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भगवई
ज्जिस्सह, तए णं तुभे अम्हं इंदा भविस्सह, तए णं तुब्भे अम्हेहिं सद्धिं दिव्वाई भोगभोगाई भुजमाणा विहरिस्सह ।
१. स्थिति - प्रकल्प
बलिचञ्चा-विषयक स्थिति का संकल्प | "
२. उत्कृष्ट, त्वरित..... दिव्य देव गति से
देवगति के नी विशेषण उपलब्ध हैं। वृतिकार ने इनका शाब्दिक अर्थ किया है। इनके अर्थ की परम्परा प्राप्त नहीं है।
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अस्माकं इन्द्रा भविष्यथ । ततः यूयं अस्माभिः सार्धं दिव्यान् भोगभोगान् भुञ्जानाः विहरिष्यथ ।
३. सपक्खि सपडिदिसिं ( ठीक ऊपर आकाश में स्थित हो कर ) एक व्यक्ति या वस्तु के ऊपर या नीचे दूसरा व्यक्ति या वस्तु ठीक सीध में होता है उस स्थान को सपक्ष और सप्रतिदिक् कहा जाता है। 'सपक्खि' शब्द में इकार प्राकृत के अनुसार हुआ है। ठाणं में अनेक बार इन दोनों पदो का प्रयोग हुआ है। *
३६. तए गं से तामली बालतवस्ती तेहिं बलिचंचारायहाणिवत्थव्वएहिं बहूहिं असुरकुमारेहिं देवेहिं देवीहि य एवं वृत्ते समाणे एयम नो आढाइ, नो परियाणेइ, तुसिणीए संचिदुइ ॥
भाष्य
४. बत्तीस प्रकार की दिव्य नाट्य-विधियां
नाट्य विधि के ३२ प्रकारों के लिए रायपसे पाइये (सूत्र ६५ ११८) द्रष्टव्य है।
४०. तसे बचिंचारायहाणिवत्यव्यया बहवे असुरकुमारा देवाय देवीओ य तामलिं मोरियपुत्तं दोच्चं पि तच्चं पि तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेंति जाव अम्हं च णं देवा
पिया ! बलिचंचा राहाणी अनिंदा अपुरो हिया, अम्हे य णं देवाणुप्पिया ! इंदाहीणा इंदाहिट्टि इंदाहीणकज्जा, तं तुब्भे णं देवागुप्पिया! बलिचंच राहाणं आढाह परिमाण सुमरह, अहं बंध, निदाणं प करेह, ठितिपकणं पकरेह जाव दोच्चं पिराच्यं पि एवं बुत्ते समाणे एयम नो आढाइ, नो
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१. भ. वृ. ३/३८ स्थिती अवस्थाने बलिचञ्चाविषये प्रकल्पः- संकल्पः स्थिति-प्रकल्पः । २. भ. वृ. ३/३८ - 'उत्कृष्टया' उत्कर्षवत्या देवगत्येति योगः 'त्वरितया' आकुल (त) या न स्वभावजयेत्यर्थः, अन्तराकूततोऽप्येषा स्यादित्यत आह- 'चपलया' कायचापलोपेतया 'चण्डया' रौद्रया तथाविधोत्कर्षयोगेन 'जयिन्या' गत्यन्तरजेतृत्वात् 'छेकया' निपुणया उपायप्रवृत्तितः 'सिंहया' सिंहगतिसमानया श्रमाभावेन, 'शीघ्रया' वेगवत्या 'दिव्यया' प्रधानया 'उद्धृतया'
५. आढाह..... ठितिपकप्पं पकरेह - आदर दें, उसमें ध्यान केन्द्रित करें... स्थिति प्रकल्प करें
इन छह पदों में संकल्प की प्रक्रिया निर्दिष्ट है।
संकल्प का पहला सूत्र है आदर। जिसके प्रति आदर का भाव नहीं होता, उस विषय का संकल्प सिद्ध नहीं होता।
श. ३ : उ. १ : सू. ३८-४०
