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पंचमो उद्देसो : पांचवां उद्देशक
मूल
संस्कृत छाया
हिन्दी अनुवाद
भाविअप्प-विकुव्वणा-पदं भावितात्म-विकुर्वणा-पदम्
भावितात्मा-विकुर्वणा-पद १६४. अणगारे णं मंते! भाविअप्पा बाहिरए अनगारः भदन्त! भावितात्मा बाह्यकान् १६४. भन्ते! क्या भावितात्मा अनगार बहिर्वर्ती पोग्गले अपरियाइत्ता पभू एग महं इत्थीरूवं पुद्गलान् अपर्यादाय प्रभुः एकं महत् स्त्रीरूपं पुद्गलों का ग्रहण किए बिना एक महान स्त्रीरूप वा जाव संदमाणियरूवं वा विउवित्तए? वा यावत् स्यन्दमानिकारूपं वा विकर्तुम्? यावत् स्यन्दमानिका-रूप की विक्रिया करने में
समर्थ है? नो इणढे समढे ॥ नायमर्थः समर्थः।
यह अर्थ संगत नहीं हैं।
१६५. अणगारे णं भंते! भाविअप्पा बाहिरए अनगारः भदन्त! भावितात्मा बाह्यकान् १६५. भन्ते! क्या भावितात्मा अनगार बहिर्वर्ती पोग्गले परियाइत्ता पभू एगं महं इत्थीरूवं पुद्गलान् पर्यादाय प्रभुः एकं महत् स्त्रीरूपं पुद्गलों का ग्रहण कर एक महान स्त्रीरूप यावत वा जाव संदमाणियरूवं वा विउव्वित्तए? वा यावत् स्यन्दमानिकारूपं वा विकर्तुम्? स्यन्दमानिका-रूप का निर्माण करने में समर्थ है? हंता पभू ॥ हन्त प्रभुः।
हां, समर्थ है।
१६६. अणगारे णं भंते! भाविअप्पा केवइयाइं अनगारः भदन्त! भावितात्मा कियन्ति प्रभुः १६६. भन्ते! भावितात्मा अनगार कितने स्त्री-रूपों पभू इत्थिरूवाइं विकुवित्तए? स्त्रीरूपाणि विकर्तुम्?
का निर्माण करने में समर्थ है? गोयमा! से जहानामए-जुवतिं जुवाणे गौतम! तद् यथानाम युवतिं युवा हस्तेन । गौतम! जैसे कोई युवक युवती का हाथ प्रगाढ़ता हत्थेणं हत्थे गेण्हेज्जा, चक्कस्स वा नाभी हस्ते गृहीयात् चक्रस्य वा नाभिः अरकायुक्ता से पकड़ता है तथा गाड़ी के चक्के की नाभि अरगाउत्ता सिया, एवामेव अणगारे वि स्याद, एवमेव अनगारोऽपि भावितात्मा आरों से युक्त होती है, उसी प्रकार भावितात्मा भाविअप्पा वेउब्वियसमग्याएणं समोहण्णड वैक्रियसमुद्घातेन समवहन्ति यावत प्रभुः अनगार वैक्रिय समदघात से समवहत होता है जाव पभू णं गोयमा! अणगारे णं भाविअप्पा गौतम! अनगारः भावितात्मा केवलकल्पं यावत् गौतम! वह भावितात्मा अनगार सम्पूर्ण केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवं बहूहि इत्थिरूवेहि जम्बूद्वीपं द्वीपं बहुभिः स्त्रीरूपैः आकीर्ण जम्बूद्वीप द्वीप को अनेक स्त्रीरूपों से आकीर्ण, आइण्णं वितिकिण्णं उवत्थर्ड संथर्ड फुडं व्यतिकीर्णम् उपस्तृतं संस्तृतं स्पृष्टम् व्यतिकीर्ण, उपस्तृत (बिछौना-सा बिछाया हुआ), अवगाढावगाद करेत्तए। एस णं गोयमा! अवगाढावगाढं कर्तुम्। एष गौतम! अन- संस्तृत (भली-भांति बिछौना-सा बिछाया हुआ), अणगारस्स भाविअप्पणो अयमेयारूवे विसए. गारस्य भावितात्मनः अयमेतद्रूपः विषयः स्पृष्ट और अवगाढ़ावगाढ़ (अत्यन्त सघन रूप विसयमेत्ते बुइए, णो चेव णं संपत्तीए विषयमात्रम् उक्तम्, नो चैव सम्प्राप्त्या से व्याप्त) करने में समर्थ है। गौतम! भावितात्मा विउव्विंसु वा, विउव्वति वा, विउव्विस्सति व्यकार्षीद् वा, विकरोति वा, विकरिष्यति अनगार (की विक्रिया शक्ति) का यह इतना विषय वा। एवं परिवाडीए नेयव्वं जाव संद- वा। एवं परिपाट्या नेतव्यं यावत् स्यन्द- केवल विषय की दृष्टि से प्रतिपादित है। भावितात्मा माणिया ॥ मानिका।
अनगार ने क्रियात्मक रूप में न तो कभी ऐसी विक्रिया की, न करता है, और न करेगा। इस परिपाटी से यावत् स्यन्दमानिका तक ज्ञातव्य है।
१६७. से जहानामए केइ परिसे असिचम्मपायं तद् यथानाम कोऽपि पुरुषः असिचर्मपात्रं गहाय गच्छेज्जा, एवामेव अणगारे वि गृहीत्वा गच्छेत्, एवमेव अनगारोऽपि भाविअप्पा असिचम्मपायहत्थकिच्चगएणं भावितात्मा असिचर्मपात्रहस्तकृत्यागतेन अप्पाणेणं उड्ढं वेहासं उप्पएज्जा? आत्मना उर्ध्वं विहायः उत्पतेत् ? हंता उप्पएज्जा ॥
हन्त उत्पतेत्।
१६७. जैसे कोई भी पुरुष तलवार और ढ़ाल ग्रहण कर
जाए इसी प्रकार भावितात्मा अनगार भी क्या हाथ में तलवार और ढ़ाल ले कृत्यागत होकर (माया या विद्या का प्रयोग कर) ऊपर आकाश में उड़ता है? हां, उड़ता है।
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