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भगवई
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श.७ : उ.१ : सू.२०-२१
अवोच्छिण्णा भवंति तस्स णं संपराइया भवन्ति तस्य साम्परायिकी क्रिया क्रियते । यथाकिरिया कज्जइ। अहासुत्तं रीयमाणस्स रिया- सूत्रं रियतः ऐपिथिकी क्रिया क्रियते, उत्सूत्र वहिया किरिया कज्जइ, उस्सुत्तं रीयमाणस्स रियतः साम्परायिकी क्रिया क्रियते । स उत्सूत्र- संपराइया किरिया कज्जइ। से णं उस्सुत्तमेव मेव रियति। तत् तेनार्थेन । रीयती । से तेणटेणे॥
उसके साम्परायिकी क्रिया होती है। यथासूत्र-सूत्र के अनुसार चलने वाले के ऐपिथिकी क्रिया होती है, उत्सूत्र-सूत्र के विपरीत चलने वाले के.साम्परायिकी क्रिया होती है। वह (जिसके क्रोध, मान, माया और लोभ व्यवच्छिन्न नहीं होते) उत्सूत्र ही चलता है। यह इस अपेक्षा से कहा जाता है।
भाष्य १. सूत्र २०,२१
है। इसके समर्थन में उन्होंने ओघनियुक्ति की १' गाथा उद्धृत की है। प्रस्तुत आगम में ऐपिथिक और सांपरायिक क्रिया की चर्चा अनेक
ओघनियुक्ति की वृत्ति में द्रोणाचार्य ने लिखा है जो मुनि ज्ञानी है, अप्रमत्त
है, उसके काययोग से कोई प्राणी मर जाता है, उसके साम्परायिक कर्म का बंध कोणों से की गई है। इसमें मुनि से संबंध रखने वाले पांच उल्लेख हैं
नहीं होता, ईर्याप्रत्ययिक कर्म का बंध होता है। १. आत्मत्व संवृत अनगार के ऐपिथिकी क्रिया होती है..... यह
सूत्रकार ने क्रोध, मान, माया, और लोभ के लिए 'ब्युच्छिन्न' तथा ३/१४८ का प्रतिपाद्य है। २. अनायुक्त गति करने वाले अनगार के साम्परायिक क्रिया होती
'अव्युच्छिन्न' शब्द का प्रयोग किया है। यहाँ 'क्षीण' शब्द का प्रयोग नहीं है।
'व्युच्छिन्न' शब्द विमर्शनीय है। पतञ्जलि ने क्लेश की चार अवस्थाएं बतलाई है-यह ६/२० का प्रतिपाद्य है। ३. संवृत अनगार के ऐपिथिकी क्रिया होती है-यह ७/१२५ का
हैं.---प्रसुप्त, तनु, विच्छिन्न और उदार। क्लेश समय-समय पर विच्छिन्न होता
रहता है। वह सदा लब्धवृत्ति अथवा उदित अवस्था में नहीं रहता। अभयदेवसूरि प्रतिपाद्य है। ४. वीचिमार्ग में स्थित संवृत अनगार के साम्परायिकी क्रिया होती
ने भी 'वोच्छिन्न' का अर्थ 'अनुदित किया है। इन व्युच्छिन्न और अव्युच्छिन्न
पदों के आधार पर ओघनियुक्तिकार और सिद्धसेनगणि का मत विमर्श योग्य है-यह १०/ ११, १२ का प्रतिपाद्य है। ५. अवीचिमार्ग में स्थित संवृत अनगार के ऐपिथिकी क्रिया होती
सिद्धसेनगाण और द्रोणाचार्य के मतानुसार सराग के भी कषाय की है-यह १०/१३,१४ का प्रतिपाद्य है। जिसके क्रोध, मान, माया, लोभ व्युच्छिन्न होते हैं, उसके ऐपिथिकी .
