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श.३ : उ.४ : सू.१८६-१६०
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भगवई भाविअप्प-विकुव्वणा-पदं
भावितात्म-विक्रिया-पदम्
भावितात्म-विक्रिया-पद १८६. अणगारे णं भंते ! भाविअप्पा बाहिरए अनगारः भदन्त! भावितात्मा बाह्यकान् १८६. भन्ते! भावितात्मा अनगार बाहरी पुद्गलों पोग्गले अपरियाइत्ता पभू वेभारं पव्वयं पुद्गलान् अपर्यादाय प्रभुः वैभारं पर्वतम् का' ग्रहण किए बिना वैभार पर्वत का उल्लंघन उल्लंघेत्तए वा? पल्लंघेत्तए वा? उल्लंघयितुं वा? प्रलंघयितुं वा?
(एक बार लांघना) और प्रलंघन (बार-बार लांघना)
करने में समर्थ है? गोयमा! नो इणढे समढे ॥ गौतम! नायमर्थः समर्थः।
गौतम! यह अर्थ संगत नहीं है।
भाष्य
१. बाहरी पुद्गलों का
प्रस्तुत प्रकरण में बाहरी पुद्गलों का अर्थ वैक्रिय शरीर योग्य पुद्गल हैं।' वैभार पर्वत के उल्लंघन आदि की क्रियाएं वैक्रिय शरीर
के द्वारा ही की जा सकती हैं; इसलिए यहां बाह्य पुद्गल वैक्रिय वर्गणा की पुद्गल-राशि के लिए विवक्षित है।
१८७. अणगारे णं भंते! भाविअप्पा बाहिरए अनगारः भदन्त! भावितात्मा बाह्यकान् १८७. भन्ते! भावितात्मा अनगार बाहरी पुद्गलों पोग्गले परियाइत्ता पभू वेभारं पव्वयं पुद्गलान् पर्यादाय प्रभुः वैभारं पर्वतम् का ग्रहण कर वैभार पर्वत का उल्लंघन और उल्लंघेत्तए वा? पल्लंघेत्तए वा? उल्लंघयितुं वा? प्रलंघयितुं वा?
प्रलंघन करने में समर्थ है? हंता पभू ॥ हन्त प्रभुः।
हां, वह समर्थ है।
१८८. अणगारे णं भंते! भाविअप्पा बाहिरए अनगारः भदन्त! भावितात्मा बाह्यकान् १८८. भन्ते! भावितात्मा अनगार बाहरी पुद्गलों पोग्गले अपरियाइत्ता जावइयाइं रायगिहे पुद्गलान् अपर्यादाय यावन्ति राजगृहे नगरे का ग्रहण किए बिना राजगृह नगर में जितने नगरे रूवाईं, एवइयाई विकुव्वित्ता वेभारं रूपाणि एतावन्ति विकृत्य वैभारं पर्वतम् ___रूप हैं, उतने रूपों की विक्रिया कर वैभार पर्वत पव्वयं अंतो अणुप्पविसित्ता पभू समं वा अन्तः अनुप्रविश्य प्रभुः समं वा विषम के भीतर प्रविष्ट हो क्या उसके समभाग को विसमं करेत्तए? विसमं वा समं करेत्तए? कर्तुम्? विषमं वा समं कर्तुम् ?
विषम करने में और विषम भाग को सम करने
में समर्थ है? गोयमा! नो इणढे समढे ॥ गौतम! नायमर्थः समर्थः।
गौतम! यह अर्थ संगत नहीं है।
१८६. अणगारे णं भंते ! भाविअप्पा बाहिरए अनगार: भदन्त! भावितात्मा बाह्यकान् १८६. भन्ते! भावितात्मा अनगार बाहरी पुद्गलों
पोग्गले परियाइत्ता जावइयाइं रायगिहे नगरे पुद्गलान् पर्यादाय यावन्ति राजगृहे नगरे का ग्रहण कर राजगृह नगर में जितने रूप हैं, रूवाई, एवइयाई विकुवित्ता वेभारं पव्वयं रूपाणि एतावन्ति विकृत्य वैभार पर्वतम् उतने रूपों की विक्रिया कर वैभार पर्वत के भीतर अंतो अणुप्पविसित्ता पभू समं वा विसमं अन्तः अनुप्रविश्य प्रभुः समं वा विषमं प्रविष्ट हो क्या उसके समभाग को विषम करने करेत्तए? विसमं वा समं करेत्तए? कर्तुम्? विषमं वा समं कर्तुम्?
में और विषम भाग को सम करने में समर्थ
हंता पभू ॥
हन्त प्रभुः।
हां, वह समर्थ है।
१६०. से भंते! किं माई विकुव्वइ? अमाई स भदन्त! किं मायी विकरोति? अमायी १६०. भन्ते! मायी' विक्रिया (रूप-निर्माण) करता विकुव्वइ? विकरोति?
है? अमायी' विक्रिया करता है? गोयमा! माई विकुब्वइ, नो अमाई विकुब्वइ॥ गौतम! मायी विकरोति, नो अमायी विकरोति। गौतम! मायी विक्रिया करता है? अमायी विक्रिया
नहीं करता।
भाष्य
१. मायी, अमायी
माया के अनेक अर्थ हैं-माया-वक्रता, कषाय का तीसरा प्रकार। तीन शल्य हैं। उनमें पहला शल्य है-माया। माया का एक
अर्थ है-शाम्बरी विद्या, जादुगरी की विद्या। माया को जानने वाला मायाकार अथवा मायी कहलाता है। वृत्तिकार ने मायी का अर्थ मायावान्' उपलक्षण से 'सकषाय' या 'प्रमत्त' किया है। उनका अभिमत
(ख) आप्टे.-माया.-श्रनहहसमतलए पजबी.बतजिए 'द पससनेपवद वा उहपब
१. भ. ७.३/१८६-औदारिकशरीरव्यतिरिक्तान वैक्रियानित्यर्थः। २. (क) अभि. ३/५८६-माया तु शाम्बरी।
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