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भगवई
श.७ : उ.२ : सू.२६-३५ ६. अनाकार प्रत्याख्यान-अपवाद-रहित प्रत्याख्यान। उसने अपनी पौषधशाला में सर्व पौषध अथवा प्रतिपूर्ण पोषध के प्रति
७. परिमाण कृत प्रत्याख्यान-दत्ति, कवल, भिक्षा, गृह, द्रव्य जागरणा की। आदि के परिमाण-युक्त प्रत्याख्यान।
द्रष्टव्य उत्तरज्झयणाणि (द्वितीय संस्करण) ५/२३ का टिप्पण। ८. निरवशेष प्रत्याख्यान-अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का
अतिथि संविभाग-यह श्रावक का १२ वां व्रत है। इसे सम्पूर्ण परित्याग-युक्त प्रत्याख्यान।
यथासंविभाग भी कहा जाता है। इसका अर्थ है-आत्मानुग्रह की बुद्धि से ६ संकेत प्रत्याख्यान-संकेत या चिन्ह-सहित किया जाने वाला आहार आदि एषणीय वस्तुओं का संयमी को संविभाग देना। प्रत्याख्यान।
अपश्चिम मारणान्तिक संलेखना-शरीर और कषाय को कृश १०. अध्वा प्रत्याख्यान-मुहूर्त, पौरुषी आदि कालमान के आधार करने के लिए की जाने वाली तपस्या संलेखना कहलाती है। उसका प्रयोग पर किया जाने वाला प्रत्याख्यान।'
समाधिमरण तक चलता है, इसलिए उसे पश्चिम मारणांतिक संलेखना कहा नियुक्ति काल में उत्तरगुण का दूसरा वर्गीकरण मिलता हैं। उसके जाता है। वृत्तिकार का मत है कि अमंगल का परिहार करने के लिए पश्चिम के अनुसार बारह प्रकार का तप उत्तरगुण है। शीलांक सूरि ने सूयगडो की स्थान पर अपश्चिम का प्रयोग किया गया है। उसकी प्रीतिपूर्वक अथवा वृत्ति में एक गाथा उद्धृत की है। उसमें तीसरा वर्गीकरण है और बहुत निष्ठापूर्वक आराधना करना अभीष्ट है। विकसित है।
संलेखना का विधान मुनि और श्रावक दोनों के लिए है। यह दिग्वत आदि मूलगुण के विशेष प्रयोग हैं। इसलिए उन्हें उत्तरगुण समाधि-मरण की विधि है। मरण की कला सिखाने वालों में भगवान महावीर कहा गया है।
अग्रणी हैं। दिग्व्रत-उर्ध्व, नीचे और तिरछी दिशा में जाने का परिमाण।
संलेखना मृत्यु के भय से मुक्त होने की साधना है। भगवान महावीर उपभोगपरिभोगपरिमाणव्रत-जिनका एक बार भोग किया जा ने धार्मिक पुरुष को अभय और पराक्रमी होने का मंत्र दिया। संलेखना उसी सके, वे अशन, पान आदि वस्तुएं उपभोग कहलाती हैं। जिनका बार-बार भोग मंत्र-सिद्धि का उपाय है। संलेखना उत्तरगुण है। उसका संबंध देशोतर गुण किया जा सके वे आसन, शयन, वस्त्र आदि वस्तुएं परिभोग कहलाती हैं। और सर्वोत्तर गुण दोनों से है श्रावक के लिए यह देशोत्तर गुण है।"
अनर्थदण्डविरमण-अपध्यान, प्रमाद, मारक शस्त्र देना आदि । संलेखना की विधि के लिए आयारो /८/१,३ का तथा आचरणों से विरत होना।
उत्तरज्झयणाणि ३०/१२,१३ के टिप्पण द्रष्टव्य हैं। सामायिक-एक मुहूर्त तक सावद्य प्रवृत्ति का त्याग और निरवद्य __पांच अणुव्रत देशतः मूलगुण बतलाए गए हैं। सात व्रत देशतः प्रवृत्ति का परिसेवन ।
उत्तरगुण बतलाए गए हैं। तत्त्वार्थ भाष्य में सात व्रतों के लिए उत्तरगुण के देशावकाशिक-दिग्वत की निर्धारित सीमा का अल्पकाल के लिए स्थान पर उत्तरव्रत का प्रयोग मिलता है।२ पुनः संकोच करना।
