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भगवई
श.५ : उ.४ : सू.७६-८०
आयारचूला में महावीर के गर्भ-संहरण का उल्लेख है, किन्तु वहां हरि- शब्द-विमर्श नैगमेषी का नामोल्लेख नहीं है। पज्जोसणाकप्पो में महावीर ने गर्भ
परामुसिय-संस्पर्श कर। संहरण का प्रसंग है। वहां हरि-नैगमेषी देव का उल्लेख है।
अव्वावाहेणं अव्वाबाह----सुखपूर्वक। आयुर्वेद-साहित्य में मैगमेष का देव और ग्रह दोनों रूपों में उल्लेख
नहसिरसिनख के अग्रभाग से। मिलता है
देवताओं के 'अञ्जलि के दश नखों का उल्लेख' रायपसेणइयं में अजाननश्चलाक्षिभूः कामरूपी महायशाः। मिलता है। देवताओं के शरीर में केश का उल्लेख भी ओवाइयं तथा पण्णवणा
बालं बालपिता देवो नैगमेषोऽभिरक्षतु ॥ में मिलता है। सुश्रुतसंहिता के अनुसार नैगमेष ग्रह पार्वती के द्वारा सृष्ट है। संहरण करने (साहरित्तए)-प्रवेश कराने के लिए। उसका मुख मेष के समान है। वह कुमार की रक्षा करने वाला है और कार्तिकेय
निर्हरण करने (नीहरित्तए)-निकालने के लिए। देव का अभिन्न मित्र है। नैगमेष को पितृग्रह भी कहा गया है।'
विबाधा (विबाह)-विशिष्ट बाधा। आयुर्वेद-साहित्य के आधार पर नैगमेष और बालक के सम्बन्ध
छविच्छेद (छविच्छेदं)-अंग-भंग। को जाना जा सकता है। किन्तु नैगमेष के द्वारा गर्भके संहरण अथवा प्रत्यारोपण
इतनी सूक्ष्मता के साथ (एसुहुम)—यह 'साहरेज्ज वा नीहरेज्ज
वा' का क्रियाविशेषण है। इसका अर्थ है-'इतने हस्त लाघव से' अथवा 'हाथ की बात उसमें उपलब्ध नहीं है। आयुर्विज्ञान (Medical Science) के
की इतनी निपुणता से। क्षेत्र में गर्भ-प्रत्यारोपण के प्रयोग चल रहे हैं। अइमुत्तग-पदं
अतिमुक्तक-पदम्
अतिमुक्तक-पद ७८. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणस्य ७८. 'उस काल और उस समय श्रमण भगवान् महावीर भगवओ महावीरस्स अंतेवासी अइमुत्ते नामं भगवतो महावीरस्य अन्तेवासी अतिमुक्तो ___का अन्तेवासी अतिमुक्त नाम का कुमार श्रमण प्रकृति कुमार-समणे पगइभद्दए पगइउवसंते पगइ- नाम कुमार-श्रमण: प्रकृतिभद्रकः प्रकृत्यु- से भद्र, प्रकृति से उपशान्त था। उसकी प्रकृति में पयणुकोहमाणमायालोभे मिउमद्दवसंपन्ने पशान्तः प्रकृतिप्रतनुक्रोधमानमायालोभ: क्रोध, मान, माया और लोभ प्रतनु (पतले) थे। वह अल्लीणे विणीए॥
मृदुमार्दवसम्पन्न: आलीन: विनीतः। मृदुभाव से सम्पन्न, आत्मलीन और विनीत था।
७९. तएणं से अइमुत्ते कुमार-समणे अण्णया तत: स अतिमुक्त: कुमार-श्रमण: अन्यदा ७९. किसी समय बहुत तेज वर्षा हो रही थी। उस समय कयाइ महावुट्ठिकार्यसि निवयमाणंसि क- कदाचिद् महावृष्टिकाये निपतति कक्षा- कुमार श्रमण अतिमुक्त कांख में पात्र और रजोहरण क्खपडिग्गह-रयहरणमायाए बहिया संपट्ठिए प्रतिग्रह-रजोहरणमादाय बहि: संप्रस्थितो लेकर बहिर्भूमि जाने के लिए प्रस्थान करता है। विहाराए॥
विहाराय।
८०. तए णं से अइमुत्ते कुमार-समणे वाहयं ततः स अतिमुक्त: कुमार-श्रमण: वाहक वहमाणं पासइ, पासित्ता मट्टियाए पालिं वहमानं पश्यति, दृष्टवा मृत्तिकया पालि बंधइ, बंधित्ता ‘णाविया मे, णाविया मे' बध्नाति, बद्ध्वा नौका मम, नौका मम', नाविओ विव णावमयं पडिग्गहगं उदगंसि नाविक इव नौमयं प्रतिग्रहं उदके प्रवाहयन्- पन्वाहमाणे-पन्वाहमाणे अभिरम। तं च प्रवाहयन् अभिरमते। तं च स्थविरा: अद्राक्षुः। थेरा अद्दक्खु। जेणेव समणे भगवं महावीरे यत्रैव श्रमण: भगवान् महावीर: तत्रैव उपातेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता एवं गच्छन्ति, उपागम्य एवमवादिषु:
८०. वह कुमार श्रमण अतिमुक्त बहते हुए जल-प्रवाह
को देखता है, देख कर मिट्टी से पाल बांधता है। बांध कर फिर “यह मेरी नौका, यह मेरी नौका" इस विकल्प के साथ नाविक की भांति अपने नौकामय पात्र को जल में प्रवाहित करता हुआ क्रीड़ा कर रहा है। उसे क्रीड़ा करते हुए स्थविरों ने देखा। वे जहाँ श्रमण भगवान् महावीर हैं, वहां
१. आ. चूला, १५/५६। २. पज्जो . सू. १५-१७। ३.सुश्रुत-संहिता, उत्तरतन्त्र, अध्याय ३६, श्लोक ११, पृ.६६८।
उक्त श्लोक किञ्चिद् पाठ-भेद के साथ अष्टांग संग्रह में भी मिलता हैअजाननश्चलाक्षिभूः कामरूपी महायशा। बालं बालहितो देवो नैगमेषोऽभिरक्षतु ॥
(अष्टांग संग्रह, उत्तरस्थान, अध्याय ६, सूत्र २६, पृ, ६५७)। ४. सुश्रुत-संहिता, उत्तरतन्त्र, अध्याय ३७, श्लोक ६, पृ. ६६९
नैगमेस्तु पार्वत्या सृष्टो मेषाननो ग्रहः।
कुमारधारी देवस्य गुहस्यात्मसमः सखा । ५.सुश्रुत-संहिता, उत्तरतन्त्र, अध्याय २७, श्लोक ५, पृ.६६०
नवमो नैगमेषश्च यः पितृगृहसंज्ञितः। ६. राय सू. १०-दसणहं सिरसावत्तं । ७. (क) ओवा. ४७।
(ख) पण्ण, २/३१॥ ८.भ.वृ.५/७७–संहर्तु-प्रवेशयितुम् । ९. वही, ५/७७–निर्हर्तु- निष्काशयितुम् ।
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