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________________ श. ३ : उ. १ : सू. ४०-४५ परियाणे, तुसिणीए संवि ४१. तर ते बलिचारायानिवत्यव्यया बहवे असुरकुमारा देवा य देवीओ य तामलिणा बालतवरिसणा अणाढाइज्जमाणा अपरियाणिज्यमाणा जामेव दिसिं पाउन्भूया तामेव दिसिं पहिगया | ४३.तए णं से तामली बालतवस्सी बहुपडिपुण्णाई सट्ठि वाससहस्साइं परियागं पाउणित्ता, दोमासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसित्ता, सवीसं भत्तसयं अणसणाए छेदित्ता कालमासे कालं किच्या ईसाने कप्पे ईसानवडेंस विमाणे उववायसभाए देवसयणिज्जंसि देवदूतरिए अंगुलस्स असंखेज्जइभागमेत्तीए ओगाहणाए ईसाणदेविंदविरहियकालसमयंसि ईसाणदेविदत्ताए उववण्णे || ४२. तेणं कालेणं तेणं समएणं ईसाणे कप्पे तस्मिन् काले तस्मिन् समये ईशानः कल्पः अणिंदे अपुरोहिये यावि होत्था ॥ अनिन्द्रः अपुरोहितश्चापि आसीत् । ४४.तए णं से ईसाणे देविंदे देवराया अहुणोववण्णे पंचविहाए पज्जत्तीए पज्जत्तिभावं गच्छड़, (वं जहा आहारपज्जत्तीए जाव भासा-गणपतीए ४५. तए णं ते बलिचंचारायहाणिवत्थव्वया बहवे असुरकुमारा देवा य देवीओ य तामलिं बालतवस्सिं कालगतं जाणित्ता, ईसाणे य कप्पे देविंदत्ताए उववण्णं पासित्ता आसुरुत्ता रुट्ठा कुविया चंडिक्किया मिसिमिसेमाणा बलिचंचाए रायहाणी मज्झंमज्झेणं निग्गच्छंति, निग्गच्छित्ता ताए उक्किट्टाए जाव जेणेव भारहे वासे जेणेव तामलित्ती नयरी जेणेव तामलिस्स बालतवस्सिस्स सरीरए तेणेव उवागच्छंति, वामे पाए सुंबे बंधंति, तिक्खुत्तो मुहे निट्ठहंति, तामलित्तीए नगरीए सिंघाडग-तिग- चउक्क-चच्चर-चउम्मुह- महापह-पहेसु आकड्ढविकड़िंढ करे माणा, महया - महया सद्देणं उपो सेमाना- उपोसेमाना एवं क्यासिकेसणं भो ! से तामली बालतवस्सी सयंगहियलिंगे पाणामा पव्वज्जा पव्वइए ? केस णं से ईसाणे कप्पे ईसाणे देविंदे देवराया ? -ति २८ जानाति, तूष्णीकः सन्तिष्ठते ॥ Jain Education International ततः ते बलिवस्वाराजधानीवास्तव्याः बहवः असुरकुमाराः देवाश्च देवयश्च तामलिना बालतपस्विना अनाद्रियमाणाः अपरिज्ञायमाणाः यस्यादिशः प्रादुरभूवन् तामेव दिशं प्रतिगताः। ततः सः तामलि बालतपस्वी बहुप्रतिपूर्णानि षष्टिं वर्षसहस्राणि पर्यायं प्राप्य द्विमासिक्या संलेखनया आत्मानं जोषित्वा, सविंशतिभक्तशतं अनशनेन छित्त्वा कालमासे कालं कृत्वा ईशाने कल्पे ईशानावतंसके विमाने उपपातसभायाः देवशयनीये देवदूष्यान्तरितः अंगुलस्य असंख्येयभागमात्रया अवगाहना ईशानदेवेन्द्रविरहितकालसमये ईशान देवेन्द्रत्वेन उपपन्नः । ततः सः ईशानः देवेन्द्रः देवराजः अधुनोपपन्नः पञ्चविधया पर्याप्तत्या पर्याप्तिभावं गच्छति, (तद् यथा - आहारपर्याप्त्या यावद् भाषामनःपर्याया ततः ते बलिचञ्चाराजधानीवास्तव्याः वहवः असुरकुमाराः देवाश्व देव्यश्च तामलिं बालतपस्विनं कालगतं ज्ञात्वा ईशाने च कल्पे देवेन्द्रत्वेन उपपन्नं दृष्ट्वा आशुरुप्ताः रुष्टाः कुपिताः