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भगवई
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श.३ : उ.१ : सू.४६-५१
परिधावेंति, आधावेत्ता परिधावेत्ता अण्ण- प्रधावन्ति, आधाव्य प्रधाव्य अन्योन्यस्य कायं मण्णस्स कायं समतुरंगेमाणा- समतुरंगेमाणा समाश्लिष्यन्तः-समाश्लिष्यन्तः तिष्ठन्ति। चिट्ठति ॥
होकर चारों ओर इधर-उधर दौड़ रहे हैं, दौड़कर वे परस्पर एक दूसरे के शरीर का आश्लेष कर रहे हैं।
भाष्य
१. सूत्र ४६
समतुरंगेमाण-यह देशी पद है। वृत्ति में इसका अर्थ 'समाश्लेष शब्द-विमर्श
करता हुआ' है। वृद्ध व्याख्या में इसका अर्थ 'परस्पर एक दूसरे में अनुप्रवेश
करता हुआ' किया गया है। तसिय-उनके कण्ठ प्यास से सूख गए। हस्तलिखित वृत्ति के आदर्शों में तसिय और सुसिय दोनों पाठ व्याख्यात हैं।' ५०. तए णं ते बलिचंचारायहाणिवत्थव्वया बहवे ततः ते बलिचञ्चाराजधानीवास्तव्याः बहवः ५०. बलिचञ्चा राजधानी में रहने वाले अनेक असुरकुमार असुरकुमारा देवा य देवीओ य ईसाणं देविंदं असुरकुमाराः देवाश्च देव्यश्च ईशानं देवेन्द्रं देव और देवियां देवेन्द्र देवराज ईशान को परिकुपित देवरायं परिकुवियं जाणित्ता ईसाणस्स देविं- देवराजं परिकुपितं ज्ञात्वा ईशानस्य देवेन्द्रस्य जान कर, देवेन्द्र देवराज ईशान की उस दिव्य देवर्द्धि, दस्स देवरण्णो तं दिव्वं देविड्ढि दिव् देवज्जुइं देवराजस्य तां दिव्यां देवद्धिं दिव्यां देवद्युति दिव्य देवद्युति, दिव्य देवानुभाव और दिव्य तेजोलेश्या' दिव् देवाणुभागं दिव्वं तेयलेस्सं असहमाणा दिव्यं देवानुभागं दिव्यां तेजोलेश्याम् असह- को सहन करने में असमर्थ हो कर वे सब ठीक सब्वे सपक्खि सपडिदिसं ठिच्चा करयल- मानाः सर्वे सपक्षं सप्रतिदिशं स्थित्वा करतल- देवराज ईशान की दिशा में खड़े हो कर, दोनों हथेलियों परिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं परिगृहीतां दसनखां शिरसावर्ता मस्तके से निष्पन्न सम्पुटवाली दशनखात्मक अंजलि को सिर कटु जएणं विजएणं वद्धावेंति, वद्धावेत्ता अञ्जलिं कृत्वा जयेन विजयेन वर्धापयन्ति, के सम्मुख घुमा कर, मस्तक पर टिका कर जय-विजय एवं वयासी-अहो! णं देवाणुप्पिएहिं दिव्वा वर्धापयित्वा एवमवादिषुः-अहो! देवानुप्रियः ध्वनि से उन्हें वर्धापित करते हैं, वर्धापित कर वे इस देविड्ढी दिव्वा देवज्जुई दिब्वे देवाणुभावे लद्धे दिव्या देवर्द्धिः दिव्या देवद्युतिः दिव्यः देवा- प्रकार बोले-अहो! आपने दिव्य देवर्द्धि, दिव्य पत्ते अभिसमण्णागए, तं दिट्ठा णं देवाणु- नुभावः लब्धः प्राप्तः अभिसमन्वागतः, तत् देवद्युति और दिव्य