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श.३ : उ.१ : सू.५१-५४
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भगवई
देवरायं आढ़ति परियाणंति सक्कारेंति सम्मा- आद्रियन्ते परिजानन्ति सत्कारयन्ति सम्मान- णेति कल्लाणं मंगलं देवयं विणएणं चेइयं यन्ति कल्याणं मंगलं दैवतं विनयेन चैत्यं पज्जुवासंति, ईसाणस्स देविंदस्स देवरण्णो पर्युपासते, ईशानस्य च देवेन्द्रस्य देवराजस्य आणा-उववाय वयण-निद्देसे चिट्ठति। आज्ञा-उपपात-वचन-निर्देशे तिष्ठन्ति।
देवराज ईशान का आदर करते हैं, स्वामी के रूप में स्वीकार करते हैं, सत्कार-सम्मान देते हैं, कल्याणकारी, मंगलकारी, देव रूप और चित्ताहादक मानकर विनयपूर्वक पुर्यपासना करते हैं। वे देवन्द्र देवराज ईशान की आज्ञा,' उपपात (सेवा), आदेश और निर्देश में रहते
एवं खलु गोयमा! ईसाणेणं देविंदेणं देवरण्णा एवं खलु गौतम ! ईशानेन देवेन्द्रेण देवराजेन सा दिव्वा देविड्ढी दिव्वा देवज्जुई दिव्वे देवा- सा दिव्या देवर्द्धिः दिव्या देवद्युतिः दिव्यः देवा- णुभावे लद्धे पत्ते अभिसमण्णागए। नुभावः लब्धः प्राप्तः अभिसमन्वागतः ।
गौतम ! इस प्रकार देवेन्द्र देवराज ईशान ने वह दिव्य देवर्द्धि, दिव्य देवधुति और दिव्य देवानुभाव उपलब्ध किया है प्राप्त किया है अभिसमन्वागत (विपाकाभिमुख) किया है।
भाष्य
१. आज्ञा
अर्थ किए जा सकते हैं।
कर्त्तव्य का उपदेश।
३. आदेश (वचन)
बलपूर्वक दिया गया अनुशासन।
. २. उपपात
सेवा, प्रादुर्भाव। 'उववाय' का संस्कृत रूप 'उपपात' किया जाता है। यदि 'उपपाद' किया जाए तो निकट जाना, बैठना, उपासना करना-ये
४. निर्देश
प्रश्नित कार्य के विषय में दिया जाने वाला निश्चित उत्तर ।'
५२. भन्ते ! देवेन्द्र देवराज ईशान की स्थिति कितनी प्रज्ञप्त
५२. ईसाणस्स भंते! देविंदस्स देवरण्णो केवतियं ईशानस्य भदन्त ! देवेन्द्रस्य देवराजस्य कियत् कालं ठिई पण्णत्ता?
कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता? गोयमा! सातिरेगाई दो सागरोवमाइं ठिई गौतम! सातिरेको द्वो सागरोपमो स्थितिः पण्णत्ता॥
प्रज्ञप्ता।
गौतम ! कुछ अधिक दो सागरोपम की स्थिति प्रज्ञप्त
५३. ईसाणे णं भंते! देविंदे देवराया ताओ ईशानः भदन्त! देवेन्द्रः देवराजः तस्माद् देव- ५३. भन्ते ! देवेन्द्र देवराज ईशान आयुक्षय भवक्षय और
देवलोगाओ आउक्खएण भवक्खएणं ठिइ- लोकाद् आयुःक्षयेण भवक्षयेण स्थितिक्षयेण स्थितिक्षय के अनन्तर उस देवलोक से च्यवन कर क्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता कहिं गच्छिहिति? अनन्तरं च्यवं च्युत्वा कुत्र गमिष्यति? कुत्र कहां जाएगा? कहां उपपन्न होगा? कहिं उववज्जिहिति?
उपपत्स्य ते? गोयमा! महाविदेहे वासे सिज्झिहिति बुज्झि- गौतम ! महाविदेहे वर्षे सेत्स्यति 'बुज्झिस्सइ' गीतम ! वह महाविदेह क्षेत्र में सिद्ध, प्रशान्त, मुक्त हिति मुच्चिहिति परिणिवाहिति सव्वदुक्खाणं मोक्ष्यति परिनिर्वास्यति सर्वदुःखानामन्तं और परिनिर्वृत्त होगा, सब दुःखों का अन्त करेगा। अंतं काहिति॥
करिष्यति।
सक्कीसाण-पदं
शक्रेशान-पदम्
शक्रेशान-पद ५४. सक्करस णं भंते! देविंदस्स देवरण्णो शक्रस्य भदन्त ! देवेन्द्रस्य देवराजस्य विमा- ५४. भन्ते ! क्या देवेन्द्र देवराज ईशान के विमान देवेन्द्र विमाणेहिंतो ईसाणस्स देविंदस्स देवरण्णो नेभ्यः ईशानस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य विमानाः देवराज शक्र के विमानों से कुछ ऊंचे हैं? कुछ उन्नत विमाणा ईसिं उच्चतरा चेव ईसि उन्नयतरा ईषद् उच्चतराः चैव ईषद् उन्नततराः चैव? हैं? क्या देवेन्द्र देवराज शक्र के उच्चतर, उन्नततर' चेव? ईसाणस्स वा देविंदस्स देवरण्णो ईशानस्य वा देवेन्द्रस्य देवराजस्य विमानेभ्यः विमान देवेन्द्र देवराज ईशान के विमानों से कुछ नीचे विमाणे हितो सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य विमानाः ईषत् हैं? कुछ निम्न हैं? विमाणा ईसिं णीयतरा चेव ईसिं निण्णतरा नीचतराः चैव ईषत् निम्नतराः चैव ?
चेव? हंता गोयमा! सक्कस्स तं चेव सव्वं नेयव्वं ॥ हन्त गौतम ! शक्रस्य तच्चैव सर्वं नेतव्यम्। हां, गौतम ! यह सब इसी प्रकार ज्ञातव्य है।
१. भ. वृ. ३/५१ आज्ञा-कर्त्तव्यमेवेदमित्याद्यादेशः, उपपातः-- सेवा, वचनम्-अभियोगपूर्वक आदेशः, निर्देशः---प्रश्निते कार्य नियतार्थमुत्तरं।
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