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श.७ : उ.२: सू.५४-६०
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भगवई
भाष्य १. सूत्र ५४-५७
असंयत-जो सावध आचरणों का प्रत्याख्यान नहीं करता। संयम और प्रत्याख्यान के आधार पर सब जीव तीन श्रेणियों में .
संयतासंयत-जो सावध आचरणों का अंशतः प्रत्याख्यान करता वर्गीकृत होते हैं१. संयत २. असंयत ३. संयतासंयत
अल्पबहुत्व१, प्रत्याख्यानी २. अप्रत्याख्यानी ३. प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानी प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मेथुन और परिग्रह अथवा अठारह
१. जीवपाप-इन सावध प्रवृत्तियों का प्रत्याख्यान करने वाला प्रत्याख्यानी कहलाता है।'
संयत
सबसे अल्प
संयतासंयत संयम का अर्थ है-सावद्य प्रवृत्ति से विरत होना। मन, वाणी और
असंख्येयगुना अधिक शरीर-इन तीनों का संयम करने वाला संयत कहलाता है। जिस व्यक्ति में
असंयत
अनंतगुना अधिक संयम के परिणाम उत्पन्न होते हैं वह सावद्य प्रवृत्ति का प्रत्याख्यान करता है।
२. पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चसंयम का परिणाम पूर्व क्रिया है और प्रत्याख्यान उत्तरक्रिया हैं। प्रत्याख्यान के
संयतासंयत सबसे अल्प द्वारा संयम का परिणाम पुष्ट होता है। अतीत के पाप की गर्दा करना संयम है।
असंयत
असंख्येयगुना अधिक अनागत में होने वाले सावद्य आचरणों का त्याग करना भी संयम हैं संयम वर्तमान क्षण में होता है। अतीत के सावध आचरणों की गर्दा, अनागत के ३. मनुष्यसावध आचरणों का प्रत्याख्यान-ये दोनों संयम के सेतु हैं।
संयत
सबसे अल्प
संयतासंयत सख्येयगुना अधिक शब्द-विमर्श
असंयत
असंख्येय गुना अधिक संयत-जो सावध आचरणों का सर्वथा प्रत्याख्यान करता है।
प्रत्याख्यानी-त्रिक का अल्पबहुत्व संयत-त्रिक की भांति वक्तव्य है।
सासय-असासय-पदं
शाश्वत-अशाश्वत-पदम्
शाश्वत-अशाश्वत-पद ५८. जीवा णं भंते ! किं सासया ? असासया? जीवाः भदन्त्! किं शाश्वताः अशाश्वताः? ५८. ' भन्ते! जीव क्या शाश्वत हैं ? अशाश्वत हैं ? गोयमा! जीवा सिय सासया, सिय असासया। गौतम! जीवाः स्यात् शाश्वताः, स्याद् अशा- गौतम! जीव स्यात् शाश्वत हैं, स्यात् अशाश्वत हैं।
श्वताः ।
५६. से केणटेणं भंते! एवं वुच्चइ-जीवा सिय तत् केनार्थेन भदन्त! एवमुच्यते-जीवाः ५६. भन्ते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है-जीव सासया ? सिय असासया?
स्यात् शाश्वताः? स्याद् अशाश्वताः? स्यात् शाश्वत हैं, स्यात् अशाश्वत हैं ? गोयमा! दव्वट्ठयाए सासया, भावट्ठयाए असा- गौतम! द्रव्यार्थतया शाश्वताः, भावार्थतया गौतम! द्रव्यार्थता (द्रव्यराशि) की अपेक्षा जीव शाश्वत
गौतम! द्रव्या सया। से तेणटेणं गोयमा! एवं वुच्चइ- अशाश्वताः। तत् तेनार्थेन गौतम! एवमु- हैं, भावार्थता (पर्याय) की अपेक्षा जीव अशाश्वत हैं। जीवा सिय सासया, सिय असासया ॥ च्यते-जीवाः स्यात् शाश्वताः, स्याद् अ- गौतम! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-जीव शाश्वताः।
स्यात् शाश्वत हैं, स्यात् अशाश्वत हैं।
६०. नेरइया णं भंते ! किं सासया? असासया? नैरयिकाः भदन्त! किं शाश्वताः? अशाश्- ६०. भन्ते! नैरयिक क्या शाश्वत है? अशाश्वत हैं?
वताः? एवं जहा जीवा तहा नेरइया वि। एवं जाव एवं यथा जीवाः तथा नैरयिकाः अपि। एवं जिस प्रकार जीव की वक्तव्यता, उसी प्रकार नैरयिकों वेमाणिया सिय सासया, सिय असासया ॥ यावद् वैमानिकाः स्यात् शाश्वताः, स्याद् अ- की वक्तव्यता। इस प्रकार वैमानिक देवों तक सभी शाश्वताः।
जीव स्यात् शाश्वत हैं, स्यात् अशाश्वत हैं।
भाष्य १. सूत्र ५८-६०
दर्शन विशुद्ध रूप से उच्छेदवाद का प्रवक्ता है। सांख्य दर्शन में शाश्वतवाद और
अशाश्वतवाद दोनों की प्रतिष्ठा है। उसके अनुसार पुरुष शाश्वत है, कूटस्थ भारतीय तत्त्वचिंतन में शाश्वत और अशाश्वत का प्रश्न निरन्तर चर्चित रहा है। वेदाना दर्शन केवल शाश्वतवाद का निरूपक है, तो बौद्ध
नित्य है। प्रकृति की विकृति अशाश्वत है। जैन दर्शन ने शाश्वतवाद और १. भ.७/३१,२/६८।
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