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________________ श.३ : उ.२ : सू.१२६-१३० भगवई १२६. तए णं से चमरे असुरिंदे असरराया ते ततः स चमरः असुरेन्द्रः असुरराजः तान् सामाणियपरिसोववण्णए देवे एवं क्यासी- सामानिकपरिषदुपपन्नकान् देवान् एवम- एवं खलु देवाणुप्पिया! मए समणं भगवं वादीद्-एवं खलु देवानुप्रियाः! मया श्रमणं महावीरं नीसाए सक्के देविंदे देवराया सयमेव भगवन्तं महावीरं निश्रित्य शक्रो देवेन्द्रः अच्चासाइए। तए णं तेणं परिकुविएणं देवराजः स्वयमेव अत्याशातितः। ततः तेन समाणेणं ममं वहाए वज्जे निसट्टे । तं भद्दण्णं परिकुपितेन सता मम वधाय वज्रं निःसृष्टम्। भवतु देवाणुप्पिया! समणस्स भगवओ तद् भद्रं भवतु देवानुप्रियाः! श्रमणस्य भगवतो महावीरस्स जस्सम्हि पभावेणं अकिटे अव्वहिए महावीरस्य यस्यास्मि प्रभावेण अक्लिष्टः अपरिताविए इहमागए इह समोसढे इह संपत्ते अव्यथितः अपरितापितः इहागतः इह समइहेव अज्ज उवसंपिज्जत्ता णं विहरामि। तं वसृतः इह संप्राप्तः इहैव अद्य उपसंपद्य गच्छामो णं देवाणुप्पिया! समणं भगवं महावीरं विहरामि। तद् गच्छामः देवानुप्रियाः! श्रमणं वंदामो नमसामो जाव पज्जुवासामो त्ति कटु भगवन्तं महावीरं वन्दामहे नमस्यामो यावत् चउसट्ठीए सामाणियसाहस्सीहिं जाव सव्वि- पर्युपास्महे इति कृत्वा चतुःषष्ट्याः सामानिकडुढीए जाव जेणेव असोगवरपायवे, जेणेव ममं साहस्रयाः यावत् सर्वद्धर्या यावद् यौव अशोकअंतिए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता ममं वरपादपाः यत्रैव ममान्तिकं तत्रैव उपागच्छति, तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेत्ता वंदेत्ता उपागम्य मां त्रिकृत्वः आदक्षिणप्रदक्षिणां कृत्वा नमंसित्ता एवं वयासी-एवं खलु भंते! मए वन्दित्वा नमस्यित्वा एवमवादीद्-एवं खलु तुब्भं नीसाए सक्के देविंदे देवराया सयमेव भदन्त! मया युष्मान् निश्रित्य शक्रः देवेन्द्रः अच्चासाइए। तए णं तेणं परिकुविएणं देवराजः स्वयमेव अत्याशातितः। ततः तेन समाणेणं ममं वहाए वज्जे निसटे। तं भद्दण्णं परिकुपितेन सता मम वधाय वज्रं निःसृष्टम्। भवतु देवाणुप्पियाणं जस्सम्हि पभावेणं अकिटे तत् भद्रं भवतु देवानुप्रियाणां यस्यारिम प्रभावेण अव्वहिए अपरिताविए इहमागए इह समोसढे अक्लिष्टः अव्यथितः अपरितापितः इहागतः इह संपत्ते इह अज्ज उवसंपज्जित्ता णं इह समवसृतः इह संप्राप्तः इह अघ उपसंपद्य विहरामि। तं खामेमि णं देवाणुप्पिया! खमंतु विहरामि। तत् क्षमे देवानुप्रियाः! क्षमन्ताम् णं देवाणुप्पिया! खंतुमरिहंतिणं देवाणुप्पिया! देवानुप्रियाः! क्षन्तुमर्हन्ति देवानुप्रियाः! न भूय नाइ भुज्जो एवं करणयाए त्ति कटु ममं वंदइ एवं करणतेति कृत्वा मां वन्दते नमस्यति, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता उत्तरपुरस्थिमं वन्दित्वा नमस्यित्वा उत्तरपौरस्त्यं दिग्भागम् दिसीभागं अवक्कमइ, अवक्कमित्ता जाव अपक्रामति, अपक्रम्य द्वात्रिंशद्बद्धं नाट्यबत्तीसइबद्धं नट्टविहिं उवदंसेइ, उवदंसेत्ता विधिम् उपदर्शयति, उपदर्थ्य यस्या एव दिशः जामेव दिसिं पाउन्भूए तामेव दिसिं पडिगए॥ प्रादुर्भूतः तामेव दिशि प्रतिगतः। १२६. असुरेन्द्र असुरराज चमर ने उन सामानिक परिषद् में उपपन्न देवों से इस प्रकार कहा- देवानुप्रियो! मैंने श्रमण भगवान् महावीर की निश्रा से देवेन्द्र देवराज शक्र की स्वयं ही अति आशातना की। इससे परिकुपित हो कर उसने मुझे मारने के लिए वज़ का प्रक्षेपण किया। देवानुपियो! भला हो श्रमण भगवान् महावीर का, जिनके प्रभाव से मैं अक्लिष्ट', अव्यथित और अपरितापित रह कर यहां आया हूं। यहां समवसृत हूं। यहां सम्प्राप्त हूं और आज इसी स्थान में उपसम्पन्न (प्रशान्त) अवस्था में विहरण कर रहा हूं। इसलिए देवानुप्रियो! हम श्रमण भगवान महावीर के पास चलें, उन्हें वन्दन-नमस्कार करें यावत् पर्युपासना करें, ऐसा सोचकर वह चौसठ हजार सामानिक देवों के साथ यावत् अपनी समग्र ऋद्धि के साथ यावत् जहां प्रवर अशोक वृक्ष है, जहां मेरा पार्श्व है, वहां आता है, आकर तीन बार दांई ओर से प्रारम्भ कर मेरी प्रदक्षिणा कर, वन्दन-नमस्कार कर इस प्रकार बोला-मैंने आपकी निश्रा से देवेन्द्र देवराज शक्र की स्वयं अति आशातना की। उसने परिकुपित हो कर मुझे मारने के लिए वज्र का प्रक्षेपण किया। भला हो देवानुप्रिय! आपका जिनके प्रभाव से मैं अक्लिष्ट, अव्यथित और अपरितापित रह कर यहां आया हूं, यहां समवसृत हूं, यहां संप्राप्त हूं और आज इसी स्थान में उपसम्पन्न अवस्था में विहरण कर रहा हूं। देवानुप्रिय! मैं आपसे क्षमायाचना करता हूं, देवानुप्रिय! आप मुझे क्षमा करें; देवानुप्रिय! आप क्षमा करने में समर्थ हैं। मैं पुनः ऐसा कभी नहीं करूंगा। ऐसा कह कर वह मुझे वन्दननमस्कार करता है, वन्दन-नमस्कार कर उत्तर-पूर्व दिशाभागमें अवक्रमण करता हूं। अवक्रमण कर यावत् बत्तीस प्रकार की नाट्यविधि दिखाता है। दिखा कर जिस दिशा से आया, उसी दिशा में चला गया। भाष्य १. अक्लिष्ट २. अपरितापित अकिट्ठ-वृत्तिकार ने इसके दो संस्कृत रूप किए हैं-अकृष्ट वज्र की सन्निधि से ताप की बहुत संभावना थी, फिर भी ताप नहीं और अक्लिष्ट। अकृष्ट-जिसका विलेखन या कृशीकरण न हुआ हो। हुआ। अक्लिष्ट-अबाधित। १३०. एवं खलु गोयमा! चमरेणं असुरिंदेणं एवं खलु गौतम! चमरेण असुरेन्द्रेण असुर- असुररण्णा सा दिव्वा देविड्ढी दिव्वा देव- राजेन सा दिव्या देवर्द्धि: दिव्या देवद्युतिः दिव्यः ज्जुती दिव्वे देवाणुभागे लद्धे पत्ते अभि- देवानुभागः लब्धः प्राप्तः अभिसमन्वागतः। समण्णागए। ठिई सागरोवमं। महाविदेहे वासे स्थितिः सागरोपमम्। महाविदेहे वर्षे सेत्स्यति सिज्झिहिइ जाव अंतं काहिइ ॥ यावद् अन्तं करिष्यति। १३०. गौतम! इस प्रकार असुरेन्द्र असुरराज चमर ने वह दिव्य देवर्द्धि, दिव्य देवद्युति और दिव्य देवानुभाव उपलब्ध किया, प्राप्त किया, अभिसमन्वागत (विपाकाभिमुख) किया। उसकी स्थिति एक सागरोपम की है वह महाविदेह क्षेत्र में सिद्ध होगा यावत् सब दुःखों का अन्त करेगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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