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भगवई
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श.३ : उ.२ : सू.११६-१२८
(छ) एक समय (कालखण्ड) में अधोलोक में वज्र की गति सबसे कम है। (ज) तिरछे लोक में वह उससे विशेषाधिक गति करता है और (झ) ऊलोक में वह उससे विशेषाधिक गति करता है। गव्यूत की दृष्टि से शक्र, चमर और वज्र की गति इस प्रकार है
शक्र एक समय में ऊंचा र गव्यूत, तिरछा ६ गव्यूत और नीचा ४ गव्यूत जाता है।
चमर एक समय में ऊंचा २२ गव्यूत, तिरछा ५, गव्यूत और नीचा ८ गव्यूत जाता है।
वज्र एक समय में ऊंचा ४ गव्यूत, तिरछा ३, गव्यूत और नीचा २२ गव्यूत जाता है। ___ अधिक सुगमता से समझने के लिए देखें यंत्र
शक्र की ऊर्ध्वगति और चमर की अधोगति समान है-गव्यूत। वज्र की ऊर्ध्वगति और शक की अधोगति समान है-४ गव्यूत। चमर की ऊर्ध्वगति और वज्र की अधोगति समान है-२१ गव्यूत। वज्र की तिर्यगूगति से चमर की तिर्यगगति विशेष है। चमर की तिर्यग्गति से शक्र की तिर्यगगति विशेष है।
सबसे अधिक गति एक समय में ८ गव्यूत की है। एक योजन के चार गव्यूत होते हैं। इसी माप के आधार पर यहां गति का विवेचन प्रस्तुत किया गया है। वैसे एक मान्यता के अनुसार एक योजन के दो गव्यूत अथवा गव्यूति भी होती है। किंतु यहां एक योजन के चार गव्यूत किए गए हैं। एक गव्यूत के तीन भाग करने पर गव्यूत के ८४३=२४ भाग होते हैं। एक समय में सबसे अधिक गति गव्यूत के तीन भाग की अपेक्षा से होती है। पूर्णांक की दृष्टि से २४ भागों को लक्ष्य कर यंत्र इस प्रकार बनता है
शक्र
वज्र
चमर
शक्र
ऊर्ध्व
चमर
८ गव्यूत
४ गव्यूत
२गव्यूत
ऊर्ध्व
२४
तिरछा
६ गव्यूत
३. गव्यूत २गव्यूत
५-गव्यूत ८ गव्यूत
तिरछा
अधो
४ गव्यूत
अधो
गति का तुलनात्मक अध्ययन करने पर ये निष्कर्ष निकलते हैं
चमरस्य चिंता-पदं
चमरस्य चिन्ता-पदम्
चमर की चिन्ता का पद १२७. तए णं से चमरे असुरिंदे असुरराया वज्ज- ततः स चमरः असुरेन्द्रः असुरराजः वज्रभय- १२७. असुरेन्द्र असुरराज चमर वज्र के भय से मुक्त हो
भयविप्पमुक्के, सक्केणं देविंदेणं देवरण्णा विप्रमुक्तः, शक्रेण देवेन्द्रेण देवराजेन महता गया। किन्तु देवेन्द्र देवराज शक्र के द्वारा महान् अपमान महया अवमाणेणं अवमाणिए समाणे चमर- अवमानेन अवमानितः सन् चमरचञ्चायां से अपमानित बना हुआ चमरचञ्चा राजधानी की चंचाए रायहाणीए सभाए सुहम्माए चमरंसि राजधान्यां सभायां सुधर्मायां चमरे सिंहासने सुधर्मा सभा में चमर सिंहासन पर बैठा हुआ, उपहत सीहासणंसि ओहयमणसंकप्पे चिंतासोय- उपहतमनःसंकल्पः चिन्ताशोकसागरसंप्र- मनः-संकल्प वाला, चिन्ता और शोक के सागर में सागरसंपविढे करयलपल्हत्थमुहे अट्टज्झा- विष्टः करतलपर्यस्तमुखः आर्तध्यानोपगतः निमग्न मुख हथेली पर टिकाए हुए, आर्तध्यान में णोवगए भूमिगयदिट्ठीए झियाति ॥ भूमिगतदृष्टिकः ध्यायति।
लीन और दृष्टि को भूमि पर गाड़े हुए कुछ चिन्तन कर रहा था।
१२८. तए णं चमरं असुरिंदं असुररायं सामा- ततः चमरम् असुरेन्द्रम् असुरराजं सामानिक- १२८. सामानिक परिषद् में उपपन्न देव उपहत मनः संकल्प णियपरिसोववण्णया देवा ओहयमणसंकप्पं परिषदुपपन्नकाः देवाः उपहतमनःसंकल्पं वाले यावत् चिन्तारत असुरेन्द्र असुरराज चमर को जाव झियायमाणं पासंति, पासित्ता करयल- यावत् ध्यायन्तं पश्यन्ति, दृष्ट्वा करतल- देखते हैं और देखकर दोनो हथेलियों से निष्पन्न परिग्गहियं दसनह सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं परिगृहीतां दशनखां सिरसावर्ती मस्तके सम्पुटवाली दश नखात्मक अंजलि को सिर के सम्मुख कटु जएणं विजएणं वद्धावेंति, वद्धावेत्ता अञ्जलिं कृत्वा जयेन विजयेन वर्धापयन्ति, घुमाकर मस्तक पर टिका कर जय-विजय की ध्वनि से एवं वयासी-किं णं देवाणुप्पिया! ओहय- वर्धापयित्वा एवमवादिषुः किं देवानुप्रियाः! उसको वर्धापित करते है। वर्धापित कर इस प्रकार मणसंकप्पा चिंतासोयसागरसंपविट्ठा करयल- उपहतमनःसंकल्पाः चिन्ताशेकसागरसंप्रविष्टाः । बोले-देवानुप्रिय! आज उपहत मनः संकल्प वाले, पल्हत्थमुहा अट्टज्माणोवगया भूमिगय- करतलपर्यस्तमुखाः आर्त्तध्यानोपगताः भूमि- चिन्ता और शोक के सागर में निमग्न, मुख हथेली पर दिट्ठीया झियायह?॥ गतदृष्टिकाः ध्यायत?
टिकाए हुए, आर्त्तध्यान में लीन और दृष्टि को भूमि पर गाड़े हुए आप क्या चिन्तन कर रहे हैं?
१. अभि. चि. ३/५५१--गव्यूतं क्रोशः। वही, ३/५५१, ५५२--तौ द्वौ तु गोरुतम् ॥
गव्या गव्यूत गव्यूती चतुष्कोशन्तु योजनम्।
२. आप्टे. गव्यूत, गव्यूतिः-१. A measure of length nearly equal to two miles or one krosa.
२. A measure of distance equal to two krosas.
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