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भगवई
श.५: उ.९: सू.२३५-२३९
मिश्र द्रव्य-रूप नगर राजगृह कहलाता है?
जोणिया तिरिक्खजोणिणीओ नगरं रायगिहं छया' नगरं राजगृहम् इति प्रोच्यते? किं ति पवुच्चइ? किं आसण-सयण-खंभ- भवनानि नगरं राजगृहम् इति प्रोच्यते? किं -भंड-सचित्ताचित्तमीसयाई दव्वाइं नगरं देवा: देव्यः मनुष्याः मानुष्य: तिर्यग्योनिका: रायगिहं ति पवुच्चइ?
तिर्यग्योनिन्य: नगरं राजगृहम् इति प्रोच्यते? किम् आसन-शयन-स्तम्भ-भाण्ड-सचित्ता-चित्त-मिश्रकाणि-द्रव्याणि नगरं राज
गृहम् इति प्रोच्यते? गोयमा! पुढवी वि नगरं रायगिहं ति पवुच्चइ गौतम ! पृथिव्यपि नगरं राजगृहम् इति जाव सचित्ताचित्त-मीसयाई दवाई नगरं प्रोच्यते यावत् सचित्ताचित्त-मिश्रकाणि रायगिह ति पवुच्चइ।।
द्रव्याणि नगरं राजगृहम् इति प्रोच्यते।
गौतम ! पृथ्वी भी राजगृह नगर कहलाती है यावत् सचित्त, अचित्त, मिश्र द्रव्यों को भी राजगृह नगर कहा जाता है।
२३६. से केणटेणं?
तत् केनार्थेन? गोयमा ! पुढवी जीवा इ य, अजीवा इ य गौतम ! पृथिवी जीवा इति च, अजीवा इति नगरं रायगिह ति पवुच्चइ जाव सचित्ताचित्त- च नगरं राजगृहम् इति प्रोच्यते यावत् मीसयाई दन्वाइं जीवा इ य, अजीवा इ य सचित्ताचित्त-मिश्रकाणि द्रव्याणि जीवा इति नगरं रायगिह ति पवुच्चइ। से तेणटेणं तं च, अजीवा इति च नगरं राजगृहम् इति चेव ॥
प्रोच्यते। तत् तेनार्थेन तच्चैवा
२३६. यह किस अपेक्षा से?
गौतम ! जीवाजीवात्मक पृथ्वी राजगृह नगर कहलाती है, यावत् जीवाजीवात्मक सचित्त, अचित्त, मिश्र द्रव्यों को राजगृह नगर कहा जाता है। यह इस अपेक्षा से।
भाष्य १. सूत्र २३५, २३६
के द्रव्यों से निर्मित होता है। विस्तार की दृष्टि से जलाशय, प्रासाद, मार्ग, नगर की अनेक दृष्टिकोणों से व्याख्याएं मिलती हैं।
मनुष्य, पशु-पक्षी आदि के समुदाय से नगर निर्मित होता है। राजगृह नगर के द्रष्टव्य-भ. १/४९, ५० का भाष्या
विषय में प्रश्न पूछा गया और उत्तर में महावीर ने कहा—राजगृह किसी एक प्रस्तुत प्रकरण में नगर की तत्त्व-परक व्याख्या की गई है। किसी द्रव्य का नाम नहीं है, किन्तु सजीव, अजीव और मिश्र-इन सभी द्रव्यों के एक द्रव्य से नगर का निर्माण नहीं होता। वह अनेक द्रव्यों के समुदाय से समुदाय का नाम है। टंक, कूट आदि-आदि शब्दों की जानकारी के लिए निर्मित होता है। संक्षिप्त दृष्टि से वह सचित्त, अचित्त, मिश्र-इन तीन प्रकार देखें भ.५/१८२-१९० तक का भाष्या उज्जोय-अंधयार-पदं
उद्द्योतान्धकार-पदम्
उद्द्योत-अन्धकार-पद २३७. से नूणं भंते ! दिया उज्जोए? राई तन् नूनं भदन्त ! दिवा उद्द्योत:? रात्रौ अन्ध- २३७. १ भंते ! क्या दिन में उद्द्योत और रात्रि में अंधयारे?
अन्धकार है? हंता गोयमा! दिया उज्जोए, राई अधयारे॥ हन्त गौतम! दिवा उद्द्योत:, रात्रौ अन्धकारः। हां, गौतम ! दिन में उद्द्योत और रात्रि में अन्धकार
कार:?
२३८. से केणटेणं?
तत् केनार्थेन? गोयमा ! दिया सुभा पोग्गला सुभे पोग्गल- गौतम! दिवा शुभा: पुद्गला: शुभ: पुद्गल- परिणामे, राई असुभा पोग्गला असुभे परिणाम: , रात्रौ अशुभा: पुद्गला: अशुभ: पोग्गलपरिणामे। से तेणतुण।।
पुद्गलपरिणाम:। तत् तेनार्थेन।
२३८. यह किस अपेक्षा से? गौतम ! दिन में शुभ पुद्गल होते हैं और पुद्गलों का परिणमन शुभ होता है। रात्रि में अशुभ पुद्गल होते हैं और पुद्गलों का परिणमन अशुभ होता है —यह इस अपेक्षा से।
२३९. नेरइयाणं भंते ! किं उज्जोए? अंधयारे? नैरयिकाणां भदन्त ! किम् उद्द्योतः? अन्ध- २३९. भन्ते! नैरयिक जीवों के क्या उद्द्योत होता है? कार:?
अथवा अन्धकार? गोयमा! नेरइयाणं नो उज्जोए, अंधयारे।। गौतम ! नैरयिकाणांनो उद्द्योतः, अन्धकारः। गौतम ! नैरयिक जीवों के उद्द्योत नहीं होता,
अन्धकार होता है।
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