________________
श.३ : उ.४ : सू.१६१-१६३
५२
भगवई
भाष्य
१. अस्थियां और अस्थिमज्जा सघन हो जाती हैं
प्रस्तुत प्रकरण में विक्रिया की प्रक्रिया भी बतलाई गई है। अस्थि और अस्थिमज्जा-ये दोनों विक्रिया के महत्त्वपूर्ण अंग हैं। विक्रिया की शक्ति इन्हीं में अर्जित होती है। बार-बार स्निग्ध भोजन करना और भोजन के बाद वमन कर देना-यह अस्थि और अस्थिमज्जा के स्नेहन की विधि है। इस विधि से अस्थि और अस्थिमज्जा-ये सघन हो जाते हैं। मांस और रक्त की सघनता कम हो जाती है। शेष आहार इन्द्रियों
की शक्ति बढ़ाता है।' २. मल, मूत्र...परिणत हो जाते हैं
प्रसंगवश रूक्ष भोजन की परिणति का भी विवरण मिलता है। रूक्ष भोजन का उच्चार (मल) आदि के रूप में अधिक परिणमन होता है। इससे अस्थि, अस्थिमज्जा और इन्द्रियों का संवर्धन यथेष्ट मात्रा में नहीं होता।
१६२. माई णं तस्स ठाणस्स अणालोइय- मायी तस्य स्थानस्य अनालोचितप्रतिक्रान्तः १६२. मायी उस स्थान की आलोचना और प्रतिक्रमण पडिक्कते कालं करेइ, नत्थि तस्स कालं करोति, नास्ति तस्य आराधना। अमायी किए बिना काल को प्राप्त होता है, उसके आराहणा। अमाई णं तस्स ठाणस्स तस्य स्थानस्य आलोचित-प्रतिक्रान्तः कालं आराधना नहीं होती। अमायी उस स्थान की आलोइय-पडिक्कते कालं करेइ, अत्थि करोति, अस्ति तस्य आराधना।
आलोचना और प्रतिक्रमण कर काल को प्राप्त तस्स आराहणा ॥
होता है, उसकी आराधना होती है।'
भाष्य
१. आराधना होती है
प्रस्तुत सूत्र मायी से अमायी बने हुए मुनि के लिए विहित है। जो मुनि पहले मायी-अवस्था में प्रणीत भोजन और विक्रिया-दोनों का प्रयोग करता था, फिर उन दोनों का परित्याग कर अमायी हो
गया तथा पूर्वकृत दोष की आलोचना और प्रतिक्रमण कर विशुद्ध हो गया, उस अवस्था में उसका मरण आराधक-ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना से युक्त होता है।
१६३. सेवं भंते! सेवं भंते! ति ॥
तदेवं भदन्त! तदेवं भदन्त! इति।
१६३. भन्ते! वह ऐसा ही है, भन्ते! वह ऐसा ही
१. भ. वृ. ३/१६१-यथोचितवादराः आहारपुद्गला इत्यर्थः परिणन्ति श्रोत्रेन्द्रियादित्वेन,
अन्यथा शरीरस्य दायासम्भवात्। २. वही, ३/१६१-रूक्षभोजिन उच्चारादितयेवाहारादिपुद्गलाः परिणमन्ति अन्यथा शरीरस्यासारताऽनापत्तरिति।
३. वही, ३/१६२-'माई णमित्यादि', 'तस्स ठाणस्स'ति तस्मात्स्थानादिकुर्वणाकरणलक्षणात्प्रणीतभोजनलक्षणाद्वा, 'अमाई ण' मित्यादि, पूर्व मायित्वा वैक्रिय प्रणीतभोजनं वा कृतवान् पश्चाज्जातानुतापोऽमायी सन् तस्मात्स्थानादालोचितप्रतिक्रान्तः सन् कालं करोति यस्तस्यास्त्याराधनेति।
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org