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________________ भगवई ३४६ श.७ : उ.२ : सू.५८-६१ अशाश्वतवाद दोनों को मान्य किया। उसके अनुसार केवल शाश्वत अथवा केवल अशाश्वत जैसा कोई द्रव्य नहीं हैं। प्रत्येक द्रव्य शाश्वत भी है और अशाश्वत भी है। शाश्वत और अशाश्वत का सिद्धान्त अनेकान्त का मुख्य आधार है। द्रव्य की संरचना के दो पक्ष हैं--१. प्रदेश-राशि २. भाव अथवा । पर्याय। प्रत्येक द्रव्य की द्रव्यराशि-प्रदेश-राशि निश्चित है। उसका एक प्रदेश अथवा परमाणु भी न्यूनाधिक नहीं होता। वह अतीत में जितनी थी, वर्तमान में उतनी ही है और भविष्य में उतनी ही रहेगी। इस प्रदेश-राशि की अपेक्षा द्रव्य शाश्वत होता है। जीव एक द्रव्य है, इसलिए वह भी शाश्वत है। प्रत्येक द्रव्य में परिणमन अथवा परिवर्तन होता रहता है।' स्वाभाविक परिवर्तन सभी द्रव्यों में होता है। वैभाविक परिवर्तन देहधारी जीव और पुद्गल में होता है। इस भाव अथवा पर्याय की अपेक्षा से द्रव्य अशाश्वत है। द्रव्य शाश्वत और आशाश्वत दोनों हैं, किंतु दोनों का आधार एक नहीं है। शाश्वत का आधार है प्रदेश-राशि और अशाश्वत का आधार है भाव अथवा पर्याय। जीव की भांति परमाणु भी शाश्वत और अशाश्वत दोनों हैं। द्रव्य की अपेक्षा परमाणु शाश्वत है। परमाणु का अस्तित्व त्रैकालिक है। इसका द्रव्यत्व कभी विनष्ट नहीं होता। वर्ण, गंध, रस और स्पर्श बदलते रहते हैं, इसलिए पर्याय की अपेक्षा वह अशाश्वत है। शाश्वत और अशाश्वत की विवक्षा प्रवाह अथवा निरन्तरता की अपेक्षा से भी की गई है। नैरयिक अव्युच्छित्ति नय की अपेक्षा शाश्वत है और व्युच्छित्ति नय की अपेक्षा अशाश्वत है। यह द्रव्य-विषयक शाश्वत-अशाश्वतवाद नहीं है। नरक में नैरयिक निरन्तर विद्यमान रहते हैं। इस अपेक्षा से नैरयिक शाश्वत हैं। प्रत्येक मैरयिक अपनी आयु की अवधि पूर्ण होने पर मनुष्य अथवा तिर्यञ्च बन जाता है। इस व्युच्छित्ति-नय की अपेक्षा वह अशाश्वत है। ६१. सेवं भंते! सेवं भंते ! ति ॥ तदेवं भदन्त! तदेवं भदन्त ! इति। ६१. भन्ते ! वह ऐसा ही है, भन्ते! वह ऐसा ही है। १. भ. १/४४०। २. वही, १४/१६,५01 ३.वही,७/६३,६४ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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