कर बलिचञ्चा राजधानी में उत्पन्न हो जायेंगे। आप हमारे इन्द्र बन जायेंगे और हमारे साथ दिव्य भोगाई भोगों को भोगते हुए विहरण करेंगे।
इसका दूसरा तत्त्व है परिज्ञा-संकल्प विषय की धारणा । धारणा होने पर ही संकल्प की सिद्धि होती है।
इसका तीसरा सूत्र है-स्मृति संकल्प-विषय की सतत् स्मृति संकल्प-सिद्धि के लिए आवश्यक है।
इसका चौथा सूत्र 'है—अर्थबन्ध । संकल्प के प्रयोजन के साथ तादात्म्य स्थापित करने पर वह सिद्ध होता है।
ततः स तामलिः बालतपस्वी तैः बलिचञ्चाराजधानीवास्तव्यैः बहुभिः असुकुमारैः देवैः देवीभिश्च एवमुक्ते सति एतदर्थं नो आद्रियते, नो परिजानाति, तूष्णीकः सन्तिष्ठते ।
इसका पांचवा सूत्र है - निदान संकल्प विषय के प्रति तीव्र अभिलाषा सकल्प -सिद्धि के लिए आवश्यक होती है।
असुरकुमार देवों और देवियों ने स्थिति-प्रकल्प की सिद्धि के लिए ये पांच उपाय बतलाए । स्वतः सूचना-पद्धति (auto-suggestology) अथवा संकल्प -सिद्धि (goal achievement) के लिए ये बहुत उपयोगी है।
ततः ते बलिञ्चराजधानीवास्तव्याः बहवः असुरकुमाराः देवाश्च देव्यश्च तामलिं मौर्यपुत्रं द्वितीयमपि तृतीयमपि त्रिकृत्वः आदक्षिणप्रदक्षिणां कुर्वन्ति यावद् अस्माकं च देवानुप्रिय ! बलिचञ्चा राजधानी अनिन्द्रा अपुरोहिता, वयं च देवानुप्रिय ! इन्द्राधीनाः इन्द्राधिष्ठिताः इन्द्राधीनकार्याः, तत् यूयं देवानुप्रियाः ! बलिचञ्चां राजधानी आद्रियध्वम्, परिजानीत स्मरत, अर्थ बध्नीत, निदानं प्रकुरुत, स्थितिप्रकल्पं प्रकुरुत यावद् द्वितीयमपि तृतीयमपि एवमुक्ते सति एतदर्थ मो आद्रियते, नो परि
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३८. वह बालतपस्वी तामलि उन बलिचञ्चा राजधानी में रहने वाले अनेक असुरकुमार देवों और देवियों के द्वारा ऐसा कहने पर उनकी बात को न आदर देता है और न उस पर ध्यान केन्द्रित करता है, मौन रहता है।
४०. बलिचञ्चाराजधानी में रहने वाले व अनेक असुरकुमार देव और देवियां मोर्यपुत्र तामलि को दूसरी आर भी, तीसरी बार भी दाई ओर से प्रारंभ कर तीन चार प्रदक्षिणा करते हैं यावत् (वे बोले – देवानुप्रिय हमारी बलिया राजधानी इन्द्र और पुरोहित से रिक्त है । देवानुप्रिय ! हम इन्द्र के अधीन हैं, इन्द्र में अधिष्ठित है और हमारे सारे कार्य इन्द्र के अधीन है, इसलिए देवानुप्रिय ! आप बलिचञ्चा राजधानी को आदर दें, उस में ध्यान केन्द्रित करें, उसकी स्मृति करें, उस प्रयोजन का निश्चय करें, निदान करें और स्थिति-प्रकल्प (वहां उत्पन्न होने का संकल्प) करें यावत्
या वादा
३. वही, ३/३८ -- 'सपक्खि' त्ति समाः सर्वे पक्षाः पार्थ्याः पूर्वापरदक्षिणोत्तरा यत्र स्थाने तत्सपक्षम्, इकारः प्राकृतप्रभवः समाः सर्वाः प्रतिदिशो यत्र तत्सप्रतिदिक् । ४. टाणं, ३/१३१, १३२, ४/४८२।
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