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________________ ६४ भगवई श.३: उ.६:सू.२३१-२४५ वुच्चइ-तहाभावं जाणइ-पासइ, नो अण्णहाभावं जाणइ-पासइ ॥ तथाभावं जानाति-पश्यति, नो अन्यथाभावं जानाति-पश्यति। अपेक्षा से कहा जा रहा है-वह यथार्थभाव को जानता-देखता है, अन्यथाभाव को नहीं जानता-देखता। भाष्य १. सूत्र २३१-२३६ प्रस्तुत प्रकरण का प्रतिपाद्य यथार्थ दर्शन है। इसलिए इसमें अनगार और भावितात्मा का अर्थ सम्यग दर्शन के सन्दर्भ में करणीय है। शब्द-विमर्श अनगार-अर्हत् की आज्ञानुसार गृहवास को त्यागनेवाला मुनि। भावितात्मा-ज्ञान, वैराग्य और तप आदि भावनाओं से अपने आपको भावित करने वाला। २४०. अणगारे णं भंते! भाविअप्पा बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता पभू एग महं गामरूवं वा नगररूवं वा जाव सण्णिवेसरूवं वा विउवित्तए? नो तिणटे समटे ॥ अनगारः भदन्त! भावितात्मा बाह्यान् पुद्गलान् अपर्यादाय प्रभुः एक महद् ग्रामरूपं वा नगररूपं वा यावत् सन्निवेशरूपं वा विकर्तुम् ? २४०. भन्ते! क्या भावितात्मा अनगार बहिर्वर्ती पुद्गलों का ग्रहण किए बिना एक महान् ग्रामरूप अथवा नगररूप यावत सन्निवेशरूप की विक्रिया (निर्माण) करने में समर्थ है? यह अर्थ संगत नहीं हैं। नो तदर्थः समर्थः। २४१. अणगारे णं भंते! भाविअप्पा बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता पभू एगं महं गामरूवं वा नगररूवं वा जाव सण्णिवेसरूवं वा विउवित्तए? हंता पभू ॥ अनगारः भदन्त ! भावितात्मा बाह्यान् पुद्गलान् । २४१, भन्ते! क्या भावितात्मा अनगार बहिर्वर्ती पर्यादाय प्रभुः एक महद् ग्रामरूपं वा नगररूपं पुद्गलों का ग्रहण कर एक महान् ग्रामरूप वा यावत् सन्निवेशरूपं वा विकर्तुम्? अथवा नगररूप यावत् सन्निवेशरूप की विक्रिया (निर्माण) करने में समर्थ है? हन्त प्रभुः। हां, समर्थ है। २४२. अणगारे णं भंते! भाविअप्पा केवइयाई पभू गामरूवाई विकुवित्तए? गोयमा! से जहानामए-जुवतिं जुवाणे हत्थेणं हत्थे गेण्हेज्जा तं चेव जाव विकुव्विंसु वा, विकुव्वति वा, विकुव्विस्सति वा ॥ अनगारः भदन्त! भावितात्मा कियन्ति प्रभुः २४२. भन्ते! भावितात्मा अनगार कितने ग्रामग्रामरूपाणि विकर्तुम् ? रूपों की विक्रिया करने में समर्थ है? गौतम! अथ यथानाम युवतिं युवा हस्तेन हस्ते गौतम! जैसे कोई युवक युवती का हाथ गृह्णीयात् तच्चैव यावद् व्यकार्षीद् वा, विकरोति प्रगाढ़ता से पकड़ता है, वही (सू. १६६) वा, विकरिष्यति वा। वक्तव्यता यावत् भावितात्मा अनगार ने क्रियात्मक रूप में न तो कभी ऐसी विक्रिया की, न करता है, और न करेगा। २४३. एवं जाव सण्णिवेसरूवं वा ॥ एवं यावद् सन्निवेशरूपं वा। २४३. इसी प्रकार सन्निवेशरूप तक ग्रामरूप की भांति वक्तव्य है। आत्मरक्षक-पद २४४. भन्ते! असुरेन्द्र असुरराज चमर के आत्मरक्षक देव कितने हजार प्रज्ञप्त हैं? आयरक्ख-पदं आत्मरक्ष-पदम् २४४. चमरस्स णं भंते! असुरिंदस्स असुर- चमरस्य भदन्तः असुरेन्द्रस्य असुरराजस्य कति रण्णो कइ आयरक्खदेवसाहस्सीओ आत्मरक्षदेवसाहय्यः प्रज्ञप्ताः? पण्णत्ताओ? गोयमा! चत्तारि चउसडीओ आयरक्ख- गौतम! चतस्रः चतुष्षष्ट्यः आत्मरक्षदेवसाहस्रयः देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ। ते णं आय- प्रज्ञप्ताः। ते आत्मरक्षा:-वर्णकः । रक्खा-वण्णओ ॥ गौतम! उसके दो लाख छप्पन हजार आत्मरक्षक देव प्रज्ञप्त हैं। उन आत्मरक्षकों का वर्णन-(द्रष्टव्य रायपसेणइयं, सू. ६६४) २४५. एवं सव्वेसिं इंदाणं जस्स जत्तिया आयरक्खा ते भाणियव्वा ॥ एवं सर्वेषाम् इन्द्राणां यस्य यावन्तः आत्मरक्षाः ते भणितव्याः। २४५. 'इस प्रकार सब इन्द्रों के जिसके जितने आत्मरक्षक देव हैं, वे सब वक्तव्य हैं। Jain Education Intemational For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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