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________________ भगवई २६ श.३ : उ.१ : सू.४५,४६ कटु तामलिस्स बालतवस्सिस्स सरीरयं कृत्वा तामलेः बालतपस्विनः शरीरकं हेलयन्ति हीलंति निंदति खिंसंति गरहंति अवमण्णंति निन्दन्ति 'खिसंति' गर्हन्ते अवमन्यन्ते तज्जेंति तालेंति परिवहति पव्वहेंति, आकड्ढ- तर्जयन्ति ताडयन्ति परिव्यथन्ते प्रव्यथन्ते विकडिंढ करेंति, हीलेत्ता निंदित्ता खिंसित्ता आकर्ष-विकृष्टिं कुर्वन्ति, हेलयित्वा निन्दित्वा गरहित्ता अवमण्णेत्ता तज्जेत्ता तालेत्ता परि- खिंसित्वा गर्हित्वा अवमत्य तर्जयित्वा ताडयित्वा वहेत्ता पन्चहेत्ता आकड्ढ-विकड्ढि करेत्ता परिव्यथ्य प्रव्यथ्य आकर्ष-विकृष्टिं कृत्वा एकाएगंते एडंति, एडित्ता जामेव दिसिं पाउब्भूया न्ते एडयन्ति, एडयित्वा यस्याः दिशः प्रादुरभूवन् तामेव दिसिं पडिगया । तास्यामेव दिशि प्रतिगताः। ईशान? ऐसा कहकर वे बालतपस्वी तामलि के शरीर की हेलना, निन्दा, तिरस्कार, गर्हा, अवमानना, तर्जना, ताड़ना, कदर्थना करते हैं, व्यथा (अथवा संचालन) उत्पन्न करते हैं और घसीटते हैं। हेलना, निन्दा, तिरस्कार, गर्हा, अवमानना, तर्जना, ताड़ना, कदर्थना कर और व्यथित कर, घसीट कर उसे एकान्त में डाल देते हैं। डाल कर जिस दिशा से आए उसी दिशा में चले गए। भाष्य १. सूत्र ४५ निठुहंति-थूकते हैं। वृत्तिकार ने उठुहंति पाठ की व्याख्या की है।' शब्द-विमर्श हीलंति...... आकड्ढ-विकट्टि करेंति-असुरकुमार देवों ने आसुरुत्त-- तत्काल आवेश में आ गए। इसका संस्कृत रूप तामलि के शरीर की अवज्ञा की। उसका चित्रण १० क्रियापदों में उपलब्ध आशुरुप्त होता है। रुप् धातु का क्त प्रत्यय का रूप ‘रुप्त' बनता है। 'रुप्' का है-हेलना, निन्दा, खिंसा, अवमानना, तर्जना, ताड़ना, परिव्यथा, प्रव्यथा और अर्थ आप्टे कोश में to disturb (बाधित करना) किया गया है। वृत्तिकार ने आकर्ष-विकृष्टि करना। इन सभी क्रियाओं द्वारा अवज्ञा का उत्कर्ष दिखलाया आसुरुत्त का अर्थ 'कोप से विमूढ़ मति वाला' किया है।' गया है। शब्द मीमांसा के अनुसार प्रत्येक शब्द का अपना स्वतंत्र अर्थहै। वृत्तिकार ने चंडिक्किय-रौद्ररूपधारी। इसका संबंध चंडिक्क शब्द से है। उसकी व्याख्या की है। भगवई (१२/१०३) में क्रोध के दस पर्यायवाची नाम बतलाए गए हैं। उनमें इनमें कुछ क्रियापद विमर्शनीय हैंएक 'चंडिक्क' है। यह देशी शब्द है।' खिंस--यह देशी धातु है। मिसिमिसेमाण-क्रोध की अग्नि से प्रदीप्त। आप्टे ने 'मिश्' व्यथ-धातु के दो अर्थ हैं-भय और संचालन । व्यथा का अर्थ धातु का अर्थ क्रुद्ध होना भी किया है।' पीड़ा भी होता है। मृत शरीर को पीड़ा की अनुभूति नहीं होती, इसलिए यहां शुम्ब--- रज्जु। आप्टे ने कोश में 'शुम्ब' का अर्थ रस्सी (rope) इसका अर्थ 'संचालित करना' ही संगत लगता है। किया है। आकर्ष-विकृष्टि-- घसीटना। ४६. तएणं ते ईसाणकप्पवासी बहवे देमाणिया ततः ते ईशानकल्पवासिनः बहवः वैमानिकाः ४६. वे ईशान कल्पवासी