मांसपेशियों के संचलन के माध्यम कोई भी व्यक्ति मानसिक स्तर पर उत्तर दे सकता है। इसमें कोई विशिष्ट बात से शरीर की विभिन्न क्रियात्मक प्रवृत्तियों का संचालन करती है। वाणी का नहीं। मन के स्तर पर पूछे गये प्रश्न को जान लेना और मन के स्तर पर दिये तंत्र भी स्वर-यन्त्र के स्पन्दनों से संचालित होता है, जिसमें क्रियावाही गये उत्तर को समझ लेना, यह विशिष्ट बात है। भगवान् केवलज्ञानी थे, इसलिए तन्त्रिकाएं यह कार्य करवाती हैं। मन के स्तर पर पूछे गए प्रश्न को जानना उनके रिए कठिन नहीं था। देवों के केवली जैसे इन्द्रियों के द्वारा ज्ञानात्मक क्रिया नहीं करते, उसी पास अवधिज्ञान था, इसलिए मन के स्तर पर दिए गए उत्तरों को समझ लेना प्रकार मन के द्वारा भी ज्ञानात्मक क्रिया नहीं करते। अतः उसमें ज्ञानात्मक मन उनके लिए संभव बना।
के रूप में भाव मन का अभाव है। पर क्रियावाही तंत्र का प्रयोग केवली द्वारा भगवान केवली थे। केवली के ज्ञानात्मक मन (भावमन) नहीं किया जाता है—शरीर एवं वाणी का योग इसी की निष्पत्ति है। उसी प्रकार होता। उनके पौद्गलिक मन (द्रव्यमन) होता है। वे पौद्गलिक मन का उपयोग क्रियात्मक मन की प्रवृत्तियां भी केवली कर सकते हैं, क्योंकि उनमें मनोयोग करते हैं। जैन दर्शन में योग और उपयोग को अलग-अलग माना गया है। की प्राप्ति है। इस मनोयोग के निष्पादन में पौद्गलिक मन का प्रयोग भी होता योग मन, वचन, काया की क्रियात्मक प्रवृत्ति है, जबकि उपयोग चेतना की है। किन्तु यह ज्ञानात्मक भाव मन से भिन्न है। भ. ५/१००-१०२ का भाष्य ज्ञानात्मक प्रवृत्ति है। आधुनिक वैज्ञानिक अवधारणाओं के संदर्भ में इस भेद द्रष्टव्य है। को और अधिक स्पष्ट समझा जा सकता है।
शब्द-विमर्श शरीर विज्ञान में तन्त्रिका-तन्त्र (nervous system) के दो प्रकार
ध्यानान्तरिका (झाणंतरिया)-दो ध्यानों के बीच का समय। बताए गए हैं:
एक ध्यान सम्पन्न कर दिया जाता है और दूसरे ध्यान का प्रारम्भ नहीं किया १. ज्ञानवाही तन्त्रिका (sensory nerve)
जाता है, उस मध्यवर्ती समय को ध्यानान्तरिका कहा जाता है।' २. क्रियावाही तन्त्रिका (motor nerve)
व्याकरण-प्रश्न और उत्तर। ज्ञानवाही तन्त्रिकाओं का अर्थ इन्द्रियों के माध्यम से ज्ञानात्मक
देवाणं नोसंजयवत्तव्वया-पदं
देवानां नोसंयतवक्तव्यता-पदम् ८९. भंतेति ! भगवं गोयमे समणं महावीर भदन्त ! इति भगवान् गौतम: श्रमणं भगवन्तं वंदति नमंसति जाव एवं वयासी-देवाणं महावीरं वन्दते नमस्यति यावद् एवमवादीद् भंते ! संजया ति वत्तव्वं सिया?
-देवा: भदन्त ! संयता: इति वक्तव्यं स्यात्?
देवों की नोसंयतवक्तव्यता का पद ८९. भन्ते ! इस सम्बोधन से सम्बोधित कर भगवान गौतम श्रमण भगवान महावीर को वन्दन नमस्कार करते हैं यावत् इस प्रकार बोले--भंते ! देव संयत है, क्या ऐसा कहा जा सकता है? गौतम ! यह अर्थ संगत नहीं है। यह देवों के लिए अभ्याख्यान है—यथार्थ से परे है।
गोयमा! णो तिणद्वे, समझे। अब्भक्खाणमेयं गौतम! नायमर्थ : समर्थः। अभ्याख्यानमेत- देवाणं।
देवानाम्।
९०.देवाणं भंते ! असंजता ति वत्तव्वं सिया?
देवा: भदन्त! असंयता इति वक्तव्यं स्यात्? ९०. भन्ते! देव असंयत है, क्या ऐसा कहा जा सकता
१. भ.वृ. ५/८५, ८६-'झाणंतरियाए' ति अन्तरस्य–विच्छेदस्य करणमन्तरिका ध्यानस्यान्तरिका ध्यानान्तरिका-आरब्धध्यानस्य समाप्ति, पूर्वस्यानारम्भणमित्यर्थः।
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