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________________ नवमो उद्देसो : नवां उद्देशक मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद कम्मप्पगडिबंध-पदं कर्मप्रकृति-बन्ध-पदम् कर्मप्रकृति-बन्ध-पद १६२. जीवे णं भंते ! नाणावरणिज्जं कम्मं जीव: भदन्त ! ज्ञानावरणीयं कर्म बध्नन् कति १६२. भन्ते! जीव ज्ञानावरणीय कर्म का बन्ध करता बंधमाणे कति कम्मप्पगडीओ बंधति? कर्मप्रकृती: बध्नाति? हुआ कितनी कर्म-प्रकृतियों का बन्ध करता है? गोयमा ! सत्तविहबंधए वा, अट्ठविहबंधए. गौतम ! सप्तविधबन्धको वा, अष्टविध- गौतम ! सात प्रकार की प्रकृतियों का बन्ध करता है। वा, छविहबंधए वा। बंधुद्देसो पण्णवणाए बन्धको वा, षड्विधबन्धको वा। बन्धोद्देश: अथवा आठ प्रकार की कर्म-प्रकृतियों का बन्धन नेयव्वो॥ प्रज्ञापनाया: नेतव्यः। करता है। अथवा छह प्रकार की प्रकृतियों का बन्ध करता है। यहां पण्णवणा का बन्ध-उद्देशक (पद २४) ज्ञातव्य है। भाष्य १. सूत्र १६२ बन्ध जीवन में एक बार होता है। आयुष्य के अबन्ध-क्षण में ज्ञानावरण का कर्म की मूल प्रकृतियां आठ हैं। इनका बन्ध एक साथ होता है। बन्ध करने वाला जीव सप्तविधबन्धक होता है। आयुष्य-बन्ध के क्षण में वह अथवा स्वतन्त्र रूप में होता है? पण्णवणा के २४ वें पद में इसका विवेचन अष्टविधबन्धक होता है। सूक्ष्म सम्पराय अवस्था (दसवें गुणस्थान) में मोह किया गया है। प्रस्तुत सूत्र में इसका संक्षिप्त निर्देश किया गया है। आयुष्य का और आयुष्य दोनों का बन्ध नहीं होता। महिड्ढीयदेव-विकुव्वणा-पदं महर्द्धिकदेव-विकरण-पदम् महर्द्धिक देव की विक्रिया का पद १६३. देवेणं भंते ! महिड्ढीए जाव महाणुभागे देव: भदन्त ! महर्द्धिक: यावन् महानुभाग: १६३. भन्ते! क्या महान् ऋद्धि यावत्' महान् शक्ति बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता पभू एगवण्णं बाह्यकान् पुद्गलान् अपर्यादाय प्रभु: एक- से सम्पन्न देव बहिर्वर्ती पुद्गलों का ग्रहण किए बिना एगरूवं विउवित्तए? वर्णम् एकरूपं विकर्तुम्? एक वर्ण और एक रूप का निर्माण करने में समर्थ हैं? गोयमा ! नो इणहे समढे॥ गौतम ! नायमर्थ: समर्थः। गौतम! यह अर्थ संगत नहीं है। १६४. देवेणं भंते ! बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता पभू एगवण्णं एगरूवं विउन्वित्तए? हंता पभू॥ देव: भदन्त ! बाह्यकान् पुद्गलान् पर्यादाय १६४. भन्ते ! क्या देव बहिर्वर्ती पुद्गलों का ग्रहण कर प्रभु: एकवर्णम् एकरूपं विकर्तुम्? एक वर्ण और एक रूप का निर्माण करने में समर्थ हैं? हन्त प्रभुः। हां, समर्थ है। १६५. से णं भंते ! किं इहगए पोग्गले परियाइत्ता सः भदन्त ! किम् इहगतान् पुद्गलान् १६५. भन्ते! क्या वह प्रज्ञापक-स्थानवर्ती पुद्गलों का विउव्वति? तत्थगए पोग्गले परियाइत्ता वि- पर्यादाय विकरोति? तत्रगतान् पुद्गलान् ग्रहण कर एक वर्ण और एक रूप का निर्माण करता उन्वति? अण्णत्थगए पोग्गले परियाइत्ता पर्यादाय विकरोति? अन्यत्रगतान् पुद्गलान् है? अथवा स्वस्थानवर्ती पुद्गलों का ग्रहण कर एक विउव्वति? पर्यादाय विकरोति? वर्ण और एक रूप का निर्माण करता है? अथवा इन १. भ. वृ. ६/१६२–'सत्तविहबंधए' आयुरबन्धकाले, 'अट्ठविहबंधए' त्ति आयुर्बन्धकाले, 'छविबंधए' त्ति सूक्ष्मसम्परायावस्थायां मोहायुषोरबन्धकत्वात्। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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