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श. ५ उ. १ सू. २४-२९
णं नेवत्थि ओसप्पिणी, नेवत्थि उस्सप्पिणी अवट्ठिए णं तत्थ काले पण्णत्ते समणाउसो ?
हंता गोयमा ! जाव समणाउसो ॥
२४. धायइसंडे णं भंते ! दीवे सूरिया उदीण पाईमुग्गच्छ पाईण- दाहिणमागच्छंति, बहेव जंबुद्दीवस्स वत्तव्वया भणिवा सच्चेव धाइयसंडस्स वि भाणियव्वा, नवरं इमेणं अभिलावेणं सव्वे आलावगा भाणियव्वा ।।
२५. जया णं भंते! धायइसंडे दीवे दाहिणड्डे दिवसे भवद्द, तदा षं उत्तरडे वि; जया णं उत्तरड्ढे, तया णं धायइसंडे दीवे मंदराणं पव्वयाणं पुरात्थिम- पच्चत्विमे णं राई भवइ ?
हंता गोयमा ! एवं चैव जाव राई भवइ ।
२६. जया णं भंते ! धायइसंडे दीवे मंदराणं पव्ववाणं पुरत्थिमे णं दिवसे भवद्द, तथा णं पच्चत्विमे पवि; जया णं पच्चत्विमे णं दिवसे भवइ, तया णं धायइसंडे दीवे मंदराणं पव्वयाणं उत्तर दाहिणे णं राई भवइ ?
हंता गोयमा ! जाव भवइ ।।
२७. एवं एएणं अभिलावेणं नेयव्वं जाव जया णं भंते! दाहिणड्डे पदमा ओसप्पिणी, तया णं उत्तर वि; जया णं उत्तरड्डे, तया णं धायइसंडे दीवे मंदराणं पव्बयाणं पुरत्थिम-पच्चत्विमे णं नत्थि ओसप्पिणी जाव समणाउसो ?
हंता गोयमा ! जाव समणाउसो ॥
२८. जहा लवणसमुद्दस्स वत्तव्वया तहा कालोदस्स वि भाणियच्या नवरं— कालोदस्स नामं भाणियव्वं ।
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नैवास्ति उत्सर्पिणी, अवस्थितस्तत्र काल: प्रज्ञप्तः श्रमणाऽऽयुष्मन् ?
हन्त गौतम! यावत् श्रमणाऽऽ दुष्मन् !
धातकीषण्डे भदन्त ! द्वीपे सूर्यः उदीचीनप्राचीनमुद्गत्य प्राचीन दक्षिणमागच्छन्ति, यथैव जम्बूद्वीपस्य वक्तव्यता भणिता सा चैव धातकीषण्डस्यापि भणितव्या, नवरं
अनेन अभिलापेन सर्वे आलापकाः भणितव्याः।
यदा भदन्त ! धातकीपण्डे द्वीपे दक्षिणा दिवसः भवति, तदा उत्तरार्द्धेऽपि ? यदा उत्तरार्द्धे, तदा धातकीषण्डे द्वीपे मन्दरयोः पर्वतयोः पौरस्त्व-पश्चिमे रात्रिः भवति ?
हन्त गौतम ! एवं चैव यावद् रात्रिः भवति ।
यदा भदन्त ! धातकीषण्डे द्वीपे मन्दरयोः पर्वतयोः पौरस्त्वे दिवसः भवति, तदा पश्चिमेऽपि यदा पश्चिमे दिवसः भवति, तदा धातकीषण्डे द्वीपे मन्दरयोः पर्वतयोः उत्तर-दक्षिणे रात्रिः भवति ?
हन्त गौतम ! यावद् भवति ।
एवमेतेन अभिलापेन नेतव्यम् यावद् यदा भदन्त ! दक्षिणार्द्धं प्रथमा अवसर्पिणी, तदा उत्तरार्द्धेऽपि ? यदा उत्तरार्द्धे, तदा घातकीपण्डे द्वीपे मन्दरयोः पर्वतवोः पौरस्त्य पश्चिमे नास्ति अवसर्पिणी यावत् श्रमणाऽऽयुष्मन् ?
हन्त गौतम! यावत् श्रमणाऽऽ युष्मन् !
यथा लवणसमुद्रस्य वक्तव्यता तथा कालोदस्यापि भणितव्या, नवरं कालोदस्य नाम भणितव्यमा
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भगवई
सर्पिणी और उत्सर्पिणी नहीं होती, आयुष्मन् श्रमण ! क्या वहां काल अवस्थित है?
हां, गौतम ! यावत् आयुष्मन् श्रमण !
२४. भंते! धातकीपण्ड द्वीप में सूर्य उत्तर और पूर्व के मध्य उदित होकर पश्चिम और दक्षिण के मध्य आते हैं। जैसे जम्बूद्वीप की वक्तव्यता कही गई है, उसी प्रकार धातकीषण्ड की वक्तव्यता है। इतना विशेष है कि सारे आलापक इस अभिलाप के अनुसार वक्तव्य है।
२५. भंते! जिस समय घातकीपण्ड द्वीप के दक्षिणार्द्ध में दिन होता है, उस समय उत्तरार्द्ध में भी दिन होता है ? जिस समय उत्तरार्द्ध में दिन होता है, उस समय धातकीपण्ड द्वीप में मेरु पर्वतों के पूर्व पश्चिम भाग में रात्रि होती है?
हां, गौतम ! ऐसा ही है यावत् रात्रि होती है।
२६. भंते! जिस समय धातकीषण्ड द्वीप में मेरु पर्वतों
पूर्व भाग में दिन होता है, उस समय पश्चिम भाग में भी दिन होता है? जिस समय पश्चिम भाग में दिन होता है उस समय धातकीपण्ड द्वीप में मेरु पर्वतों के उत्तर - दक्षिण भाग में रात्रि होती है ?
हां, गौतम । यावद् रात्रि होती है।
२७. इस प्रकार इस अभिलाप के अनुसार ज्ञातव्य है यावत् भंते! जिस समय दक्षिणार्द्ध में प्रथम अवसर्पिणी प्रतिपन्न होती है, उस समय उत्तरार्द्ध में भी प्रथम अवसर्पिणी प्रतिपन्न होती है? जिस समय उत्तरार्द्ध में प्रथम अवसर्पिणी प्रतिपन्न होती है, उस समय धातकीषण्ड द्वीप में मेरु पर्वतों के पूर्वपश्चिम भाग में अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी नहीं होती यावत् आयुष्मन् श्रमण ? हां, गौतम ! यावत् आयुष्मन् श्रमण !
२८. जिस प्रकार लवण समुद्र की वक्तव्यता है, उसी प्रकार कालोद समुद्र की भी व्यक्तव्यता है, इतनी विशेष है— लवण समुद्र के स्थान पर 'कालोद' नाम वक्तव्य है।
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