अन्यत्र कहीं उत्तरगुण और 'उत्तरव्रत' का प्रयोग उपलब्ध नहीं ____ मुख्यतः इसका संबंध दिग्व्रत के साथ है। हरिभद्रसूरि ने वृद्ध परम्परा हुआ है। का उल्लेख किया है। उसके अनुसार 'आजीवन स्वीकृत अणुव्रतों की सीमा का उवासगदसाओ में पांच अणुव्रतों के पश्चात् अनर्थदण्ड के प्रत्याख्यान और अधिक संकोच करना'।
का विधान है। अतिचार के प्रकरण में इच्छा-परिमाण के अणुव्रत के पश्चात् पौषधोपवास-आहार, शरीर-संस्कार, सावध व्यापार का त्याग दिग्व्रत, उपभोग-परिभोग-परिमाण, अनर्थदण्डविरमण, सामायिक, देशावऔर ब्रह्मचर्य के पालन-पूर्वक एक दिन-रात तक साधना का विशेष प्रयोग। यह काशिक, पौषधोपवास, यथासंविभाग का उल्लेख है। इन बारह व्रतों के दो प्रकार का होता है-देश पौषध और सर्व पोषध । देश पौषध अल्पकालिक पश्चात् मारणांतिक संलेखना का उल्लेख है।" भी होता है। उसमें आहार वर्जित नहीं होता। शंख प्रमुख श्रमणोपासकों ने देश उवासगदसाओ में श्रावक के मूलगुण और उत्तरगुण का विभाग पौषध करने का संकल्प किया था। श्रमणोपासक शंख का चिंतन बदल गया। नहीं है, वहां बारह व्रतों के दो विभाग उपलब्ध हैं-पांच अणुव्रत और सात १. ठाणं, १०/१०१। दस प्रत्याख्यानों की व्याख्या के लिए इस सूत्र का टिप्पण द्रष्टव्य है। स्थानं प्रतिदिनं प्रमाणकरणं देशावकाशिकम्, दिग्व्रतगृहीतदिक्परिमाणस्यैकदेशः-अंशः २. सूत्र. नि. १/१४/१२६
तस्मिन्नवकाशः-- गमनादि चेष्टा स्थान देशावकाशस्तेन निर्वृतं देशावकाशिकम, एतच्चाणु मूलगुणे पंचविहो उत्तरगुण बारसविहो उ ।
व्रतादिगृहीतदीर्घतरकालावधिविरतिरपि प्रतिदिनं संक्षेपोपलक्षणमिति पूज्या वर्णयन्ति। ३. सूत्र. वृ. प. २४७
८. भ. १२/४,५,१४। पिंडस्स जा विसोही समिईओ भावणा तवो दुविहो।
वही, १२/६, १३॥ पडिमा अभिगाहाविय उत्तरगुणओ वियाणाहि॥
१०. भ. वृ. ७/३५–पश्चिमैवामंगलपरिहारार्थमपश्चिमा । ४. भ. बृ. ७/३५-उपभोगः-सकृद् भोगः, स चाशनपानानुलेपनादीना, परिभोगस्तु पुनः ११. वही, ७/३५-इह च सप्त दिव्रतादयो देशोत्तरगणा एव. संलेखनात भजनया तथाहिपुनर्भोगः, स चासनशयनवसनवनितादीनाम्।।
सा देशोत्तरगुणवतो देशोत्तरगुणः आवश्यके तथाऽभिधानात, इतरस्य तु सर्वोत्तरगुणः साकारा५. आव. चू. (जिनदास), उत्तरार्ध, पृ.२६९-सामातिय नाम सावज्जजोगपरिवज्जणं नाकारादि प्रत्याख्यानरूपत्वादिति संलेखनामविगणय्य सप्त देशोत्तरगुणा इत्युक्तम्। अस्याणिरवज्जजोगपरिसेवणं च।
श्चैतेषु पाठो देशोत्तरगुणधारिणाऽपीयमन्ते विधातव्य इत्यस्यार्थस्य ख्यापनार्थ इति ।। ६. वही, पृ. ३०२-पूर्व दिक्खु तं बहणि जोयणाणि आसि, इदाणिं दिवसे दिवसे ओसारेति। १२. त. स. भा. ७/१६-एभिश्च दिग्वतादिभिरुत्तरततः सम्पन्नोऽगारी व्रती भवति। ७. आव. नि. हा. ७. पृ. २३०-गृहीतस्य दिक्परिमाणस्य दीर्घकालस्य यावज्जीव- १३. उवा. १/३०॥ संवत्सर-चतुर्मासादिभेदस्य योजनशतादिरूपत्वात् प्रत्यहं तावत् परिमाणस्य गन्तुमशक्यत्वात् १४. वही, १/३७-४३। प्रतिदिनं प्रतिदिवसमित्येतच्च प्रहरमुहूर्ताद्युपलक्षणं प्रमाणकरण दिवसादिगमनयोग्यदेश- १५. वही, १/४४।
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