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________________ भगवई असुरकुमाराणं उद्ध-उप्पयणस्स हेउ-पदं ६१ श.३ उ.२ सू. १३१-१३२ असुरकुमाराणाम् उर्ध्वमुत्पतनस्य हेतु- असुरकुमारों का ऊर्ध्वलोक में जाने का हेतु-पद पदम् १३१. किंपत्ति में भंते! असुरकुमारा देवा उद्धं किंप्रत्ययितं भदन्त देवाः ऊर्ध्वम् उत्पतन्ति ! उप्पयंति जाव सोहम्मो कप्पो ? यावत् सौधर्मः कल्पः ? गोयगा! तेसि णं देवाणं अहुणोचवण्णान गौतम! तेषां देवानाम् अधुनोपपन्नानां वा वा चरिमभवत्थाण वा इमेयारूवे अज्झत्थिए चरमभवस्थानां वा अयमेतद्रूपः आध्यात्मिकः चितिए पथिए मनोगए संकणे समुष्यज्जइ- चिन्तितः प्रार्थितः मनोगतः संकल्पः समुत्पअहो! णं अम्हेहिं दिव्या देवडी जाव द्यते - अहो ! अस्माभिः दिव्या देवर्द्धिः यावद् अभिसमग्णागए, जारिसिया गं अम्हेहि दिव्या अभिसमन्वागता, यादृशी अस्माभिः दिव्या देविड्डी जाव अभिसमण्णागए, तारिसिया देवर्थिः यावद् अभिसमन्वागता, तादृशी शक्रेण णं सक्केणं देविंदेनं देवरगा दिव्या देवि देवेन्द्रेण देवराजेन दिव्या देवर्द्धिः यावद अभिजाव अभिसमण्णागए। जारिसिया णं सक्केणं समन्यागता यादृशी शक्रेण देवेन्द्रेण देवराजेन देविंदेणं देवरण्णा जाव अभिसमण्णागए, यावद् अभिसमन्यागता तादृशी अस्माभिरपि तारिसिया णं अम्हेहि विजाव अभिसणा- यावत् अभिसमन्वागता । तद् गच्छामः शक्रस्य गए। तं गच्छामो णं सक्कस्स देविंदरस देव देवेन्द्रस्य देवराजस्य अन्तिकं प्रादुर्भवामः परण्णो अंतियं पाउब्भवामो पासामो ताव श्यामः तावत् शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य सक्करस देविंदरस देवरनो दिव्वं देविडिंड दिव्यां देवर्द्धिं यावद् अभिसमन्वागतां, पश्यतु जाव अभिसमण्णागयं, पासउ ताव अम्ह वि तावद् अस्माकमपि शक्रः देवेन्द्रः देवराजः सबके देविंदे देवराया दिव्वं देविदिंद्र जाव दिव्यां देव यावद् अभिसमन्दागताम् । तज् अभिसमण्णागयं । तं जाणामो ताव सक्कस्स जानीमः तावत् शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य देविंदस्स देवरण्णो दिव्वं देविड्ढि जाव अभि- दिव्यदेववाद अभिसमन्वागताम् जानातु समण्णागयं, जाणउ ताव अम्ह वि सक्के तावद् अस्माकमपि शक्रः देवेन्द्रः देवराजः देविंदे देवराया दिव्वं देविड्ढि जाव अभि- दिव्यां देवद्धिं यावद् अभिसमन्वागताम् । समण्णागयं । एवं खलु गोयमा असुरकुमारा देवा उद्धं एवं खलु गीतम! असुरकुमाराः देवाः ऊर्ध्वम् ! उप्पयंति जाव सोहम्मो कप्पो ॥ उत्पतन्ति यावत् सौधर्मः कल्पः । भाष्य १. सूत्र १३१ इसी शतक के ६० वे सूत्र में असुरकुमार देवों के सौधर्म कल्प में जाने का एक प्रत्यय बतलाया है---भव्यधिक वैरानुबन्ध प्रस्तुत सूत्र में उसका दूसरा प्रत्यय निर्दिष्ट है, वह है कुतूहल या जिज्ञासा अथवा ऋद्धिविषयक तुलनात्मक दृष्टिकोण शक की ऋद्धि को साक्षात् देखना और अपनी ऋद्धि का उसे साक्षात् कराना | कुतूहल और प्रदर्शन की वृत्ति से देव भी मुक्त नहीं हैं। यह इस प्रकरण से फलित होता है। Jain Education International १३१. 'भन्ते असुरकुमार देव ऊर्ध्वलोकं में यावत् सौधर्मकल्प तक किस प्रत्यय से जाते हैं? प्रस्तुत सूत्र में ऋद्धि के दर्शन अथवा प्रदर्शन की उत्सुकता के दो बिन्दुओं का उल्लेख किया गया है उत्सुकता का पहला बिन्दु है अधुनोपपन्न की सूचना की गई है।" और दूसरा बिन्दु है चरमभवस्थ अधुनोपपन्न देव तत्काल उस अवस्था में १३२. सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति ॥ तदेवं भदन्त ! तदवं भदन्त ! इति । १. भ. वृ. ३/१३१ - 'चरिमभवत्थाण व' त्ति भवचरमभागस्थानां च्यवनावसर इत्यर्थः । गौतम! तत्काल उपषन्न और जीवन के चरम भाग में अवस्थित देवों के यह इस प्रकार का आध्यात्मिक, स्मृत्यात्मक, अभिलाषात्मक मनोगत संकल्प उत्पन्न होता है-अहो! हमने ऐसी दिव्य देवद्धिं यावत् अभिसमन्वागत की है। हमने जैसी दिव्य देविर्द्ध यावत् अभिसमन्वागत की है, वैसी ही दिव्य देवर्द्धि यावत् देवेन्द्र देवराज शक्र ने अभिसमन्वागत की है जैसी दिव्य देवद्धिं यावत् देवेन्द्र देवराज शक ने अभि समन्यागत की है, हमने भी वैसी ही दिव्य देवद्धिं यावत अभि- समन्वागत की है; इसलिए हम देवेन्द्र देवराज शक्र के पास जाएं, वहां प्रकट हो कर देवेन्द्र देवराज शक्र ने दिव्य देवर्द्धि यावत् अभिसमन्वागत की है, उसे देखें। हमने दिव्य देवर्द्धि यावत् अभिसमन्वागत की है। उसे देवेन्द्र देवराज शक्र भी देखें । देवेन्द्र देवराज शक्र दिव्या देवद्धिं यावत् अभिसमन्यागत की है, उसे हम जानें हमने दिव्य देवर्द्धि यावत् अभिसमन्वागत की है, उसे देवेन्द्र देवराज शक भी जाने। आता है, इसलिए उसके मन में शक की ऋद्धि देखने की उत्सुकता होती है अथवा अपनी ऋद्धि शक्र को दिखाने की उत्सुकता होती है। इसी प्रकार जीवन की अंतिम अवस्था में भी वैसी उत्सुकता होती है वह सोचता है कि दूसरे जीवन में जाने से पहले-पहले मैं शक्र की ऋद्धि देख लूं अथवा अपनी ऋद्धि शक्र को दिखाऊं । शब्द-विमर्श For Private & Personal Use Only इस प्रकार गौतम! असुरकुमार देव ऊर्ध्वलोक में यात् सौधर्म कल्प तक जाते हैं। चरमभवस्थ - यहां 'चरमभवस्थ' शब्द से जीवन के अंतिम भाग १३२. भन्ते वह ऐसा ही है भन्ते वह ऐसा ही है। www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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