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________________ श.३ : उ.१ : सू.३८ २६ भगवई ३८. तए णं ते बलिचंचारायहाणिवत्थबया बहवे ततः ते बलिचञ्चाराजधानीवास्तव्याः बहवः ३८. वे बलिचञ्चा राजधानी में रहने वाले अनेक असुरकुमारा देवा य देवीओ य तामलिं बाल- असुरकुमाराः देवाश्च देव्यश्च तामलिं बाल- असुरकुमार देव और देवियां अवधिज्ञान से बाल तवस्सिं ओहिणा आभोएंति, आभोएत्ता तपस्विन अवधिना आभोगयन्ति, आभोग्य तपस्वी तामलि को देखते हैं। उसे देख कर वे परस्पर अण्णमण्णं सद्दावेंति,सद्दावेत्ता एवं वयासि- अन्योन्यं शब्दयन्ति, शब्दयित्वा एवम् अ- एक दूसरे को बुलाते हैं। उन्हें बुला कर वे इस प्रकार एवं खलु देवाणुप्पिया! बलिचंचा रायहाणी वदन्–एवं खलु देवानुप्रियाः ! बलिचञ्चा- बोले-देवानुप्रियो ! बलिचञ्चा राजधानी इन्द्र और अणिंदा अपुरोहिया, अम्हे य णं देवाणुप्पिया! राजधानी अनिन्द्रा अपुरोहिता, वयं च देवानु- पुरोहित से रिक्त है। देवानुप्रियो! हम इन्द्र के अधीन इंदाहीणा इंदाहिट्ठिया इंदाहीणकज्जा, अयं च प्रियाः। इन्द्राधीनाः इन्द्राधिष्ठता इन्द्राधीन- हैं, इन्द्र में अधिष्ठित हैं और हमारे सारे काम इन्द्र णं देवाणुप्पिया! तामली बालतवस्सी ताम- कार्याः, अयं च देवानुप्रियाः! तामलिः बाल- के अधीन हैं। देवानुप्रियो! यह बालतपस्वी तामलि लित्तीए नगरीए बहिया उत्तरपुरथिमे दिसि- तपस्वी ताम्रलिप्त्याः नगर्याः बहिः उत्तरपोरस्त्ये ताम्रलिप्ति नगरी के बाहर उत्तरपूर्व दिग्भाग में भागे नियत्तणिय-मंडलं आलिहित्ता संले- दिग्भागे निवर्तनिक-मण्डलम् आलिख्य सं- निवर्तनिक मण्डल का आलेखन कर, संलेखना की हणाझूसणाझूसिए भत्तपाणपडियाइक्खिए लेखनाजोषणाजुषितः प्रत्याख्यातभक्तपानः आराधना से युक्त हो भक्त-पान का प्रत्याख्यान कर पाओवगमणं निवण्णे, तं सेयं खलु देवाणु- प्रायोपगमनं निपन्नः, तत् श्रेयः खलु देवानु- प्रायोपगमन अनशन कर लेटा हुआ है। देवानुप्रियो! प्पिया! अम्हं तामलिं बालतवरिंस बलिचंचाए प्रियाः! अस्माकं तामलिं बालतपस्विनं बलि- हमारे लिये यह श्रेयस्कर है कि बालतपस्वी तामलि रायहाणीए ठितिपकप्पं पकरावेत्तए त्ति कटु चञ्चायै राजधान्य स्थिति-प्रकल्पं प्रकारयितुम् को बलिचचा राजधानी के लिए स्थिति-प्रकल्प' अण्णमण्णस्स अंतिए एयमटुं पडिसुणेति, इति कृत्वा अन्योन्यस्य अन्तिके एतदर्थं (विशेष संकल्प) करवाएं। ऐसा सोच कर वे एक दूसरे पडिसुणेत्ता बलिचंचाए रायहाणीए मज्झं- प्रतिशृण्वन्ति, प्रतिश्रुत्य बलिचञ्चायाः राज- के पास इस बात को स्वीकार करते हैं। स्वीकार कर मज्झेणं निग्गच्छंति, निग्गच्छिता जेणेव रुय- धान्याः मध्यंमध्येन निर्गच्छन्ति, निर्गम्य यत्र बलिचञ्चा राजधानी के मध्य भाग से निगमन करते गिंदे उप्पायपव्वए तेणेव उवागच्छंति, उवा- रुचकेन्द्रः उत्पातपर्वतः तत्र उपागच्छन्ति, हैं। निर्गमन कर वह जहां रुचकेन्द्र उत्पात पर्वत हैं, गच्छिता वेउव्वियसमुग्धाएणं समोहण्णंति, उपागम्य वैक्रियसमुद्घातेन समवहन्यन्ते, वहां आते हैं। वहां आ कर वैक्रिय-समुद्घात से समोहणित्ता जाव उत्तरवेउव्वियाई रुवाइं समवहत्य यावद् उत्तरवैक्रियाणि रूपाणि समवहत होते हैं। समवहत हो कर उत्तरवैक्रिय रूपों विकुव्वंति, विकुवित्ता ताए उक्किट्ठाए तुरि- विकुर्वते, विकृत्य तथा उत्कृष्टया त्वरितया का निर्माण करते हैं। निर्माण कर वे उत्कृष्ट, त्वरित, याए चवलाए चंडाए जइणाए छेयाए सीहाए चपलया चण्डया जविन्या छेकया सेंह्या शीघ्रया चपल, चण्ड, जविनी, छेकी, सैंही, शीघ्र, उद्धृत और सिग्धाए उद्धृयाए दिवाए देवगईए तिरियं उद्भुतया दिव्यया देवगत्या तिर्यग् असंख्येयानां दिव्य देवगति से तिरछी दिशा में असंख्य द्वीप और असंखेज्जाणं दीवसमुद्दाणं मझमज्झेणं