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श.७ उ.२ सू.२६-३५
भगवई
!
३४. सन्दुत्तरगुणपव्यवखाणे णं भंते! कतिविहे सर्वोत्तरगुणप्रत्याख्यानं भवन्तं ! कतिविधं ३४. भन्ते सर्वउत्तरगुप्रत्याख्यान के कितने प्रकार पण्णत्ते ?
प्रज्ञप्त हैं ?
गोयमा ! दसविहे पण्णत्ते, तं जहा
प्राप्तम् ? गौतम! दशविधं प्रज्ञप्तम्, तद् यथा
गौतम ! दस प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे
गाथा
गाहा
१,२. अणागयमइक्कंतं
३. कोडीसहियं ४. नियंटियं चेव ।
५,६. सागारमणागारं
७. परिमाणकडं ८.
निरवसेसं ।
६. संकेयं चेव १०. अद्धाए, पच्चक्खाणं भवे दसहा ||१||
३४२
३५. देसुत्तरगुणपच्चक्खाणे णं भंते! कतिविहे देशोत्तरगुणप्रत्याख्यानं भदन्त ! कतिविधं प्रज्ञप्तम् ?
पण्णत्ते ? गोयमा! सत्ताविहे पण्णत्ते, तं जहां १. दिसि व्वयं २. उवभोगपरिभोगपरिमाणं ३. अणत्थदंडवेरमणं ४. सामाइयं ५. देसावगासियं ६. पोसहोववासी ७. अतिहिसंविभागों अपच्छिममारणंतियसंलेहणासणाराहणता।
गीतम! सप्तविधं प्राप्तम् तद्यथा - 1. दिग् व्रतम् २. उपभोगपरिभोगपरिमाणम् ३. अनर्थदण्टविरमणम् ४. सामायिकम् ५. देशाव काशिकम् ६. पीषधोपवासः ७. अतिथिसंविभागः । अपश्चिममारणान्तिकसंलेखनाजूवणाराधनता
१. २. अनागतमतिक्रान्तं,
३. कोटिसहित ४. नियन्त्रितं चैव । ५.६. सागारमनागारं ७. परिमाणकृतं निरवशेषं ।
६. संकेतं चैव १०. अद्धातः
प्रत्याख्यानं भवेद् दशधा ||१||
१. (क) प्र. सा. २०८, २०६
वदसमिंदियरोधो लोचावस्सयमचेलमण्हाणं । खिदिसयणमदंतवणं ठिदिभोयणमेगभत्तं च ॥ एदे खलु मूलगुणा समणाणं जिणवरेहिं पण्णत्ता । (ख) मूलाधार मूलगुणाधना २३
पंच य महव्वयाई समिदीओ पंच जिणवरुद्दिट्ठा ।
१. सूत्र २६-३५
साधना के क्षेत्र में दो प्रकार के गुणों की व्यवस्था की गई -- मूलगुण और उत्तरगुण । साधना के लिए जो अनिवार्य हैं, वे मूलगुण कहलाते हैं । साधना के विकास के लिए किए जाने वाले ऐच्छिक प्रयोग उत्तरगुण कहलाते हैं प्रस्तुत आलापक के अनुसार मुनि के लिए मूलगुण पांच और उत्तरगुण दल बतलाए गए हैं श्रावक के लिए अंशतः मूलगुण पांच और उत्तरगुण सात बतलाए गए हैं। दिगम्बर परम्परा में मूलगुणों का वर्गीकरण भिन्न प्रकार का है। वहां मुनि के लिए मूलगुण अट्ठाईस बतलाए गए हैं--पांच महाव्रत, पांच समितियां, पांच इन्द्रिय-निरोध, छह आवश्यक, लोच, आचेलक्य, अस्नान, क्षिति-शयन, अदन्त-घषर्ण - दंतोन न करना, स्थिति - भोजन -खड़े-खड़े भोजन करना, एक भक्त - दिन में एक बार भोजन करना ।
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भाष्य
मूलगुणों की संख्या का विकास किस आधार पर किया गया - यह अन्वेषण का विषय है। पांच महाव्रत मूलगुण हैं - यह तर्क-संगत तत्त्व है। उनके होने पर मुनित्व होता है; उनके अभाव में मुनित्व नहीं होता; इसलिए उन्हें मूलगुण कहा जा सकता है। क्षिति-शयन आदि उत्तर गुण हैं। इस प्रकार
गाथा
अनागत, अतिक्रान्त, कोटि-सहित, नियन्त्रित साकार, अनाकार, परिमाणकृत, निरवशेष, संकेत, अध्वाइस प्रकार प्रत्याख्यान दस प्रकार का होता है।
३५. भन्ते । देशउत्तरगुणप्रत्याख्यान के कितने प्रकार प्रज्ञप्त हैं।
गौतम ! सात प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे- १. दिग्व्रत, २. उपभोग-परिभोग- परिमाण, ३. अनर्थदण्ड- विरमण, ४. सामायिक, ५. देशावकाशिक, ६. पौषधोपवास, ७. अतिथिसंविभाग। अपश्चिममारणान्तिकसंलेखनाजोषणा - आराधना ।
के गुणों की संख्या और अधिक मिल सकती है। श्रावक के लिए भी मूल पांच ही है। दिगम्बर परम्परा में श्रावक के मूलगुण आठ बतलाए गए हैं-पांच अणुव्रत तथा मद्य, मांस और मधु का परित्याग ।' यह उत्तरकालीन विकास है। वस्तुतः मूलगुण पांच अणुव्रत ही होने चाहिए।
ठाणं में जो दस प्रत्याख्यान बतलाए हैं, वे मुनि के लिए उत्तरगुणप्रत्याख्यान होने चाहिए, जैसा कि भ ७/३३ के पाठ से स्पष्ट है।
१. अनागत प्रत्याख्यान -भविष्य में करणीय तप को पहले करना। २. अतिक्रांत प्रत्याख्यान - वर्तमान में करणीय तप नहीं किया जा सके, उसे भविष्य में करना।
३. कोटि सहित प्रत्याख्यान - एक प्रत्याख्यान का अन्तिम दिन और दूसरे प्रत्याख्यान का प्रारम्भिक दिन हो, वह कोटि-सहित प्रत्याख्यान हैं। ४. नियन्त्रित प्रत्याख्यान - निरोग या ग्लान अवस्था में भी मैं “ अमुक प्रकार का तप अमुक-अमुक दिन अवश्य करूंगा” इस प्रकार का
प्रत्याख्यान करना ।
५. साकार प्रत्याख्यान - अपवाद सहित प्रत्याख्यान ।
पंचेविंदियरोध छप्पि य आवासया लोचो ॥ अच्चेलकमण्हाणं खिदिसयणमदंतघंसणं चैव ठिदिभोयणेयभत्तं मूलगुणा अट्ठावीसा दु ॥
२. रत्नकरण्डक श्रावकाचार, ६६
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मद्यमांसमधुत्यागैः सहाणुव्रतपञ्चकम्। अष्टीला
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