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भगवई
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श.७ : उ.२ : सू.३६-४५ ४१. एएसिणं भंते! पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं एतेषां भदन्त ! पंचेन्द्रितिर्यग्योनिकानां पृच्छा। ४१. भन्ते ! इन पंचेन्द्रियतिर्यग्योनिक जीवों में पृच्छा। पुच्छा। गोयमा! सव्वत्थोवा पंचिंदियतिरिक्खजोणिया गौतम! सर्वस्तोकाः पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः गौतम! पञ्चेन्द्रियतिर्यगयोनिक जीवों में सबसे अल्प मूलगुणपच्चक्खाणी, उत्तरगुणपच्चक्खाणी मूलगुणप्रत्याख्यानिनः उत्तरगुणप्रत्याख्यानिनः मूलगुणप्रत्याख्यानी हैं, उत्तरगुणप्रत्याख्यानी उनसे असंखेन्जगुणा, अपच्चक्खाणी असंखेज्ज- __ असंख्येयगुणाः, अप्रत्याख्यानिनः असंख्येय- असंख्येयगुना अधिक हैं, अप्रत्याख्यानी उनसे गुणा॥ गुणाः।
असंख्येयगुना अधिक हैं।
४२. एएसि णं भंते! मणुस्साणं मूलगुणपच्च- एतेषां भदन्त! मनुष्याणां मूलगुणप्रत्याख्या- ४२. भन्ते! इन मूलगुणप्रत्याख्यानी मनुष्यों में पृच्छा। क्खाणीणं पुच्छा।
निनां पृच्छा। गोयमा! सव्वत्थोवा मणुस्सा मूलगुणपच्च- गौतम! सर्वस्तोकाः मनुष्याः मूलगुणप्रत्या- गौतम! मूलगुणप्रत्याख्यानी मनुष्य सबसे अल्प हैं, क्खाणी, उत्तरगुणपच्चक्खाणी संखेज्जगुणा, ख्यानिनः,उत्तरगुणप्रत्याख्यानिनः संख्येय- उत्तरगुणप्रत्याख्यानी उनसे संख्येयगुना अधिक हैं, अपच्चक्खाणी असंखेज्जगुणा ॥ गुणाः, अप्रत्याख्यानिनः असंख्येयगुणाः। अप्रत्याख्यानी उनसे असंख्येयगुना अधिक हैं।
भाष्य
१. सूत्र ३६-४२
अल्प-बहुत्व मोहनीय कर्म की अट्ठाईस प्रकृतियों में चार प्रकृतियां ऐसी हैं, जिनका अभयदेवसूरि ने लिखा है-सर्वविरत मुनियों में जो उत्तरगुण वाले तीव्र विपाक होने पर प्रत्याख्यान का परिणाम उत्पन्न नहीं होता; उनकी संज्ञा हैं वे निश्चित ही मूलगुण वाले है। मूलगुण वालों में उत्तरगुण वाले होते भी हैं है-अप्रत्याख्यानावरण-चतुष्क। कुछ मनुष्य और कुछ पञ्चेन्द्रिय-तिर्यञ्च अपने और नहीं भी होते। यहां वे मूलगुण वाले विवक्षित हैं, जो उत्तरगुण वाले नहीं हैं। प्रशस्त अध्यवसायों के द्वारा अप्रत्याख्यानावरण के विपाक को मंद कर देते हैं, अधिक मुनि उत्तरगुण-युक्त होते हैं, इसलिए केवल मूलगुण वालों की अपेक्षा इसलिए उनमें मूलगुणप्रत्याख्यान अथवा उत्तरगुणप्रत्याख्यान के परिणाम उत्पन्न उत्तरगुण वाले संख्यातगुना अधिक हैं। हो जाते हैं। नैरयिक जीव बहुत आर्त्त होते हैं। वे निरन्तर दुःख से पीडित रहते देशविरत श्रावकों में मूलगुण वालों से भिन्न उत्तरगुण वाले अधिक हैं; देव बहुत सात वेदनीय का अनुभव करते हैं; वे सुख में अधिक लीन होते हैं; मिलते हैं। उन देशविरत मूलगुण वालों की अपेक्षा केवल उत्तरगुण वाले असंख्याइसलिए उन दोनों में अप्रत्याख्यानावरण के विपाक को मंद करने का पुरुषार्थ तगुना अधिक हैं।' प्रकट नहीं होता। शेष सब जीव अमनस्क होने के कारण वैसे पुरुषार्थ का मनुष्य दो प्रकार के होते हैं-गर्भज और सम्मूर्छिम । गर्भज मनुष्य संकल्प ही नहीं करते, इसलिए वे अप्रत्याख्यानी होते हैं।
संख्येय ही होते हैं। सम्मूर्छिम मनुष्य असंख्येय होते हैं। उनकी अपेक्षा से ही अप्रत्याख्यानी मनुष्य को असंख्येयगुना अधिक कहा गया है।
४३. जीवा णं भंते ! किं सव्वमूलगुणपच्चक्खा- जीवाः भदन्त ! किं सर्वमूलगुणप्रत्याख्यानिनः? ४३. ' भन्ते ! जीव क्या सर्वमूलगुणप्रत्याख्यानी हैं?
