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भगवई
श.३:उ.६:सू.२३५-२३६ २३५. से भंते! कि तहाभावं जाणइ-पासइ? स भदन्तः किं तथाभावं जानाति-पश्यति? २३५, भन्ते! क्या वह यथार्थभाव को जानताअण्णहाभावं जाणइ-पासइ? अन्यथाभावं जानाति-पश्यति?
देखता है अथवा अन्यथाभाव (विपरीत-भाव)
को जानता-देखता है? गोयमा! तहाभावं जाणइ-पासइ, नो गौतम! तथाभावं जानाति-पश्यति, नो गीतम! वह यथार्थभाव को जानता-देखता है, अण्णहाभावं जाणइ-पासइ ॥ अन्यथाभावं जानाति-पश्यति।
अन्यथाभाव को नहीं जानता-देखता।
२३६. से केणटेणं भंते! एवं वुच्चइ-तहाभावं तत् केनार्थेन भदन्त! एवमुच्यते-तथाभावं २३६. भन्ते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा जाणइ-पासइ, नो अण्णहाभावं जाणइ- जानाति-पश्यति? नो अन्यथाभावं जानाति- है-वह यथार्थभाव को जानता-देखता है, पासइ? पश्यति?
अन्यथाभाव को नहीं जानता-देखता? गोयमा! तस्स णं एवं भवइ-एवं खलु अहं गौतम! तस्य एवं भवति-एवं खलु अहं गौतम! उसके इस प्रकार का दृष्टिकोण होता वाणारसी नगरी समोहए, समोहणित्ता वाराणसी नगरी समवहतः, समवहत्य राजगृहे है-मैंने वाराणसी नगरी में वैक्रियसमुद्घात का रायगिहे नगरे रूवाइं जाणामि-पासामि। नगरे रूपाणि जानामि-पश्यामि। स एष प्रयोग किया है, प्रयोग कर राजगृह नगर में सेस दंसण-अविवच्चासे भवइ । से तेणटेणं दर्शन-अविपर्यासः भवति । तत्तेनार्थेन गौतम! विद्यमान रूपों को जानता-देखता हूं। यह उसके गोयमा! एवं वुच्चइ-तहाभावं जाणइ-पासइ, एवमुच्यते-तथाभावं जानाति-पश्यति, नो दर्शन का अविपर्यास है। गौतम! इस अपेक्षा नो अण्णहाभावं जाणइ-पासइ॥ अन्यथाभावं जानाति-पश्यति।
से कहा जा रहा है-वह यथाथभाव को जानता-देखता है, अन्यथाभाव को नहीं जानता-देखता।
२३७. अणगारे णं भंते! भावियप्पा अमायी अनगारः भदन्त! भावितात्मा अमायी २३७. भन्ते! क्या भावितात्मा अनगार जो अमायी, सम्मदिट्ठी वीरियलद्धीए वेउव्वियलद्धीए सम्यग्दृष्टिः वीर्यलब्धिकः वैक्रियलब्धिकः सम्यग्दृष्टि है, वीर्यलब्धि, वैक्रियलब्धि और
ओहिनाणलद्धीए रायगिह नगर, वाणारसिं अवधिज्ञानलब्धिकः राजगृहं नगरं, वाराणसी अवधिज्ञानलब्धि से सम्पन्न है, वह राजगृह नगर, च नगरिं, अंतरा एगं महं जणवयग्गं च नगरी, अन्तरा एक महज् जनपदाग्रं वाराणसी नगरी और उसके अन्तराल में एक समोहए, समोहणित्ता रायगिहं नगरं, समवहतः, समवहत्य राजगृह नगरं, वाराणसी महान् जनपदाग्र का निर्माण करने के लिए वैक्रिय वाणारसिं च नगरिं, अंतरा एगं महं जण- च नगरीम् अन्तरा एक महद् जनपदाग्रं समुद्घात का प्रयोग करता है, प्रयोग कर राजगृह वयग्गं जाणइ-पासइ? जानाति-पश्यति?
नगर वाराणसी नगरी और उनके अन्तराल में
एक महान् जनपदान को जानता-देखता है? हंता जाणइ-पासइ॥ हन्त जानाति-पश्यति।
हां, जानता-देखता है।
२३८. से भंते! किं तहाभावं जाणइ-पासइ? स भदन्त ! किं तथाभावं जानाति-पश्यति? २३८. भन्ते : क्या वह यथार्थभाव को जानता-देखता अण्णहाभावं जाणइ-पासइ? अन्यथाभावं जानाति-पश्यति?
है? अथवा अन्यथाभाव (विपरीत-भाव) को
जानता-देखता है। गोयमा! तहाभावं जाणइ-पासइ, नो गौतम! तथाभावं जानाति-पश्यति, नो गीतम! वह यथार्थभाव को जानता-देखता है, अण्णहाभावं जाणइ-पासइ ॥ अन्यथाभावं जानाति-पश्यति।
अन्यथाभाव को नहीं जानता-देखता।
२३६. से केणटेणं भंते! एवं दुच्चइ-तहाभावं तत् केनार्थेन भदन्त! एवमुच्यते-तथाभावं जाणइ-पासइ, नो अण्णहाभाव जाणइ- जानाति-पश्यति? नो अन्यथाभावं जानाति- पासइ?
पश्यति? गोयमा! तस्स णं एवं भवति-नो खलु गौतम! तस्य एवं भवति-नो खलु एतत् रायगिहे नगरे, नो खलु एस वाणारसी राजगृह नगरं, नो खलु एषा वाराणसी नगरी, नगरी, नो खलु एस अंतरा एगे महं नो खलु एतद् अन्तरा एक महद् जनपदाग्रं, जणवयग्गे, एस खलु ममं वीरियलद्धी एषा खलु मम वीर्यलब्धिः, वैक्रियलब्धिः, वेउव्वियलद्धी ओहिनाणलद्धी इड्ढी जुती अवधिज्ञानलब्धिः ऋद्धिः द्युतिः यशो बलं जसे बले वीरिए पुरिसक्कार-परक्कमे लद्धे वीयं पुरुषकार-पराक्रमः लब्धः प्राप्तः
ते अभिसमण्णागए। सेस दंसण-अवि- अभिसमन्वागतः । स एप दर्शन-अविपर्यासः बच्चासे भवइ। से तेणद्वेणं गोयमा! एवं भवति। तत् तेनार्थेन गौतम! एवमुच्यते
२३६. भन्ते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है-वह यथार्थभाव को जानता-देखता है, अन्यथाभाव को नहीं जानता-देखता? गौतम! उसके इस प्रकार का दृष्टिकोण होता है-यह राजगृह नगर नहीं है, यह वाराणसी नगरी नहीं है, यह इन दोनों के अन्तराल में महान जनपदान नहीं है। यह मेरी वीर्यलब्धि, वैक्रियलब्धि और अवधिज्ञानलब्धि है। यह ऋद्धि, द्युति, यश, बल, वीर्य और पुरुषकार-पराक्रम मुझे लब्ध, प्राप्त और अभिसमन्वागत (विपाकाभिमुख) है। यह उसकं दर्शन का अविपर्यास है। गौतम! इस
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