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भगवई
श.३ : उ.१ : सू.७०-७२
७०. अत्थिणं भंते! तेसिं सक्कीसाणाणं देविंदाणं अस्ति भदन्त! तयोः शक्रेशानयोः देवेन्द्रयोः
देवराईणं विवादा समुप्पजंति? देवराजयोः विवादाः समुत्पद्यन्ते? हंता अत्थि ॥
हन्त अस्ति।
७०, भन्ते! क्या उन देवेन्द्र देवराज शक और ईशान के मध्य कभी विवाद उत्पन्न होते हैं? हां, होते हैं।
७१. से कहमिदाणिं पकरेंति?
तत् कथमिदानी प्रकुरुत? गोयमा! ताहे चेव णं ते सक्कीसाणा देविंदा गौतम! तदा चैव तौ शक्रेशानी देवेन्द्रौ देवराजौ देवरायाणो सणकुमारं देविदं देवरायं मणसी- सनत्कुमारं देवेन्द्रं देवराज मनीकुरुतः । ततः करेंति। तए णं से सणंकुमारे देविंदे देवराया सः सनत्कुमारः देवेन्द्रः देवराजः ताभ्यां शकेतेहिं सक्कीसाणेहिं देविंदे हिं देवराईहिं शानाम्यां देवेन्द्राभ्यां देवराजाभ्यां मनीकृते मणसीकए समाणे खिप्पामेव सक्कीसाणाणं सति क्षिप्रमेव शक्रेशानयोः देवेन्द्रयोः देवदेविंदाणं देवराईणं अंतियं पाउन्भवति, जं से राजयोः अन्तिके प्रादुर्भवति, यत् सः वदति वदइ तस्स आणा-उववाय-वयण-निद्दे से तस्य आज्ञा-उपपात-वचन-निर्देशे तिष्ठतः। चिट्ठति।
७१. ऐसा होने पर वे उसे कैसे सुलझाते हैं?
गौतम! उस समय वे देवेन्द्र देवराज शक्र और ईशान देवेन्द्र देवराज सनत्कुमार की मानसिक स्मृति करते हैं। उन देवेन्द्र देवराज शक्र और ईशान द्वारा मानसिक स्मृति करने पर शीघ्र ही वह देवेन्द्र देवराजसनत्कुमार उन देवेन्द्र देवराज शक्र और ईशान के पास प्रकट होता है। वह जो कहता है (उसे शिरोधार्य करते हैं), उसकी आज्ञा, उपपात (सेवा), आदेश और निर्देश का पालन करते हैं।
भाष्य १. सूत्र ५६-७१
देवलोक के अधिपति सनत्कुमार की मानसिक स्मृति करते हैं। सनत्कुमार इस प्रकरण में शक्र और ईशान के पारस्परिक संबंधों का प्रतिपादन
तत्काल उनके सामने उपस्थित हो जाता है। यह सारा कार्य मानसिक तरंगो के किया गया है। ये दोनों प्रायः समान भूमिका वाले इन्द्र हैं। फिर भी ईशान का
संप्रेषण द्वारा होता है। नायाधम्मकहाओ में इसकी पूरी प्रक्रिया प्राप्त है। स्थान कुछ विशिष्ट है। इसलिए ईशान शक्र के प्रति उपेक्षापूर्ण व्यवहार कर
उसके अनुसार मानसिक स्मृति द्वारा देव का आसन प्रकम्पित होता है। आसन सकता है। कभी-कभी इन दोनों में विवाद उत्पन्न हो जाता है। दोनों की सीमाएं
प्रकम्पित होने पर वह देव अवधिज्ञान द्वारा स्मृति करने वाले को जान लेता है सटी हुई हैं। वह विवाद सीमा संबंधी भी हो सकता है, अन्य विषय का भी हो
और वहां पहुंच जाता है। सकता है। वे आपस में विवाद को नहीं सुलझा पाते, उस स्थिति में तीसरे
सणंकुमार-पदं
सनत्कुमार-पदम् ७२. सणंकुमारे णं भंते! देविंदे देवराया किं सनत्कुमारः भदन्त! देवेन्द्रः देवराजः किं
भवसिद्धिए? अभवसिद्धिए? सम्मद्दिट्ठी? भवसिद्धिकः? अभवसिद्धिकः? सम्यग्दृष्टिः? मिच्छदिट्ठी? परित्तसंसारिए? अणंतसंसारिए? मिथ्यादृष्टिः? परीतसंसारिकः? अनन्त- सुलभबोहिए? दुल्लभबोहिए? आराहए? संसारिकः? सुलभबोधिकः? दुर्लभबोधिकः? विराहए? चरिमे? अचरिमे?
आराधकः? विराधकः? चरमः? अचरमः? गोयमा! सणंकुमारे णं देविंद देवराया भव- गौतम! सनत्कुमारः देवेन्द्रः देवराजः भवसिद्धिए, नो अभवसिद्धिए । सम्मद्दिट्ठी, नो सिद्धिकः, नो अभवसिद्धिकः। सम्यग्दृष्टिः, मिच्छदिट्ठी। परित्तसंसारिए, नो अणंत- नो मिथ्यादृष्टिः। परीतसंसारिकः, नो अनन्तसंसारिए। सुलभबोहिए, नो दुल्लभबोहिए। संसारिकः। सुलभबोधिकः, नो दुर्लभबोधिकः। आराहए, नो विराहए। चरिमे, नो अचिरमे॥ आराधकः, नो विराधकः । चरमः,नो अ
चरमः।
सनत्कुमार-पद ७२. 'भन्ते! देवेन्द्र देवराज सनत्कुमार भवसिद्धिक (मुक्ति
जाने के लिए योग्य) है? अभवसिद्धिक है? सम्यग्दृष्टि है? मिथ्यादृष्टि है? परीत संसारी हे? अनन्त संसारी है? सुलभवोधिक है? दुर्लभबोधिक है? आराधक है? विराधक है? चरम है? अचरम है? गोतम! देवेन्द्र देवराज सनत्कुमार भवसिद्धिक है, अभवसिद्धिक नहीं है। सम्यग्दृष्टि है, मिथ्यादृष्टि नहीं है। परीतसंसारी है, अनन्तसंसारी नहीं है। सुलभबोधिक है, दुर्लभबोधिक नहीं है। आराधक है, विराधक नहीं है। चरम है, अचरम नहीं है।
भाष्य
१. सूत्र ७२
रायपसेणइयं में सूर्याभ देव के लिए छह प्रश्न पूछे गए हैं। प्रस्तुत सूत्र उसकी अनुकृति जैसा लगता है। भगवई में इस प्रकरण का संकलनकाल में प्रक्षेपण हुआ है-इस संभावना को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। १. नाया. १/१/५४-५६।
शब्द-विमर्श
भवसिद्धिक-भव्य परीतसंसारी-जन्म-मरण की परम्परा को परिमित करने वाला। सुलभबोधिक-जिसे बोधि की प्राप्ति सुलभ हो।
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