णी? देसमूलगुणपच्चक्खाणी? अपच्चक्खा- देशमूलगुणप्रत्याख्यानिनः? अप्रत्याख्यानिनः? देशमूलगुणप्रत्याख्यानी हैं? अप्रत्याख्यानी हैं? णी? गोयमा! जीवा सव्वमूलगुणपच्चक्खाणी वि, गौतम! जीवाः सर्वमूलगुणप्रत्याख्यानिनः गौतम ! जीव सर्वमूलगुणप्रत्याख्यानी भी हैं, देशमूलगुणदेसमूलगुणपच्चक्खाणी वि, अपच्चक्खाणी अपि, देशमूलगुणप्रत्याख्यानिनः अपि, अ- प्रत्याख्यानी भी हैं, अप्रत्याख्यानी भी हैं ।
प्रत्याख्यानिनः अपि।
वि।
४४. नेरइयाणं पुच्छा।
नैरयिकाणां पृच्छा। गोयमा ! नेरइया नो सव्वमूलगुणपच्चक्खाणी, गौतम! नैरयिकाः नो सर्वमूलगुणप्रत्याख्यानो देसमूलगुणपच्चक्खाणी, अपच्चक्खाणी॥ निनः, नो देशमूलगुणप्रत्याख्यानिनः, अप्रत्या-
ख्यानिनः।
४४. नैरयिकों की पृच्छा। गौतम! नैरयिक सर्वमूलगुणप्रत्याख्यानी नहीं हैं, देशमूलगुणप्रत्याख्यानी नहीं हैं, अप्रत्याख्यानी हैं।
४५. एवं जाव चउरिंदिया ॥
एवं यावच् चतुरिन्द्रियाः।
४५. चतुरिन्द्रिय जीवों तक इसी प्रकार वक्तव्य है।
१. भ. वृ.७/४०-इह च सर्वविरतेषु ये उत्तरगुणवन्तस्तेऽवश्यं मूलगुणवन्तः, मूलगुणवन्तस्तु स्यादुत्तरगुणवन्तः स्यात्तद्विकलाः, य एव च तद्विकलास्त एवेह मूलगुणवन्तो ग्राह्याः, ते चेतरेभ्यः स्तोका एव, बहुतरयतीनां दशविधप्रत्याख्यानयुक्तत्वात्, तेऽपि च मूलगुणेभ्यः सङ्ख्यातगुणा
एवं नासङ्ख्यातगुणाः, सर्वयतीनामपि सङ्ख्यातत्वात, देशविरतेषु पुनर्मूलगुणवद्भ्यो भिन्ना अप्युत्तरगुणिनो लभ्यन्ते, ते च मधुमांसादिविचित्राभिग्रहवशाबहुतरा भवन्तीतिकृत्वा देशविरतोत्तरगुणवतोऽधिकृत्योत्तरगुणवतां मूलगुणवद्भयोऽसङ्घयातगुणत्वं भवति।
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