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श.७ : उ.२ : सू.२६-४०
शिक्षावत आवश्यक चूर्ण में पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिधावतये तीन विभाग मिलते हैं। उसमें उवासगदसाओ में उपलब्ध सात शिक्षाव्रत तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत- इन दो भागों में विभक्त हो गए।
प्रतीत होता है कि गुणव्रत और शिक्षाव्रत का विभाग तत्त्वार्थ सूत्र की रचना के उत्तरकाल में विकसित हुआ है तत्त्वार्थ भाष्य में यह विभाग उपलब्ध नहीं है। सिद्धसेन गणी ने इनका उल्लेख किया है। सर्वार्थसिद्धि और भगवती आराधना में भी तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत का विभाग मिलता है किंतु व्रतों की संख्या का क्रम भिन्न है उनके अनुसार दिव्रत, देशावकाशिक और अनर्थदण्ड ये तीन गुणव्रत हैं। सिद्धसेनगणि के अनुसार
पच्चक्खाणि अपव्यवखाणि पदं ३६. जीवा णं भंते! किं मूलगुणपच्चक्खाणी? उत्तरगुणपच्चक्खाणी? अपव्यवखाणी? गोयमा ! जीवा मूलगुणपच्चक्खाणी वि, उत्तरगुणपचखाणी वि, अपच्यवखानी वि
३७. नेरइया णं भंते! किं मूलगुणपच्चक्खाणी? पुच्छा।
गोयमा ! नेरइया नी मूलगुणपच्चक्खाणी, नो उत्तरगुणपच्चक्खाणी, अपच्चक्खाणी ॥
३८. एवं जाव चउरिंदिया ॥
३६. पंचिंदियतिरिक्खजोणिया मणुस्सा व जहा जीवा, वाणमंतर - जोइसिय-वेमाणिया जहा नेरइया ॥
४०. एएसि णं भंते जीवाणं मूलगुणपच्च क्खाणी, उत्तरगुणपच्चक्खाणीणं, अपच्चक्खाणीण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा ? बहुया वा? तुल्ला वा? विसेसाहिया या? गोवमा ! सव्वधोवा जीवा मूलगुणपच्च क्खाणी, उत्तरगुणपच्चक्खाणी असंखेज्जगुणा, अपच्चक्खाणी अनंतगुणा ॥
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भगवई
दिग्वत उपभोग परिभोग परिमाण और अनर्थदण्ड विरमण-पे तीन गुणवत हैं। महापुराण में इस मतभेद का उल्लेख मिलता है' चारित्रपाहुड़ और वसुनन्दी श्रावकाचार में मारणातिक संलेखना को शिक्षाव्रत की श्रेणी में सम्मिलित किया गया है।
प्रथम आठ व्रत यावज्जीवन के लिए होते हैं और अन्तिम चार शिक्षाव्रत अल्पकालिक होते हैं।" संभावना की जा सकती है कि सात शिक्षाव्रतों में से प्रथम तीन यावज्जीवन के लिए स्वीकृत किए जाते हैं और चार अल्पकाल के लिए इस कालावधि-भेद के आधार पर प्रथम तीन शिक्षाव्रतों को तीन गुणव्रत के रूप में स्थापित कर दिया गया।
प्रत्याख्यानि - अप्रत्याख्यानि -पदम्
जीवाः भदन्त ! किं मूलगुणप्रत्याख्यानिनः ? उत्तरगुणप्रत्याख्यानिनः ? अप्रत्याख्यानिनः ? गौतम! जीवाः मूलगुणप्रत्याख्यानिनः अपि, उत्तरगुणप्रत्याख्यानिनः अपि अप्रत्याख्यानिनः अपि ।
नैरयिकाः भदन्त । किं मूलगुणप्रत्याख्यानिनः ? पृच्छा।
गौतम! नैरयिकाः नो मूलगुणप्रत्याख्यानिनः, नो उत्तरगुणप्रत्याख्यानिनः, अप्रत्याख्यानिनः ।
एवं यावच् चतुरिन्द्रियाः।
पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः मनुष्याश्च यथा जीवाः, वानमन्तर- ज्यौतिष्क- वैमानिकाः यथा नैरयिकाः ।
१. त. सू. भा. वृ. ७/१६ -- तत्र गुणव्रतानि त्रीणि दिग्भोगपरिभोगपरिमाणानर्थदण्डविरतिसंज्ञान्यनुव्रतानां भवभूतिय यावज्जीवं भावनीयानि । शिक्षापदवतानि - सामायिकदेशावकाशिकपौषधोपवासातिथिसंविभागाख्यानि चत्वारि ।
एतेषां भदन्त जीवानां मूलगुणप्रत्याख्यानिनाम्, उत्तरगुणप्रत्याख्यानिनाम्, अप्रत्याख्यानिनां च कतरे कतरेभ्यः अल्पाः वा? बहुकाः वा? तुल्याः वा? विशेषाधिकाः वा?