चाण्डिक्यिताः मिसिमिसिमानाः बलिचञ्चायाः राजधान्याः मध्यमध्येन निगच्छन्ति, निर्गम्य तया उत्कृष्टया यावद् यत्रेव भारत: वर्षः यत्रेव ताम्रलिप्तिः नगरी यत्रैव तामलेः बालतपस्विनः शरीरं तत्रैव उपागच्छन्ति, वामं पादं शुबेन बध्नन्ति, त्रिकृत्वः मुखे निष्ठीव्यन्ति ताम्रलिप्त्याः नगः शृंगाटकत्रिक-चतुष्क- चत्वर- चतुर्मुख-महापथ-पधेषु आकर्ष- विकृष्टिं कुर्वन्तः महता-महता शब्देन उद्घोषयन्तः उद्घोषयन्तः एवमवादिषुः रु एष भो! स तामलिः बालतपस्वी स्वयं गृहीतलिंगः प्राणामायां प्रव्रज्यायां प्रव्रजितः ? क एष स ईशाने कल्पे ईशानाः देवेन्द्रः देवराजः ? इति For Private & Personal Use Only भगवई दूसरी बार और तीसरी बार भी ऐसा कहने पर वह न तो उनकी बात को आदर देता है और न उस पर ध्यान केन्द्रित करता है, मौन रहता है। ४१. वे बलिचञ्चा राजधानी में रहने वाले अनेक असुरकुमार देव और देवियां बालतपस्वी तागलि के द्वारा अनादृत और अस्वीकृत होकर जिस दिशा में आए थे, उसी दिशा में चले गए। ४२. उस काल और उस समय ईशान कल्प (दूसरा देवलोक ) इन्द्र और पुरोहित से रिक्त था। ४३. वह बालतपस्वी तामलि पूरे साठ हजार वर्ष के तापस पर्याय का पालन कर दो मास की संलेखना से अपने आपको कृश बना कर अनशन के द्वारा एक सौ बीस भक्तों का छेदन कर काल मास में काल को प्राप्त कर ईशान कल्प के ईशानावतंसक विमान में उपपात सभा के देवदृष्य से आच्छन्न देवशयनीय में अंगुल के असंख्येय भाग जितनी अवगाहना से ईशान देवेन्द्र से विरहित समय में ईशान देवेन्द्र के रूप में उपपन्न हो गया। ४४. वह तत्काल उपपन्न देवेन्द्र देवराज ईशान पांच प्रकार की पर्याप्तियों से पर्याप्त भाव को प्राप्त होता है, (जैसेआहारपर्याप्ति से यावत् भाषा मन पर्याप्ति से) ४५. ' बलिचञ्चा राजधानी में रहने वाले अनेक असुरकुमार देव और देवियां बालतपस्वी तामलि को मृत जान कर तथा ईशान कल्प में देवेन्द्र रूप में उपपन्न देख कर तत्काल आवेश में आ गए, रुष्ट हो गए, कुपित हो गए। उनका रूप रौद्र बन गया। वे क्रोध की अग्नि से प्रदीप्त हो उठे। वे बलिचञ्चा राजधानी के मध्यभाग से निर्गमन करते हैं, निर्गमन कर उस उत्कृष्ट दिव्य देवगति से यावत् जहां भारतवर्ष है, जहां ताम्रलिप्ति नगरी है और जहां बालतपस्वी तामलि का मृत शरीर पड़ा हुआ है, वहां आते हैं। उसके बाएं पैर को रज्जु से बांधते हैं, तीन बार मुंह पर चूकते हैं और ताम्रलिप्त नगरी के दुराहों, तिराहों, चौराहों, चौक, चार द्वार वाले स्थानों, राजपथों और सामान्य मार्गों पर उसको घसीटते हुए बाढ़ स्वर से उद्घोषणा करते हुए इस प्रकार बोले- कौन है यह बालतपस्वी तामलि जो स्वयं ही तापस का लिंग धारण कर प्राणामा प्रव्रज्या में प्रव्रजित हुआ था? कौन है वह ईशान कल्प में देवेन्द्र देवराज www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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