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________________ श.३ : उ.१ : सू.७२-७४ ३६ भगवई आराधक--ज्ञान, दर्शन और चारित्र की विधिवत् पालना करने संसारी दोनों प्रकार का हो सकता है, इसलिए तीसरा प्रश्न पूछा गया है। परीतवाला। संसारी जीव सुलभबोधि और दुर्लभबोधि दोनों प्रकार का हो सकता है, इसलिए चरम-वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं-अप्राप्त मनुष्य भव चौथा प्रश्न पूछा गया है। सुलभबोधि जीव आराधक और विराधक दोनों प्रकार अंतिम भव होगा, इसलिए चरम अथवा यह देव भव अंतिम है।' देवराज का हो सकता है, इसलिए पांचवा प्रश्न पूछा गया है। आराधक जीव चरम और सनत्कुमार एक जन्म के पश्चात् मोक्षगामी हैं। अचरम दोनों प्रकार का हो सकता है, इसलिए छठा प्रश्न पूछा गया है। आचार्य भव्य जीव सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि दोनों प्रकार का होता है, मलयगिरि की वृत्ति में इसकी विस्तार से चर्चा है।' इसलिए दूसरा प्रश्न पूछा गया है। सम्यग्दृष्टि जीव परीतसंसारी और अनन्त ७३. से केणटेणं भंते! तत् केनार्थेन भदन्त! गोयमा! सणंकुमारे णं देविंदे देवराया बहूणं गौतम! सनत्कुमारः देवेन्द्रः देवराजः बहूनां समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावयाणं श्रमणानां बहूनां श्रमणीनां बहूनां श्रावकाणां बहूणं सावियाणं हियकामए सुहकामए पत्थ- बहूनां श्राविकाणां हितकामकः सुखकामकः कामए आणुकंपिए निस्सेयसिए हिय-सुह- पथ्यकामकः आनुकम्पिकः नैश्रेयसिकः हित-निस्सेसकामए। से तेणद्वेणं गोयमा! सणं- सुख-निश्रेयसकामकः। तत् तेनार्थेन गौतम! कुमारे णं देविंदे देवराया भवसिद्धिए, नो सनत्कुमारः देवेन्द्रः देवराजः भवसिद्धिकः, नो अभवसिद्धिए । सम्मट्ठिी, नो मिच्छदिट्ठी। अभवसिद्धिकः। सम्यग्दृष्टिः, नो मिथ्यापरित्तसंसारिए, नो अणंतसंसारिए। सुलभ- दृष्टिः। परीतसंसारिकः, नो अनन्तसंसारिकः। बोहिए, नो दुल्लभबोहिए। आराहए, नो सुलभबोधिकः, नो दुर्लभबोधिकः। आराधकः, विराहए। चरिमे, नो अचरिमे ॥ नो विराधकः। चरमः, नो अचरमः । ७३. ' भन्ते! यह किस अपेक्षा से (कहा जा रहा है)? गौतम! देवेन्द्र देवराज सनत्कुमार अनेक साधुओं, अनेक साध्वियों, अनेक श्रावकों और अनेक श्राविकाओं का हित चाहने वाला, सुख चाहने वाला, पथ्य चाहने वाला, अनुकम्पा करने वाला, निःश्रेयस्की दिशा में प्रेरित करने वाला है। हित, सुख और निःश्रेयस् चाहने वाला है। गौतम! इस अपेक्षा से देवेन्द्र देवराज सनत्कुमार भवसिद्धिक है, अभवसिद्धिक नहीं है। सम्यग्दृष्टि है मिथ्यादृष्टि नहीं है। परीतसंसारी है, अनन्तसंसारी नहीं है। सुलभबोधिक है, दुर्लभबोधिक नहीं है। आराधक है, विराधक नहीं है। चरम है, अचरम नहीं है। भाष्य १. सूत्र ७३ प्रस्तुत सूत्र में सनत्कुमार को छह विशेषणों से विशेषित किया गया है। इससे देवराज सनत्कुमार की भगवान महावीर के शासन के प्रति आस्था अभिव्यक्त होती है । इसका संबंध क्या है-इस विषय में कोई जानकारी न आगम-सूत्र में है, न चूर्णि और वृत्ति में है। निःश्रेयस- मोक्ष की ओर प्रेरित करने वाला। ____ निःश्रेयस चाहने वाला (निस्सेसकामए)-वृत्तिकार ने 'निस्सेस' का संस्कृत रूप निःशेष-सर्व किया है। किन्तु इसका संस्कृत रूप 'निःश्रेयस' होना चाहिए। निःश्रेयस के यकार का लोप करने पर 'निस्सेस' रूप बनता है। ठाणं में भी इसका प्रयोग प्राप्त है-तओ ठाणा ववसियस्स हिताए सुभाए खमाए णिस्सेसाए आणुगामियत्ताए भवंति। हित, सुख और निःश्रेयस ये तीनों संबन्धित हैं। देवराज सनत्कुमार वर्तमान में हित, सुख और पथ्य चाहने वाले हैं.----यह आगम की वक्तव्यता है। कुछ लोग मानते हैं कि सनत्कुमार ने अपने पिछले जन्म में चार तीर्थ का आहार आदि से पोषण किया था, उससे वह इन्द्र बना। जयाचार्य ने इस मान्यता का निरसन किया है। उन्होंने बतलाया कि हियकामए आदि विशेषण वर्तमान अवस्था से संबंध रखते हैं। इनका पूर्व जन्म से कोई संबंध नहीं है। शब्द-विमर्श हित चाहने वाला (हियकामए)–'हित' के अर्थ हैं-उपयोगी, कल्याणकारी, उपयुक्त, अनुकूल, लाभदायी आदि। वृत्ति में इसका अर्थ 'सुख की हेतुभूत वस्तु' किया गया है। पथ्य-पथ्य का अर्थ है दुःख से परित्राण। आनुकम्पिक-कृपालु। निःश्रेयस की दिशा में प्रेरित करने वाला (नैश्रेयसिक) ७४. सणंकुमारस्स णं भंते! देविंदस्स देवरण्णो केवइयं कालं ठिती पण्णत्ता ? सनत्कुमारस्य भदन्त! देवेन्द्रस्य देवराजस्य ७४. भन्ते! देवेन्द्र देवराज सनत्कुमार की स्थिति कितने कियत्कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता? काल की प्रज्ञप्त है? १. भ. वृ. ३/७२- 'चरमेति एव भयो यस्याप्राप्तस्तिष्ठति, देवभवो वा चरमो यस्य सः, चरमभवो वा भविष्यति यस्य स चरमः ।। २. रा. वृ. पृ. ११८। ३. भ.७३/७३-हियकामए' ति हितं-सुखनिबन्धनं वस्तु 'पत्थकामए'त्ति पथ्यं - दुःखत्राणं, करमादेवमित्यत आह -'आणुकंपिए'त्तिकृपावान्, अत एवाह-निस्सेयसिय'त्ति निःश्रेयस-मोक्षस्तत्र नियुक्त इव नैःश्रेयसिकः। ४. ठाणं, ३/५२४। ५. भ. वृ.३/७३-हितं यत्सुखम्-अदुःखानुबन्धमित्यर्थः तन्निःशेषाणां सर्वेषां कामयतेवाञ्छति यः स तथा। ६. म. जो. ५/३६-५४। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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