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भगवई
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श.६: उ.३: सू.३५-५२
अयोगीकेवली और सिद्ध वेदनीय कर्म के अबन्धक हैं, एकेन्द्रिय और विग्रहगति सराग आहारक के उसका बन्ध होता है। केवलिसमुद्घात के तीसरे, चौथे और समापन्नक जीव उसका बंध करते हैं।
पांचवे समय में केवली अनाहारक होता है, वह ज्ञानावरण कर्म का अबन्धक है।
विग्रहगति में समापनक अनाहारक जीव उसका बन्ध करता है। समुद्घातगत परीत-अपरीत
केवली और विग्रहगति-समापन्नक जीव अनाहारक अवस्था में वेदनीय कर्म का परीत के दो अर्थ हैं—प्रत्येक शरीरी जीव और परिमित संसार (जन्म
बन्ध करते हैं, अयोगी केवली और सिद्ध के उसका बंध नहीं होता। मरण) वाला जीव। अपरीत का अर्थ है साधारण शरीर वाला जीव और अनन्त । संसार वाला जीव। वीतराग परीत ज्ञानावरण का अबन्धक है, सराग परीत उसका
सूक्ष्म-बादर बन्धक है।
__एकेन्द्रिय जीव सूक्ष्म और बादर दोनों प्रकार के होते हैं, शेष जीव ज्ञान
केवल बादर होते हैं। सूक्ष्म नामकर्म के उदय से सूक्ष्म जीवों की शारीरिक रचना आभिनिबोधिक ज्ञानी आदि चार विकल्पों में यदि वीतराग है, वह । बहुत सूक्ष्म होती है। उनके शरीर समुदित होकर भी (चाक्षुक) दृष्टिगोचर नहीं अबन्धक है; यदि सराग है, वह बन्धक है। पांचवें विकल्प के स्वामी तीन हैं
बनते। वीतराग बादर जीव ज्ञानावरण कर्म का अबन्धक है। सराग बादर जीव सयोगी केवली, अयोगी केवली और सिद्ध । सयोगी केवली बन्धक है, शेष दो उसका बन्धक है। नो सूक्ष्म-नो बादर सिद्ध होता है, वह अबन्धक है। अबन्धक हैं। वीतराग और सयोगी केवली ज्ञानावरण का बन्ध नहीं करते, इसलिए भजना का निर्देश है।
चरम-अचरम
जिसका भव चरम होगा, वह चरम है। जिसका भव चरम नहीं होगा, साकार-अनाकार (उपयोग)
वह अचरम है। सयोगी चरम यथायोग आठों कर्मों का बन्ध करता है। अयोगी साकार और अनाकार उपयोग वाले सयोगी जीव कर्म का बन्ध करते
चरम अबन्धक होता है, इसलिए भजना का निर्देश है। संसारी अचरम जीव आठों हैं। साकार-अनाकार उपयोग वाले अयोगी जीव कर्म का बन्ध नहीं करते।
कर्मों का बन्ध करता है, मुक्त जीव का पुनर्भव नहीं होता, इस अपेक्षा से वह भी आहारक-अनाहारक
अचरम है, वह कर्म का अबन्धक होता है, इसलिए अचरम में भी भजना का वीतराग और केवली आहारक के ज्ञानावरण कर्म का बन्ध नहीं होता, निर्देश है।
वेदगावेदगाण जीवाणं अप्पाबहयत्त-पदं वेदकावेदकानांजीवानाम् अल्पबहु- वेदक-अवेदक जीवों का अल्पबहुत्व-पद
त्व-पदम् ५२. एएसि णं भंते ! जीवाणं इत्थीवेदगाणं एतेषां भदन्त! जीवानां स्त्रीवेदकानां, पुरुष- ५२.१ भन्ते! स्त्रीवेदक, पुरुषवेदक, नपुंसकवेदक और पुरिसवेदगाणं, नपुंसगवेदगाणं, अवेदगाण य वेदकाना, नपुंसकवेदकानाम् अवेदकानां अवेदक जीवों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य कयरे कयरे हिंतो अप्पा वा? बहुया वा? चकतरे कतरेभ्य: अल्पा: वा? बहुका: वा? अथवा विशेषाधिक हैं? तुल्ला वा? विसेसाहिया वा?
तुल्याः वा? विशेषाधिका: वा? गोयमा ! सव्वत्थोवा जीवा पुरिसवेदगा, गौतम ! सर्वस्तोका: जीवा: पुरुषवेदकाः, गौतम ! पुरुषवेदक सबसे अल्प हैं, स्त्रीवेदक उनसे इत्थिवेदगा संखेज्जगुणा, अवेदगा अणंतगु- स्त्रीवेदका: संख्येयगुणाः, अवेदका: संख्येयगुना हैं, अवेदक उससे अनन्तगुना हैं, नपुंसक णा, नपुंसगवेदगा अणंतगुणा।
अनन्तगुणा:, नपुंसकवेदका: अनन्तगुणाः। वेदक उनसे अनन्तगुना हैं। एएसि सव्वेसिंपदाणं अप्प-बहुगाइं उच्चारे- __ एतेषां सर्वेषां पदानाम् अल्प-बहुकानि इन सब पदों (संयत आदि) का अल्पबहुत्व उच्चारयव्वाई जाव सव्वत्थोवा जीवा अचरिमा, उच्चरीयतव्यानि यावत् सर्वस्तोका: णीय है यावत् अचरम जीव सबसे अल्प हैं, चरम चरिमा अणतगुणा।।
जीवा: अचरमा:, चरमा: अनन्तगुणाः। उनसे अनन्तगुना हैं।
भाष्य
१. सूत्र ५२
वेद के भाव और अभाव की अवस्था में जीवों के चार वर्गीकरण होते हैं-१. स्त्रीवेदक २. पुरुषवेदक ३. नपुंसकवेदक ४. अवेदक। इस सूत्र तथा अन्य सूत्रों (सूत्र ३५-५१) के पदों का अल्पबहुत्व इस प्रकार
१.वेदक
पुरुषवेदक स्त्रीवेदक अवेदक नपुंसकवेदक सवेदक
सर्वस्तोक संख्यातगुना अनन्तगुना अनन्तगुना विशेषाधिक
१. भ७/१—विग्रहगति में जीव एक अथवा दो समय अनाहारक रहता है।
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