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श. ३ उ. १ सू. ६२-६६
हंता पभू
६३. से भंते! किं आढामाणे पभू ? अणाढामाणे पम् ? गोयमा ! आठामागे वि पशू, अणादामाने विपभू
६४. पमू गं भंते! सक्के देविंदे देवराया ईसाणेणं देविंदेणं देवरण्णा सद्धिं आलावं वा संलावं वा करेत्तए?
हंता पभू
६६. पशू णं भंते! ईसाणे देविंदे देवराया सक्केण देविंदेणं देवरण्णा सद्धि आलावं वा संलावं वा करेत्तए?
हंता पमू
६५. से भंते! किं आढामाणे पभू ? अणाढामाणे सः भदन्त ! किम् आद्रियमाणः प्रभुः ? अनापभू? द्वियमाणाः प्रभुः?
गोयमा ! आढामाने पण नो अणाढामाणे गौतम! आद्रियमाणः प्रभुः नो अनाद्रियमाणः पभू ॥ प्रभुः ।
६८. अस्थि गं भंते! तेर्सि सक्कीसाणाणं देविंदाणं देवराईणं किच्चाई करणिज्जाई समुप्पज्जति ? हंता अत्थि ॥
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६६. से कहमिदाणिं पकरेंति ?
गोयगा! ताहे चैव गं से सक्के देविदे देवराया ईसाणस्स देविंदरस देवरण्णो अंतियं पाउब्मवति, ईसा वा देविंदे देवराया सक्करस देविंदस्स देवरण्णो अंतियं पाउन्गवति इति भो! सक्का देविंदा! देवराया! दाहिनड्डलोगाहिबई इति भो ! ईसाना देविंदा देवराया! उत्तरढतोगाहिबई इति भो ! इति भो! ति ते अण्णमण्णस्स किच्चाई करणिजाई पच्चणुब्भवमाणा विहरति ॥
हन्त प्रभुः ।
सः भदन्त ! किम् आद्रियमाणः प्रभु ? अनाद्वियमाणः प्रभुः ? गौतम आद्रियमाणोऽपि प्रभु अनाद्रियमाणोऽपि प्रभुः ।
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प्रभुः भवन्त! शक्रः देवेन्द्रः देवराजः ईशानेन देवेन्द्रेण देवराजेन सार्धम् आलापं वा संताप वा कर्तुम्? हन्त पभुः !
६७. से भंते! किं आढामाणे पभू ? अणाढामाणे सः भदन्त ! किम् आद्रियमाणः प्रभुः ? अनापभू? द्रियमाणः प्रभुः ?
गोयमा ! आढामाणे वि पभू, अणाढामाणे गौतम! आद्रियमाणोऽपि प्रभुः, अनाद्रियमाणोवि पभू #
पे प्रभुः ।
प्रभुः भदन्त ईशानः देवेन्द्रः देवराजः शक्रेण देवेन्द्रेण देवराजेन सार्धम् आलापं वा संलापं वा कर्तुम् ? हन्त प्रभुः ।
अस्ति भदन्त । तयोः शक्रशानयोः देवेन्द्रयोः देवराजयोः कृत्यानि करणीयानि समुत्पद्यन्ते?
हन्त अस्ति ।
तत् कथमिदानीं प्रकुरुत ? गौतम तदा चैव स शक्रः देवेन्द्रः देवराजः ईशानस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य अन्तिके प्रादुभवति, ईशानो दा देवेन्द्रः देवराजः शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य अन्तिके प्रादुर्भवति । इति भोः शक्र देवेन्द्र देवराज! दक्षिणार्धलोकाधिपते । इति भोः! ईशान! देवेन्द्र! देवराज! उत्तरार्द्धलोकाधिपते ! इति भोः । इति भोः । इति ती अन्योन्यं कृत्यानि करणीयानि प्रत्यनुभवन्ती विहरतः ।
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भगवई
हां, यह समर्थ है।
६३. भन्ते ! क्या वह आदर करता हुआ समर्थ है ? अनादर करता हुआ समर्थ है ?
गौतम! वह आदर करता हुआ भी समर्थ है, अनादर करता हुआ भी समर्थ है।
६४. भन्ते! क्या देवेन्द्र देवराज देवेन्द्र देवराज ईशान के साथ आलाप संलाप करने में समर्थ है ?
हां वह समर्थ है।
६५. भन्ते ! क्या वह आदर करता हुआ समर्थ है? अनादर करता हुआ समर्थ है ?
गौतम! वह आदर करता हुआ समर्थ है, अनादर करता हुआ समर्थ नहीं है।
६६. भन्ते ! क्या देवेन्द्र देवराज ईशान देवेन्द्र देवराज शक्र के साथ आलाप संलाप करने में समर्थ है ?
हां, वह समर्थ है।
६७. भन्ते ! क्या वह आदर करता हुआ समर्थ है ? अनादर करता हुआ समर्थ?
गौतम! वह आदर करता हुआ भी समर्थ है, अनादर करता हुआ भी समर्थ है।
६८. भन्ते ! उन देवेन्द्र देवराज शक्र और ईशान के मध्य यह कार्य करणीय है - ऐसा विचार उत्पन्न होता है?
हां, होता है।
६६. ऐसा होने पर वे उसे क्रियान्वित कैसे कर करते हैं? गौतम! यदि देवेन्द्र देवराज शक्र के सामने कोई प्रयोजन उपस्थित होता है तो वह देवेन्द्र देवराज ईशान के पास प्रकट होता है और यदि देवेन्द्र देवराज ईशान के सामने कोई प्रयोजन उपस्थित होता है तो वह देवेन्द्र देवराज शक्र के पास प्रकट होता है। ईशान कहता है - है दक्षिणार्धलोकाधिपति देवेन्द्र देवराज शक्र ! इस समय यह कार्य करणीय है। शक्र कहता है- हे उत्तरार्धलोकाधिपति देवेन्द्र देवराज ईशान! इस समय यह कार्य करणीय है । ओ! यह करणीय है, ओ! यह करणीय है - इस प्रकार वे परस्पर एक दूसरे के करणीय कार्य का अनुभव करते हुए विहार करते हैं।
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