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________________ भगवई है कि अप्रमत्त वैक्रिय नहीं करता।" वृत्तिकार के इस अभिमत का संवादी पाठ साक्षात् उपलब्ध है-अमायी विक्रिया नहीं करता। यहां वृत्तिकार द्वारा किया हुआ 'मायी' शब्द का अर्थ विमर्शनीय है। अमायी भी वैक्रियलब्धि का प्रयोग करता है। यदि मायी का अर्थ प्रमत्त और अमायी का अर्थ अप्रमत्त किया जाए तो जमायी वैक्रिय शक्ति का प्रयोग कैसे कर सकता है ? सूत्र ३/२३१ से २३६ तक का पूरा आलापक अमायी द्वारा कृत विक्रिया से संबद्ध है। यहां मायी का अर्थ 'प्रमत्त' या 'कपायवान्' प्रासंगिक नहीं है। प्रस्तुत प्रकरण में मायी का अर्थ आभियोगिकी भावना से भावित मंत्र, यांग, भूतिकर्म आदि का प्रयोग करने वाला होना चाहिए। इसके समर्थन में भ. ३/२१६, २२० द्रष्टव्य हैं। मायी आभियोगिक १६१. से केणणं भंते! एवं वुच्चइ-माई विकुव्वद, नो अमाई विकुव्यद? गोयमा माई णं पणीयं पाण-भोयणं भोच्चा- भोच्चा वामेति तस्स णं तेण पणीएणं पाण-भोवणेणं अद्वि-अद्विमिंजा बहलीभवंति, पयणुए मंस - सोणिए भवति । जे वि य से अहाबायरा पोग्गला ते वि व से परिणमति तं जहा सोइदिवत्ताए चक्खिदियत्ताए घाणिदियत्ताए रसिदिवत्ताए फासिंदियत्ताए, अट्ठि - अट्ठिमिंज केस-मंसुरोम-महलाए, सुक्कत्ताए, सोणियताए , अमाई न त पाण-भोषणं भोच्चा-भोच्चा णो वामेह तस्स णं तेणं सुहेणं पाण -भोयणेण अद्वि-अमिंजा पयणूभवति, बहले मंस - सोणिए । जे वि य से अहाबायरा पोग्ला ते वि व से परिणमति तं जहा उच्चारत्ताए पासवणत्ताए खेलत्ताए सिंघाणत्ताए तत्ताए पित्तत्ताए पूयत्ताए सोणियत्ताए । से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-माई विकुब्ब, नो अपाई विकुब्बह ८१ Jain Education International श.३ उ. ४ सू. ११० १११ देवलोकों में देव के रूप में उत्पन्न होता है और अमायी अनाभियोगिक देवलोकों में उत्पन्न होता है मंत्र, योग, भूतिकर्म आदि का प्रयोग करने वाला आभियोगिकी भावना करता है। यह उत्तरज्झयणाणि में स्पष्ट उल्लिखित है। यहां विक्रिया का अर्थ अभियोजन - विद्या मंत्र आदि के सामर्थ्य से किया जाने वाला परिवर्तन है। वृत्तिकार ने मावी अभिनुजई इस वाचना का उल्लेख किया है। अभियोग को भी विक्रिया माना है।" सूत्र २०६ और २१० में अभिजुंजित्तए तथा सूत्र २११ में अभिजित्ता का प्रयोग मिलता है। प्रस्तुत प्रकरण में अभिजुंजइ यह पाठ 'विउव्वइ' की अपेक्षा अधिक प्रासंगिक है। आभियोगिकी भावना की अभिव्यक्ति अभिजुंजई पाठ से होती है, वह विउव्वर पाठ से नहीं होती। तत् केनार्थेन भदन्त एवमुच्यते मायी विकरोति, नो अमायी विकरोति ? गीतम! मायी प्रणीतं पान - भोजनं भुक्त्वा - - भुक्त्वा वमति । तस्य तेन प्रणीतेन पानभोजन अस्थि-अस्थिमज्जा यहलीभवन्ति, प्रतनुकं मांस शोणितं भवति । येऽपि च तस्य यथा वादराः पुद्गलाः तेऽपि च तस्य परिणमन्ति तद्यथा श्रोत्रेन्द्रियतया चक्षुरिन्द्रियतया घ्राणेन्द्रियतया रसनेन्द्रियतया स्पर्शेन्द्रियतया, अस्थि- अस्थिमज्जा-केश--रोगनतया शुक्रतया, शोणित तया । T अमावी पान-भोजनं भुक्त्या मुक्त्वा नो वमति । तस्य तेन रुक्षेण पान भोजनेन अस्थि-अस्थिमज्जाः प्रतनुभवन्ति बहल मांस- शांणितम् । येऽपि च तस्य यथाबादराः पुद्गलास्तेऽपि च तस्य परिणमन्ति तद् यथा-उच्चारतया प्रस्रवणतया क्ष्वेलतया सिंहाणतया वान्ततया पित्ततया पूयतया शोणिततया । १. भ. वृ. ३८१६० मायी' ति मायावान् उपलक्षणत्वादस्य सकषायः प्रमत्त इति यावत्, अप्रमत्ती हि न वैक्रियं कुरुत इति । २. भग. ३/१६० ३. उत्तर. ३६/२६४ तद् तेनार्थेन गौतम! एवमुच्यते मायी विकरोति, नो अमायी विकरोति । १६१. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है-मायी विक्रिया करता है, अमायी विक्रिया नहीं For Private & Personal Use Only करता ? गौतम! मायी प्रणीत पान भोजन खा खा कर उसका वमन करता है। उस प्रणीत पान- भोजन से उसकी अस्थियां और अस्थिमज्जा सघन हो जाती हैं। मांस और शोणित पतला हो जाता है । वह जिन यथोचित बादर पुद्गलों को लेता है वे भी श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षरिन्द्रिय, प्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, स्पर्शनेन्द्रिय, अस्थि, अस्थिमज्जा, केश, श्मश्रु, रोम, नख, शुक्र और शोणित-रूप में परिणत हो जाते हैं। अमायी रूक्ष पान - भोजन खा खा कर उसका वमन नहीं करता है। उस रूक्ष पान-भोजन से उसकी अस्थियां और अस्थिमज्जा पतली हो जाती है। मांस और शोणित सघन हो जाता है। वह जिन यथोचित बादर पुद्गलों को लेता है वे भी मल, मूत्र श्लेष्म, नासिकामल वमन, पित, पीय और शोणित रूप में परिणत हो जाते हैं। J गीतम! इस अपेक्षा से कहा जा रहा है-मायी विक्रिया करता है, अमायी विक्रिया नहीं करता। मंताजोगं काउं, भूईकम्मं च जे पउंजति । सायरसइडिहेउ, अभिओगं भावणं कुणइ ॥ ४. भ. वृ. ३/२१८ - माई विउब्वाइ' त्ति दृश्यते, तत्र चाभियोगोऽपि विकुर्वणेति मन्तव्यं, विक्रियारूपत्वात्तस्येति । www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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