________________
भगवई
१३५
श.५: उ.१: सू.२९-३०
२९. अभिंतरपुक्खरद्धे णं भंते ! सूरिया आभ्यन्तरपुष्करा॰ भदन्त ! सूर्या उदीचीन- २९. भंते ! आभ्यन्तरपुष्करार्द्ध में सूर्य उत्तर और पूर्व
उदीण-पाईणमुग्गच्छ पाईणदाहिण- प्राचीनमुद्गत्य-प्राचीनदक्षिणम् आगच्छ- के मध्य उदित होकर पश्चिम और दक्षिण के मध्य मागच्छंति, जहेव धायइसंडस्स वत्तव्वया न्ति, यथैव धातकीषण्डस्य वक्तव्यता तथैव आते हैं। जिस प्रकार धातकीषण्ड की वक्तव्यता है तहेव अभिंतरपुक्खरद्धस्स वि भाणि- आभ्यन्तरपुष्करार्द्धस्यापि भणितव्या, नव- उसी प्रकार आभ्यन्तर पुष्करार्द्ध की भी वक्तव्यता यव्वा, नवरं-अभिलावो जाणियव्वो जाव रम्-अभिलाप: ज्ञातव्य: यावत् तदा आ- है। विशेषत: यह अभिलाप ज्ञातव्य है। यावत् उस तया णं अभिंतरपुक्खरद्धे मंदराणं पुर- भ्यन्तरपुष्करार्द्ध मन्दरयोः पौरस्त्य-पश्चिमे समय आभ्यन्तरपुष्करार्द्ध में मेरु पर्वतों के पूर्वत्थिम-पच्चत्थिमे णं नेवत्थि ओसप्पिणी, नैवास्ति अवसर्पिणी, नैवास्ति उत्सर्पिणी, पश्चिम भाग में अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी नहीं नेवत्थि उस्सप्पिणी, अवट्ठिएणं तत्थ काले ___ अवस्थितस्तत्र कालः प्रज्ञप्त: श्रमणाऽऽ- होती। वहां अवस्थित काल होता है आयुष्मन् पण्णत्ते समणाउसो॥ युष्मन् !
श्रमण!
३०. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति।
तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति।।
३०. भंते ! वह ऐसा ही है, भंते वह ऐसा ही है।
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org