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श.३ : उ.१ : सू.४६,४६
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भगवई
कुमारा देवा य देवीओ य देवाणुप्पिए कालगए प्रियं कालगतं ज्ञात्वा, ईशाने कल्पे इन्द्रत्वेन जाणित्ता ईसाणे य कप्पे इंदत्ताए उववण्णे उपपन्नं दृष्ट्वा आशुरुप्तः यावन् मिसिमिसि- पासेत्ता आसुरुत्ता जाव एगते एडेंति, एडेत्ता मानाः एकान्ते एडयन्ति, एडयित्वा यस्याः दिशः जामेव दिसिं पाउन्भूया तामेव दिसिं पडिगया। प्रादुरभूवन् तास्यामेव दिशि प्रतिगताः।
में इन्द्र के रूप में उपपन्न देखकर तत्काल आवेश में आ गए यावत् उस शरीर को घसीटते हुए एकान्त में डाल देते हैं। डाल कर जिस दिशा से आए उसी दिशा में चले गए।
४७. तए णं ईसाणे देविंदे देवराया तेसिं ईसाण- ततः ईशानः देवेन्द्रः देवराजः तेषाम् ईशान- ४७. देवेन्द्र देवराज ईशान उन ईशानकल्पवासी अनेक
कप्पवासीणं बहूणं वेमाणियाणं देवाण य कल्पावासिनां बहूनां वैमानिकानां देवानां देवीनां वैमानिक देवों और देवियों के पास यह बात सुन कर, देवीण य अंतिए एयमढे सोच्चा निसम्म च अन्तिके एतदर्थं श्रुत्वा निशम्य आशुरुप्तः अवधारण कर तत्काल आवेश में आ गया यावत् क्रोध आसुरुत्ते जाव मिसिमिसेमाणे तत्थेव सय- यावत् मिसिमिसिमानः तत्रैव शयनीयवरगतः की अग्नि से प्रदीप्त हो गया। वह उसी शयनीय (शय्या) णिज्जवरगए तिवलियं भिउडिं निडाले साहटु त्रिवलिकां भृकुटिं ललाटे संहृत्य बलिचञ्चा- पर बैठा हुआ ललाट पर तीन रेखाओं वाली भृकुटि' बलिचंचारायहाणिं अहे सपक्खिं सपडिदिसिं राजधानीम् अधः सपक्षं सप्रतिदिशं समभि- को चढ़ा कर अपने ठीक नीचे बलिचञ्चा राजधानी समभिलोएइ ॥ लोकते।
को देखता है।
भाष्य १. भृकुटी
वृत्तिकार ने इसका अर्थ दृष्टि-विन्यास का एक प्रकार किया है।' भौंह को सिकोड़ना-यह दृष्टि-विन्यास का एक प्रकार है।
४८. तए णं सा बलिचंचा रायहाणी ईसाणेणं ततः सा बलिचञ्चा राजधानी ईशानेन देवेन्द्रेण
देविदेणं देवरण्णा अहे सपक्खि सपडिदिसिं देवराजेन अधः सपक्षं सप्रतिदशिं समभि- सममिलोइया समाणी तेणं दिव्वप्पभावेणं लोकिता सती तेन दिव्यप्रभावेण अंगारभूता इंगालब्भूया मुम्मुरब्भूया छारियब्भूया तत्तक- मुर्मुरभूता क्षारभूता तप्तकवेल्लकभूता तप्ता वेल्लकन्भूया तत्ता समजोइन्भूया जाया यावि समज्योतिर्भूता जाता चापि आसीत्। होत्था ॥
४८. वह बलिचञ्चा राजधानी देवेन्द्र देवराज ईशान के
द्वारा अपने ठीक नीचे दृष्ट होने पर उस दिव्य प्रभाव से अंगारों, मुर्मरों (भरम-मिश्रित अग्निकणों), राख एवं तपे हुए तवे' के समान हो गई । वह ताप से तप्त और अग्नि तुल्य बन गई।
भाष्य
१. तवे
कवेल्लक और कवेल्लुअ दोनों शब्द मिलते हैं। इनका अर्थ 'कड़ाही, तवा, खपरेल' है। २. ताप से तप्त और अग्नि तुल्य बन गई
तत्ता समजोइन्भूया-प्रस्तुत पाठांश में 'तत्ता' पद स्वतंत्र और
समजोइन्भूया पद समस्त किया गया है। सातवें शतक (सू० ११८) में तत्तसमजोतिभूया यह एक समास है। वृत्तिकार ने यहां इसका अर्थ 'अग्नि के समान बनी' किया है।
सातवें शतक की वृत्ति में वृत्तिकार ने इसका अर्थ किया है-- 'वह ताप से अग्नि के समान बनी हुई। ठाणं में तत्ताणि पाठ स्वतंत्र है समजोतिभूताणि पाठ पृथक् है। स्थानाङ्ग की वृत्ति में भी यही अर्थ उपलब्ध है।
४६. तए णं ते बलिचंचारायहाणिवत्थव्वया बहवे ततः ते बलिचञ्चाराजधानीवास्तव्याः बहवः ४६. ' वे बलिचञ्चा राजधानी में रहने वाले अनेक
असुरकुमारा देवा य देवीओ य तं बलिचंचं असुरकुमाराः देवाश्च देव्यश्च तां बलिचञ्चां असुरकुमार देव और देवियां उस बलिचञ्चा राजधानी रायहाणिं इंगालब्भूयं जाव समजोइभूयं राजधानीम् अंगारभूतां यावत् समज्योतिर्भूतां को अंगारों के समान तप्त यावत् अग्नि-तुल्य देखते पासंति, पासित्ता भीआ तत्था तसिआ उन्वि- पश्यन्ति, दृष्ट्वा भीताः त्रस्ताः तृषिताः उद्विग्नाः हैं। देख कर भीत और प्रकम्पित हो गए। उनके कंठ ग्गा संजायभया सव्वओ समंता आधाति संजातभयाः सर्वतः समन्ताद् आधावन्ति प्यास से सूख गए। वे उद्विग्न और भय से व्याकुल
१. भ. वृ. ३/४७---- 'भृकुटि' दृष्टिविन्यासविशेषं। २. आप्टे-भृकुटि---contraction of the eye-brows. ३. देशीशब्दकोश। ४. भ. वृ. ३/४८- 'समजोइभूय' त्ति समा ज्योतिषाऽग्निना भूता समज्योतिर्भूता।
५. वही, ७/११८- 'तत्तसमजोइभूय' त्ति तप्तेन--तापेन समा- तुल्या ज्योतिषावभिना, भूतानि-जातानि या सा तथा। ६.ठाणं, ८/१०। ७. स्था. वृ. प. ३६८-- तप्तानि-उष्णानि, समानि-तुल्यानि-जाज्वल्यमानत्वाज ज्योतिषा- वझिना भूतानि-जातानि यानि तानि समज्योतिर्भूतानि।
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