द्वीपसमुद्राणां मध्यंमध्येन व्यतिव्रजन्तः-व्यति- समुद्रों के मध्य से गुजरते हुए जहां जम्बूद्वीप द्वीप, वीईवयमाणा-वीईवयमाणा जेणेव जंबुद्दीवे व्रजन्तः यत्रैव जम्बूद्वीपः द्वीपः यत्रैव भारतः भारतवर्ष, ताम्रलिप्ति नगरी और मौर्यपुत्र तामलि है, दीवे जेणेव भारहे वासे जेणेव तामलित्ती नगरी वर्षः यत्रैव ताम्रलिप्तिः नगरी यत्रैव तामलिः वहां आते हैं। आ कर बालतपस्वी तामलि के ठीक जेणेव तामली मोरियपुत्ते तेणेव उवागच्छंति, मौर्यपुत्रः तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य तामलेः ऊपर आकाश में स्थित हो कर दिव्य देवर्द्धि, दिव्य उवागच्छित्ता तामलिस्स बालतवस्सिस्स उपि बालतपस्विनः उपरि सपक्षं सप्रतिदिशं स्थित्वा देवद्युति, दिव्य देवानुभाग और बत्तीस प्रकार की दिव्य सपक्खि सपडिदिसिं ठिच्चा दिवं देविडिंढ दिव्यां देवर्द्धि दिव्यां देवधुतिं दिव्यं देवानुभागं नाट्यविधियां दिखाते हैं। दिखा कर तामलि तापस दिव्वं देवज्जुतिं दिव्वं देवाणुभागं दिब्बं दिव्यं द्वात्रिंशद्विधं नाट्यविधिम् उपदर्शयन्ति, को दांई ओर से प्रारंभ कर तीन बार प्रदक्षिणा करते बत्तीसतिविहं नट्टविहिं उवदंसेंति, उवदंसेत्ता उपदर्य तामलिं बालतपस्विनं त्रिकृत्वः आ- हैं। प्रदक्षिणा कर वन्दन-नमस्कार करते हैं। वन्दनतामलिं बालतवस्सि तिक्खुत्तो आयाहिण- दक्षिण-प्रदक्षिणां कुर्वन्ति, कृत्वा वन्दन्ते नम- -नमस्कार कर वे इस प्रकार बोले-देवानुप्रिय! हम पयाहिणं करेंति, करेत्ता वंदति नमसंति, वंदित्ता स्यन्ति, वन्दित्वा नमस्यित्वा एवमवादिषुः- बलिचञ्चा राजधानी में रहने वाले अनेक असुरकुमार नमंसित्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! एवं खलु देवानुप्रियाः! वयं बलिचञ्चाराज- देव और देवियां आपको वन्दन करते हैं, नमस्कार अम्हे बलिचंचारायहाणीवत्थव्वया बहवे धानीवास्तव्याः बहवः असुरकुमाराः देवाश्च करते हैं, सत्कृत और सम्मानित करते हैं। आप असुरकुमारा देवा य देवीओ य देवाणुप्पियं देव्यश्च देवानुप्रियं वन्दामहे नमस्यामो सत्- कल्याणकारी, मंगलकारी, देवरूप और चित्ताहादक वंदामो नमसामो सक्कारेमो सम्माणेमो कारयामः सम्मानयामः कल्याणं मंगलं दैवतं हैं; इसलिए हम आपकी पर्युपासना करते हैं। कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासामो। चैत्यं पर्युपास्महे। अस्माकं देवानुप्रियाः! बलि- देवानुप्रिय! हमारी बलिचञ्चा राजधानी इन्द्र और अम्हण्णं देवाणुप्पिया! बलिचंचा रायहाणी चञ्चा राजधानी अनिन्द्रा अपुरोहिता,वयं च पुरोहित से रिक्त हैं। देवानुप्रिय! हम इन्द्र के अधीन अणिंदा अपुरोहिया, अम्हे य णं देवाणुप्पिया! देवानुप्रिया! इन्द्राधीनाः इन्द्राधिष्ठिताः इन्द्रा- हैं, इन्द्र में अधिष्ठित हैं और हमारे सारे काम इन्द्र इंदाहीणा इंदाहिट्ठिया इंदाहीणकज्जा, तं तुब्भे धीनकार्याः, तत् यूयं देवानुप्रियाः! बलिचञ्चा के अधीन हैं, इसलिए देवानुप्रिय! आप बलिचञ्चा णं देवाणुप्पिया! बलिचंचं रायहाणिं आढाह राजधानी आद्रियध्वम् परिजानीथ स्मरथ, राजधानी को आदर दें, उसमें ध्यान केन्द्रित करें, परियाणह सुमरह, अटुं बंधह, निदाणं पकरेह, अर्थ बध्नीत, निदानं प्रकुरुत, स्थितिप्रकल्पं उसकी स्मृति करें। उस प्रयोजन का निश्चय करें, ठितिपकप्पं पकरेह, तए णं तुब्मे कालमासे प्रकुरुत, ततः यूयं कालमासे कालं कृत्वा बलि- निदान करें और स्थिति-प्रकल्प (वहां उत्पन्न होने का कालं किच्चा बलिचंचाए रायहाणीए उवव- चञ्चायां राजधान्यां उपपत्स्यध्वे, ततः यूयम् संकल्प) करें। इससे आप मृत्यु के समय मृत्यु प्राप्त Jain Education Intemational For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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