देवानुभाव उपलब्ध किया है, प्राप्त प्पियाणं दिव्वा देविड्ढी दिव्वा देवज्जुई दिव्वे दृष्टा देवानुप्रियाणां दिव्या देवर्द्धिः दिव्या किया है, अभिसमन्वागत (विपाकाभिमुख) किया है। देवाणुभावे लद्धे पत्ते अभिसमण्णागए तं देवद्युतिः दिव्यः देवानुभावः लब्धः प्राप्तः आपने जो दिव्य देवर्द्धि, दिव्य देवधुति और दिव्य खामेमो णं देवाणुप्पिया! खमंतु णं देवाणु- अभिसमन्वागतः, तत् क्षाम्यामः देवानुप्रियाः! देवानुभाव उपलब्ध किया है, प्राप्त किया है, अभिप्पिया! खंतुमरिहंति णं देवाणुप्पिया! णाइ क्षाम्यन्तु देवानुप्रियाः! क्षन्तुमर्हन्ति देवानु- समन्वागत किया है, वह हमने देख लिया है। इसलिए भुज्जो एवं करणयाए त्ति कटु एयमढें सम्मं प्रियाः! नापि भूयः एवं करणतया इति कृत्वा हम आपसे क्षमायाचना करते हैं, देवानुप्रिय! आप विणएणं भूज्जो-भुज्जो खामेंति ॥ एतदर्थं सम्यग् विनयेन भूयः भूयः क्षमयन्ति। हमें क्षमा करें, देवानुप्रिय! आप क्षमा करने में समर्थ
हैं, देवानुप्रिय! हम पुनः ऐसा न करने के लिए संकल्प करते हैं। ऐसा कह कर वे इस बात के लिए सम्यक् प्रकार से विनयपूर्वक बार-बार क्षमायाचना करते हैं।
भाष्य
१. तेजोलेश्या
द्रष्टव्य भ०१/६का भाष्य।
५१.तए णं से ईसाणे देविंदे देवराया तेहिं बलि- ततः सः ईशानः देवेन्द्रः देवराजः तेः बलि- ५१. वह देवेन्द्र देवराज ईशान उन बलिचञ्चा राजधानी
चंचारायहाणिवत्थव्वएहिं बहूहिं असुरकुमा- चञ्चाराजधानीवास्तव्यैः बहुभिः असुरकुमारैः में रहने वाले अनेक असुरकुमार देवों और देवियों रेहिं देवेहिं देवीहि य एयमर्दु सम्मं विणएणं देवैः देवीभिश्च एतदर्थं सम्यग् विनयेन भूयः- के द्वारा इस बात के लिए सम्यक् प्रकार से विनयपूर्वक भुज्जो-भुज्जो खामिते समाणे तं दिलं देविडिंढ भूयः क्षामिते सति तां दिव्यां देवर्द्धि यावत् बार-बार क्षमायाचना करने पर उस दिव्य देवर्द्धि यावत् जाव तेयलेस्सं पडिसाहरइ। तप्पभितिं च णं तेजोलेश्यां प्रतिसंहरते । तत्प्रभृति च गौतम! तेजोलेश्या को पुनः अपने भीतर समेट लेता है। गोयमा! ते बलिचंचा-रायहाणिवत्थव्वया बहवे ते बलिचञ्चाराजधानीवास्तव्याः बहवः असुर- गौतम! उस दिन से वे बलिचञ्चा राजधानी में रहने
असुरकुमारा देवा य देवीओ य ईसाणं देविंद कुमाराः देवाश्च देव्यश्च ईशानं देवेन्द्रं देवराजं वाले अनेक असुरकुमार देव और देवियां देवेन्द्र १ द्रष्टव्य अंगसुत्ताणि, भाग २, पृ० १३७ का पाद-टिप्पण।
२. भ. वृ. ३/४६-'समतुरंगेमाण' ति समाश्लिष्यन्तः, अन्योऽन्यमनुप्रविशन्त इति वृद्धाः ।
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