गीतम! सर्वस्तोकाः जीवा मूलगुणप्रत्याख्यानिनः, उत्तरगुणप्रत्याख्यानिनः असंख्येयगुणाः, •अप्रत्याख्यानिनः अनन्तगुणाः ।
२. (क) सर्वार्थसिद्धि ७/२१ - दिग्विरतिः देशविरतिः अनर्थदण्डविरतिरिति एतानि त्रीणि गुणव्रतानि ।
(ख) भगवती आराधना, २०८१ - जं च दिसावेरमणं अणत्थदंडेहिं जं च वेरमणं। देसावासि पि य गुणव्वयाइं भवे ताई । ३. देखें, ऊपर पाद-टिप्पण नं. १1
४. महापुराण, १०/१६५
प्रत्याख्यानी अप्रत्याख्यानी पद
३६. ' भन्ते ! जीव क्या मूलगुणप्रत्याख्यानी हैं ? उत्तरगुणप्रत्याख्यानी हैं ? अप्रत्याख्यानी हैं? गौतम जीव मूलगुणप्रत्याख्यानी भी हैं, उत्तरगुणप्रत्याख्यानी भी हैं, अप्रत्याख्यानी भी हैं।
३७. भन्ते! नैरयिक क्या मूलगुणप्रत्याख्यानी है? पृच्छा
गौतम! नैरमिक मूलगुणप्रत्याख्यानी नहीं है, उत्तरगुणप्रत्याख्यानी नहीं हैं, अप्रत्याख्यानी है।
३८. चतुरिन्द्रिय जीवों तक इसी प्रकार वक्तव्य है।
३६. पंचेन्द्रियतिर्यग्योनिक और मनुष्य जीव की भांति वक्तव्य है ानमन्तर ज्योतिष्क और वैमानिक देव नैरयिक की भांति वक्तव्य है।
४०. भन्ते! इन मूलगुणप्रत्याख्यानी उत्तरगुणप्रत्याख्यानी और अप्रत्याख्यानी जीवों में कौन किनसे अल्प, अधिक, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ?
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दिग्देशानर्थदंडेभ्यो विरतिः स्यादणुव्रतम् । भोगोपभोगसंख्यानमप्याहुस्तद् गुणव्रतम् ॥
५. चारित्रपाहुड, गा. २६
गीतम ! मूलगुणप्रत्याख्यानी जीव सबसे अल्प हैं, उत्तरगुणप्रत्याख्यानी जीव उनसे असंख्येयगुना अधिक हैं, अप्रत्याख्यानी जीव उनसे अनन्तगुना अधिक हैं।
सामाइयं च पढमं, बिदियं च तहेव पोसहं भणियं । तइयं च अतिहिपुञ्ज, चउत्थ सल्लेहणा अंते ॥
६. वसुनन्दी श्रावकाचार, गा. २१७, २१८, २७०।
७. आव. चू. भाग २, पृ. ३०७ - एमेवेसो दुवालसविहो गिहत्थधम्मो एत्थ पंच अणुब्वया तिष्णि गुणव्वया, एएसिं दोन्हवि थिरीकरणानि चत्तारि सिक्खावयाणि इत्तिरियाणि, सेसाणि अट्ठवि आवकहियाणि णायव्वाणि ।
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