अनेक वैमानिक देव और देवियां देवा य देवीओ य बलिचंचारायहाणिवत्थ- देवाश्च देव्यश्च बलिचञ्चाराजधानीवास्तव्यैः बलिचञ्चा राजधानी में रहने वाले अनेक असुरकुमार व्वएहिं बहूहिं असुरकुमारेहिं देवेहिं देवीहि बहुभिः असुरकुमारेः देवेः देवीभिश्च तामलेः देवों और देवियों के द्वारा बालतपस्वी तामलि के शरीर य तामलिरस बालतवस्सिस्स सरीरयं ही- बालतपस्विनः शरीरकं हील्यमानं निन्द्यमानं की हेलना, निन्दा, तिरस्कार, गर्हा, अवमानना, तर्जना, लिज्जमाणं निंदिज्जमाणं खिंसिज्जमाणं गर- खिस्यमानं गर्यमाणम् अवमन्यमानं तर्प्यमानं ताड़ना, कदर्थना, व्यथा (संचालन) की जा रही है, हिज्जमाणं अवमण्णिज्जमाणं तज्जिज्जमाणं ताड्यमानं परिव्यथ्यमानं प्रत्यथ्यमानं आकर्ष- उसे घसीटा जा रहा है--यह देखते हैं। देख कर वे तालेज्जमाणं परिवहिज्जमाणं पव्वहिज्जमाणं विकृष्टिं क्रियमाणं पश्यन्ति, दृष्ट्वा आशुरुप्ताः तत्काल आवेश में आ जाते हैं यावत् क्रोध की अग्नि आकड्ढ विकडिंढ कीरमाणं पासंति, पासित्ता यावन् मिसिमिसिमानाः यत्रैव ईशानः देवेन्द्रः से प्रदीप्त हो जाते हैं। वे जहां देवेन्द्र देवराज ईशान हैं, आसुरुत्ता जाव मिसिमिसेमाणा जेणेव ईसाणे देवराजः तत्रैव उपागच्छन्ति, उपागम्य करतल- वहां आते हैं। आ कर दोनों हथेलियों से निष्पन्न देविंदे देवराया तेणेव उवागच्छंति, उवाग- परिगृहीतां दसनखां शिरसावर्तं मस्तके सम्पुटवाली दशनखात्मक अंजलि को सिर के सम्मुख च्छित्ता करयल-परिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं अञ्जलिं कृत्वा जयेन विजयेन वर्धापयन्ति, घुमा कर मस्तक पर टिका कर जय-विजय की ध्वनि मत्थए अंजलिं कटु जएणं विजएणं वद्धावेंति, वर्धापयित्वा एवमवादिषुः-- एवं खलु से उन्हें वर्धापित कर वे इस प्रकार बोले-देवानुप्रिय! वद्धावेत्ता एवं वयासी-एवं खलुदेवाणुप्पिया! देवानुप्रियाः! बलिचञ्चाराजधानीवास्तव्याः बलिचञ्चा राजधानी में रहने वाले अनेक असुरकुमार बलिचंचारायहाणिवत्थव्वया बहवे असुर- बहवः असुरकुमाराः देवाश्च देव्यश्च देवानु- देव और देवियां आपको मृत जान कर तथा ईशानकल्प १. भ. वृ ३/४५.-'आसुरुत्ता'-शीघ्रकोपविमूढबुद्धयः । २ वही, ३/४५---चटिक्किय' त्ति प्रकटितरौद्ररूपः। ३. देशीशब्दकोश। ४. (क) भ. वृ. ३/४५-'मिसिमिसेमाणे' त्ति देदीप्यमानाः क्रोधज्वलनेनेति। ख) आप्रे-मिश्-to be angry. ५. भ. वृ. ३/४५- 'उठुहंति' त्ति अवष्ठीव्यन्ति-निष्ठीवनं कुर्वन्ति। ६. वही, ३/४५ 'हीलेंति' ति जात्याउदघाटनतः कृत्सन्ति, "निदंति ति चेतसा कत्सन्ति, 'खिसंति' नि स्वसमक्षं वचनैः कुत्सन्ति, 'गरहति' ति लोकसमक्ष कुत्सन्त्येव, 'अवमण्णंति' त्ति अवमन्यन्ते--अवज्ञाऽऽस्पदं मन्यन्ते, 'तज्जिति' ति सर्वतो व्यथन्ते कदर्थयन्ति, 'पन्चहति' त्ति प्रव्यथन्ते प्रकृष्टव्यथामिवोत्पादयन्ति, 'आकडविकहि' त्ति आकर्षविकर्षिकां। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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