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________________ श.५: उ.७: सू.१८२-१८७ २०० भगवई गोयमा ! नेरझ्या सारंभा सपरिग्गहा, नो अणारंभा अपरिग्गहा। गौतम ! नैरयिका: सारम्भाः सपरिग्रहाः, नो अनारम्भा: अपरिग्रहा:। गौतम ! नैरयिक जीव आरम्भ और परिग्रह से युक्त होते हैं, आरम्भ और परिग्रह से मुक्त नहीं होते। १८३. से केणतुणं भन्ते ! एवं वुच्चइ–नेर- तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-नैर- इया सारंभा सपरिग्गहा, नो अणारंभा अ- यिका: सारम्भा: सपरिग्रहाः, नो अनारम्भा: परिग्गहा? अपरिग्रहा:? गोयमा ! नेरइया णं पुढविकायं समारंभंति, गौतम ! नैरयिका: पृथिवीकार्य समारभन्ते, आउकायं समारंभंति, तेउकायं समारंभंति, अप्कायं समारभन्ते, तेजस्कायं समारभन्ते, वाउकायं समारंभंति, वणस्सइकायं समारं- वायुकायं समारभन्ते, वनस्पतिकायं समा- भंति, तसकायं समारंभंति, सरीरा परिग्गहिया रभन्ते, त्रसकायं समारभन्ते, शरीराणि परिभवंति, कम्मा परिग्गहिया भवंति, सचित्ता- गृहीतानि भवन्ति, कर्माणि परिगृहीतानि चित्त-मीसयाई दवाइं परिग्गहियाई भवंति। भवन्ति, सचित्ताचित्त-मिश्रकाणि द्रव्याणि से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ–नेरइया परिगृहीतानि भवन्ति। तत् तेनार्थेन गौतम ! सारंभा सपरिग्गहा, नो अणारंभा अपरि- एवमुच्यते-नैरयिका: सारम्भा: सपरिग्गहा॥ ग्रहाः, नो अनारम्भा: अपरिग्रहा:। १८३. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा हैनैरयिक जीव आरम्भ और परिग्रह से युक्त होते हैं, आरम्भ और परिग्रह से मुक्त नहीं होते? गौतम ! नैरयिक जीव पृथ्वीकाय का समारम्भ करते हैं, अप्काय का समारम्भ करते हैं, तेजस्काय का समारम्भ करते हैं, वायुकाय का समारम्भ करते हैं, वनस्पतिकाय का समारम्भ करते हैं और त्रसकाय का समारम्भ करते हैं। नैरयिक जीवों के शरीर का परिग्रह होता है, कर्म का परिग्रह होता है तथा सचित्त, अचित्त और मिश्र द्रव्यों का परिग्रह होता है। गौतम! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-नैरयिक जीव आरम्भ और परिग्रह से युक्त होते हैं, आरम्भ और परिग्रह से मुक्त नहीं होते। १८४. असुरकुमारा णं भंते ! किं सारंभा? असुरकुमारा: भदन्त! किंसारम्भा:? पृच्छा:। १८४. भन्ते! असुरकुमार देव क्या आरम्भ और परिग्रह पुच्छा । से युक्त होते हैं? पृच्छा गोयमा ! असुरकुमारा सारंभा सपरिग्गहा, गौतम ! असुरकुमारा: सारम्भा: सपरिग्रहा:, गौतम ! असुरकुमार देव आरम्भ और परिग्रह से युक्त नो अणारंभा अपरिग्गहा। नो अनारम्भाः अपरिग्रहाः। होते हैं, आरम्भ और परिग्रह से मुक्त नहीं होते। १८५. से केणटेणं? गोयमा! असुरकुमारा णं तत् केनार्थेन? गौतम! असुरकुमारा: पृथिवी- १८५. यह किस अपेक्षा से? गौतम! असुरकुमार देव पुढविकायं समारंभंति जाव तसकायं समा- कार्य समारभन्ते यावत् त्रसकार्य समारभन्ते, पृथ्वीकाय का समारम्भ करते हैं यावत् त्रसकाय का रंभंति, सरीरा परिग्गहिया भवंति, कम्मा शरीराणि परिगृहीतानि भवन्ति, कर्माणि समारम्भ करते हैं। असुरकुमार देवों के शरीर का परिग्गहिया भवंति, भवणा परिग्गहिया परिगृहीतानि भवन्ति, भवनानि परिगृहीतानि परिग्रह होता है, कर्म का परिग्रह होता है, भवनों का भवंति, देवा देवीओ मणुस्सा मणुस्सीओ भवन्ति, देवा: देव्य: मनुष्या: मानुष्य: तिर्यग्- परिग्रह होता है, देवो, देवियों, मनुष्यों, मानुषियों, तिरिक्खजोणिया तिरिक्खजोणिणीओ प- योनिका: तिर्यग्योनिन्य: परिगृहीता: भवन्ति, नरतिर्यञ्चों और स्त्री-तिर्यञ्चों का परिग्रह होता है, रिग्गहिया भवंति, आसण-सयण-भंड- आसन-शयन-भाण्डामत्रोपकरणानि परि- आसन, शयन, भाण्ड, पात्र तथा अन्य उपकरणों मत्तोवगरणा परिग्गहिया भवंति, सचित्ता- गृहीतानि भवन्ति, सचित्ताचित्तमिश्रकाणि का परिग्रह होता है, सचित्त, अचित्त और मिश्र द्रव्यों चित्त-मीसयाई दवाइं परिग्गहियाई भवंति। द्रव्याणि परिगृहीतानि भवन्ति। तत् तेनार्थेन का परिग्रह होता है। गौतम! इस अपेक्षा से यह कहा से तेणढेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-असुर- गौतम! एवमुच्यते-असुरकुमारा: सारम्भा: जा रहा है-असुरकुमार देव आरम्भ और परिग्रह कुमारा सारंभा सपरिग्गहा, नो अणारंभा सपरिग्रहाः, नो अनारम्भा: अपरिग्रहाः। से युक्त होते हैं, आरम्भ और परिग्रह से मुक्त नहीं अपरिग्गहा। होते। १८६. एवं जाव थणियकुमारा। एगिदिया जहा एवं यावत् स्तनितकुमारा:। एकेन्द्रिया: यथा १८६. इसी प्रकार स्तनिक कुमार देवों तक आरम्भ नेरइया। नैरयिकाः। और परिग्रह की वक्तव्यता। एकेन्द्रिय जीव नैरयिक जीवों की भांति ज्ञातव्य हैं। १८७. बेइंदिया णं भंते ! किं सारंभा सपरि- द्वीन्द्रिया: भदन्त ! किंसारम्भा: सपरिग्रहा:? १८७. भन्ते ! द्वीन्द्रिय जीव क्या आरम्भ और परिग्रह गगहा? उदाहु अणारंभा अपरिग्गहा? उताहो अनारम्भा: अपरिग्रहा:? से युक्त होते हैं? अथवा आरम्भ और परिग्रह से मुक्त Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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