व्युच्छिन्न अवस्था में ऐपिथिकी क्रिया हो सकती है। यह मतान्तर विमर्श के क्रिया होती है। जिसके क्रोध, मान, माया, और लोभ व्युच्छिन्न नहीं होते, उसके
___ रूप में प्रस्तुत किया गया है।
प्रस्तुत सूत्रों की रचना से भी कुछ प्रश्न उभरते हैंसाम्परायिकी क्रिया होती है। इस सूत्र के आधार पर यह सिद्धान्त स्थापित हुआ है-अवीतराग के साम्परायिकी क्रिया होती है और वीतराग (उपशान्त मोह,
१. अनायुक्त-प्रमत्त अवस्था में चलने वाले अनगार के साम्पक्षीणमोह और सयोगी केवली) के ऐर्यापथिकी क्रिया होती है।
रायिकी क्रिया होती है। कोई अनगार आयुक्त-अप्रमत्त अवस्था में चलता है उमास्वाति ने सकषाय के साम्परायिकी क्रिया और अकषाय के
उसके भी साम्परायिकी क्रिया होती है, तो फिर गौतम के प्रश्न और महावीर के ऐर्यापथिकी क्रिया का विधान किया है। अकषाय अथवा वीतराग के ऐर्यापथिकी
उत्तर का तात्पर्य क्या है? क्रिया होती है-यह निश्चित सिद्धान्त है। जयाचार्य ने भी सराग के साम्परायिकी
२. यथासूत्र----आगम-निर्दिष्ट विधि के अनुसार चलने वाले के और वीतराग के ऐपिथिकी क्रिया का प्रतिपादन किया है। अवीतराग के
ऐ.पथिकी क्रिया होती है। उत्सूत्र-आगम-निर्दिष्ट विधि के प्रतिकूल चलने ऐपिथिकी क्रिया होती है या नहीं होती-यह विमर्शनीय है। सिद्धसेनगणि ने
वाले के साम्परायिकी क्रिया होती है। क्या सभी सराग अनगार उत्सूत्र ही चलते अकषाय के दो प्रकार किए हैं—वीतराग और सराग । वीतराग अकषाय के तीन प्रकार हैं-उपशान्तमोह, क्षीणमोह और केवली। कषाय का उदय न हो
ये प्रश्न सिद्धसेनगणि के मत पर विचार करने के लिए संप्रेरित उस अवस्था में संज्वलन कषाय वाला भी अकषाय होता है। वह सराग अकषाय
करते हैं।
१.भ. १/४४४, ४४५, ६/२६, ८/३०२-३१४,७/२०,२१,७/४,५, ३/१४८,७/१२५, १२६, १०/११-१४, १८/१५६, १६० । २.त. सू ६५-सकषायाकषाययोः साम्परायिकर्यापथयोः । .३.त. रा. वा. ६/४–उपशान्तक्षीणकषाययोः योगिनश्च योगवशादुपात्तं कर्म कषायाभावात् बन्धाभावे शुष्ककुड्यपतितलोष्टवद् अनन्तरसमये निवर्तमानमीर्यापथमुच्यते । ४. भ. जो. २/११३/२१-२३ ५.त.मू भा वृ६/५-अकषायो वीतरागः सरागश्च। तत्र वीतरागस्त्रिविधः-उपशान्तमोह एकः क्षीणमोहकेवलिनौ च कारन्येनोन्मूलितकर्मकदम्बको, सरागः पुनः संज्वलनकषायवानपि अविद्यमान उदयो ऽकषाय एव मन्दानुभावत्वमनुदराकन्यानिर्देशवद्, अतश्चोपपन्नमिद--
"उच्चालियम्मि पाए, इरियासमियस्स संकमट्ठाए । वावज्जेज्ज कुलिंगी, मरेज्ज जोगमासज्ज ॥” (ओघनियुक्तिी गा० ७४७) "न य तस्स तन्निमित्तो बंधो सुहमोवि देसितो समए।" (ओघनियुक्ती गा०७४E)
६. ओ. नि. पृ. ४६-तस्य एवंप्रकारस्य ज्ञानिनः कर्मक्षयार्थमभ्युद्यतस्य असंचेतयतः' अजानानस्य, किं? सत्वानि, कथं?-प्रयत्नवतोऽपि कथमपि न दृष्टः प्राणी व्यापादितश्च, तथा 'संवेतयतः' जानानस्य कथमरत्यत्र प्राणी ज्ञातो दृष्टश्च न च प्रयत्नं कुर्वतोऽपि रक्षित पारितः, ततश्च तस्यैवंविधस्य यानि सत्त्वानि 'योग' कायादि प्राप्य विनश्यन्ति यत्र नास्ति तस्य साधोर्हिसाफल --साम्पराविक संसारजननं दुःखजननमित्यर्थः, यदि परमीर्याप्रत्ययं कर्म भवति, तच्चकस्मिन् समये बद्धमन्यस्मिन समये क्षपयति। ७. पा. यो. द. २/४-विच्छिद्य विच्छिद्य तेन तेनात्मना पुनः समुदाचरन्तीति विच्छिन्नाः कथम्? रागकाले क्रोधस्यादर्शनात्, न हि रागकाले क्रोधस्समुदाचरति, रागश्च क्वचिद् दृश्यमानो न विषयान्तरे नास्ति; लेकरयां स्त्रियां चैत्रो रक्त इत्यन्यासु स्वीषु विरक्त इति; कितु तत्र रागो लब्धवृत्तिरन्यत्र भविष्यवृत्तिरिति। ८.भ..६/२६२-वोच्छिन्नेत्ति अनुदिताः ।
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