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श.६ : उ.८: सू.१५५-१६१
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भगवई
नो इणढे समढे॥
नायमर्थ: समर्थः।
यह अर्थ संगत नहीं है।
१५९. से केणद्वेणं भंते ! एवं वुच्चइ–बाहि- तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते बाह्यकाः १५९. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा हैरगा णं समुद्दा पुण्णा जाव समभरघडत्ताए पूर्णा: यावत् समभरघटतया तिष्ठन्ति? अढ़ाई द्वीप से बहिर्वर्ती समुद्र पूर्ण है यावत् चारों चिट्ठति?
ओर से जलजलाकार हो रहे हैं? गोयमा! बाहिरगेसु णं समुद्देसु बहवे उदग- गौतम ! बााकेषु समुद्रेषु बहवः उदक- गौतम ! अढ़ाई द्वीप से बहिर्वर्ती समुद्रों में अनेक जोणिया जीवायपोग्गला य उदगत्ताए वक्क- योनिका: जीवाश्च पुद्गलाश्च उदकतया उदकयोनिक जीव और पुद्गल उदक-रूप में उत्पन्न मंति, विउक्कमंति, चयंति, उववज्जति। से अपक्रामन्ति, व्युत्क्रामन्ति, च्यवन्ते, उप- होते हैं और विनष्ट होते हैं, च्युत होते हैं और उत्पन्न तेणटेणं गोयमा! एवं वुच्चइ–बाहिरया पद्यन्ते। तत् तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते होते हैं। गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है णं समुद्दा पुण्णा पुण्णप्पमाणा वोलट्टमाणा -बाह्य: समुद्रा: पूर्णाः पूर्णप्रमाणा: व्यप- –अढ़ाई द्वीप से बहिर्वर्ती समुद्र जल से भरे हुए वोसट्टमाणा समभरघडताए चिट्ठति, संठा- लोटन्त: विकसन्तः समभरघटतया तिष्ठन्ति, परिपूर्ण, छलकते हुए, हिलोरे लेते हुए, चारों ओर णओ एगविहिविहाणा, वित्थारओ अणेग- संस्थानत: एकविधिविधाना: विस्तारत: से जलजलाकार हो रहे हैं। उनका संस्थानगत स्वरूप विहिविहाणा, दुगुणादुगुणप्पमाणा जाव अ- अनेकविधिविधाना: द्विगुणद्विगुणप्रमाणा: एक प्रकार-चक्रवाल के आकार का है। विस्तार स्सिं तिरियलोए असंखेज्जा दीव-समुद्दा यावद् अस्मिन् तिर्यग्लोके असंख्येया: की दृष्टि से वे अनेक प्रकार के हैं। वे क्रमश: पूर्ववर्ती सयंभूरमणपज्जवसाणा पण्णत्ता समणा- द्वीप-समुद्रा: स्वयम्भूरमणपर्यवसाना: प्रज्ञ- से उत्तरवर्ती द्विगुण-द्विगुण हैं। यावत् इस तिरछे लोक उसो!
प्ता: आयुष्मन् श्रमण!
में असंख्येय द्वीप तथा स्वयम्भूरमण अवसान वाले समुद्र प्रज्ञप्त हैं, आयुष्मन् श्रमण!
१६० टीव-समहाणं भंते ! केवतिया नामधे- द्वीप-समुद्राः भदन्त ! कियन्त: नामधेयैः १६०. भन्ते ! कितने द्वीप और समुद्र नामों से प्रज्ञप्त हैं? ज्जेहिं पण्णता?
प्रज्ञप्ता:? गोयमा ! जावतिया लोए सुभा नामा, सुभा गौतम ! यावन्त: लोके शुभानि नामानि, गौतम ! लोक में जितने शुभ नाम, शुभ रूप, शुभ रूवा, सुभा गंधा, सुभा रसा, सुभा फासा, शुभानि रूपाणि, शुभा: गन्धाः, शुभाः गन्ध, शुभ रस और शुभ स्पर्श हैं उतने द्वीप और एवतिया णं दीव-समुद्दा नामधेज्जेहिं पण्ण- रसा:, शुभा: स्पर्शाः, एतावन्त: द्वीप- समुद्र नामों से प्रज्ञप्त हैं। इस प्रकार शुभ नाम, ता। एवं नेयव्वा सुभा नामा, उद्धारो, परि- समुद्रा: नामधेयैः प्रज्ञप्ताः। एवं नेतव्यानि
उद्धार, परिणाम और द्वीप-समुद्रों में सब जीवों का णामो, सव्वजीवाणं (उप्पाओ?)॥ शुभानि नामानि, उद्धारः, परिणाम:, उत्पाद ज्ञातव्य है।
सर्वजीवानाम् (उत्पादः)।
भाष्य
१. सूत्र १५५-१६०
जैन भूगोल के अनुसार मध्यलोक (तिरछे लोक) में असंख्य समुद्र हैं। उनमें प्रथम लवण समुद्र है और पर्यन्तवर्ती स्वयम्भूरमण समुद्र है। लवण समुद्र में जलस्तर उन्नत होता है और उसका जल क्षुब्ध रहता है- उसमें ज्वारभाटा आता रहता है। समयक्षेत्र से बाह्यवर्ती समुद्रों का जलस्तर समान रहता है। उनका जल क्षुब्ध नहीं होता-उनमें ज्वारभाटा नहीं आता।
लवण समुद्र में वर्षा होती है, बाह्यवर्ती समुद्रों में वर्षा नहीं होती। उनमें उदकयोनिक जीव जन्म लेते और मरते रहते हैं। तिरछे लोक में जो असंख्य द्वीप और समुद्र हैं, उनकी विस्तृत जानकारी के लिए जीवाजीवाभिगमे (३/ ९७२) द्रष्टव्य है। वोलट्टमाण आदि शब्दों के लिए देखें भ. १/३१२,३१३ का भाष्य।
१६१. सेनं भंते ! सेवं भंते ! ति॥
तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति ।
१६१. भन्ते ! वह ऐसा ही है, भन्ते ! वह ऐसा ही है।
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