________________
श.६: उ.३: सू.३५-५१
२५२
भगवई
बध्नाति? गोयमा ! सुहमे बंधइ, बादरे भयणाए। नो- गौतम ! सूक्ष्म: बध्नाति, बादर: भजनया। सुहमे नोबादरे न बंधइ।
नोसूक्ष्म: नोबादर: न बध्नाति। एवं आउगवज्जाओ सत्त वि। आउगं सु- एवं आयुष्कवर्जानि सप्त अपि। आयुष्कं हमे बादरे भयणाए। नोसुहमे नोबादरे न सूक्ष्म: बादर: भजनया नोसूक्ष्म: नोबादर:न बंधइ॥
बध्नाति।
गौतम ! सूक्ष्म बंध करता है। बादर स्यात् करता है, स्यात् नहीं करता। नोसूक्ष्म-नोबादर नहीं करता। इसी प्रकार आयुष्य को छोड़कर सातों ही कर्म-प्रकृतियों के बंध की वक्तव्यता। आयुष्य कर्म का बंध सूक्ष्म और बादर स्यात् करते हैं, स्यात् नहीं करते। नोसूक्ष्म-नोबादर नहीं करता।
५१. नाणावरणिज्जणं भंते ! कम्मं किं चरिमे बंधइ? अचरिमे बंधइ? गोयमा ! अट्ठ वि भयणाए।
ज्ञानावरणीयं भदन्त ! कर्म किं चरमः ५१. भन्ते ! ज्ञानावरणीय कर्म का बंध क्या चरम करता बध्नाति? अचरम: बध्नाति?
है? अचरम करता है? गौतम! अष्ट अपि भजनया।
गौतम! आठों ही कर्म-प्रकृतियों का बंधस्यात् करता है, स्यात् नहीं करता।
भाष्य
१. सूत्र ३५-५१
संज्ञी
वीतराग संज्ञी के ज्ञानावरण कर्म का बन्ध नहीं होता, सराग संज्ञी के सवेद-अवेद
होता है। नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी केवली और सिद्ध होते हैं। उनके ज्ञानावरणीय का बन्ध नौवें गुणस्थान के प्रारम्भ तक जीव सवेद (वेद-सहित) होता हैं।
नहीं होता। संज्ञी और असंज्ञी वेदनीय कर्म का बन्ध करते हैं। केवली के वेदनीय का नौवें गुणस्थान के उत्तरभाग में वह अवेद (वेद-रहित) हो जाता है। अवेद
बन्ध होता है, सिद्ध के नहीं होता, इसलिए तृतीय विकल्प में भजना का निर्देश है। अवस्था में दसवें गुणस्थान तक ज्ञानावरण कर्म का बंध होता है। उसके आगे ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें गुणस्थान में ज्ञानावरण कर्म का बंधनहीं होता। भवसिद्धिक
भवसिद्धिक के दो प्रकार हैं-वीतराग भवसिद्धिक और सराग भवसातवें गुणस्थान से आगे के गुणस्थानों में आयुष्य का बंध नहीं होता, इसलिए
सिद्धिक। वीतराग भवसिद्धिक ज्ञानावरण का बन्ध नहीं करता, सराग भवसिद्धिक अवेद जीव आयुष्य का बंध नहीं करता। आयुष्य का बंध जीवन में केवल
करता है, इसलिए भजना का निर्देश है। तृतीय विकल्प का स्वामी सिद्ध है, उसके एक बार होता है, इसलिए आयु-बन्ध की भजना का निर्देश है। बन्ध-काल
कर्म का बन्ध नहीं होता। में उसका बंध होता है, अबंध-काल में नहीं होता। आयुबन्ध के योग्य काल का विवेचन भ. ५/५९-६१ का भाष्य द्रष्टव्य।
दर्शन
वीतराग छद्मस्थ ज्ञानावरण का बन्ध नहीं करते, शेष करते हैं; इसलिए नौवें गुणस्थान तक ज्ञानावरणीय का बन्ध होता है। उससे आगे के
चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी औरअवधिदर्शनी में भजना का निर्देश है। सयोगी केवलगुणस्थानों में नहीं होता, इसलिए भजना का निर्देश है।
दर्शनी के वेदनीय का बन्ध होता है, अयोगी केवली और सिद्ध के नहीं होता, संयत-असंयत
इसलिए भजना का निर्देश है। नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत सिद्ध होता है। उसके कर्मबन्ध .. का काइ हतु नहा है, इसालए वह ज्ञानावरण कम का बन्ध नहा करता। वीतराग पर्याप्तक ज्ञानावरण कर्म का अबन्धक है। सराग पर्याप्तक दर्शनावरण आदि छह कर्मों की वक्तव्यता ज्ञानावरण के समान है। संयत, उसका बन्ध करता है। इसलिए भजना का निर्देश है। ततीय विकल्प का स्वामी असंयत और संयतासंयत के आयुष्य का बंध स्यात् होता है, स्यात् नहीं होता सिद्ध है। वह कर्म का अबन्धक है। है। सिद्ध के आयुष्य का बन्ध नहीं होता।
भाषक सम्यग्दृष्टि
वीतराग भाषक ज्ञानावरण का बन्ध नहीं करता, सराग करता है। द्वितीय सम्यग्दृष्टि के दो प्रकार हैं-सराग सम्यग्दृष्टि और वीतराग सम्यग्- विकल्प के स्वामी चार हैं-अयोगी केवली, सिद्ध, एकेन्द्रिय और विग्रहगतिदृष्टि। सराग सम्यग्दृष्टि के ज्ञानावरण का बन्ध होता है, वीतराग सम्यग्दृष्टि के नहीं समापनक जीव। इनमें अयोगी केवली और सिद्ध ज्ञानावरण का बन्ध नहीं करते, होता।
एकेन्द्रिय और विग्रहगति-समापन्नक जीव करते हैं, इसलिए भजना का निर्देश है।
१. भ.जो. ९९/७०-७३।
अबंधकाले तु न बध्नाति, आयुष: सकृदेवैकत्र भवे बन्धात्, निवृत्तस्त्र्यादिवेदस्तु न बध्नाति, २. भ.बृ. ६/३६-तत्र स्त्र्यादित्रयमायुः स्याद्बध्नाति स्यान्न बनाति, बन्धकाले बध्नाति निवृत्तिबादरसम्परायादि गुणस्थानकेष्वायुर्बन्धस्य व्यवच्छिन्नत्वात्।
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org