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________________ श. ५ : ३.७ : सू. १८२-१९० जहा भवणवासी तहा नेयव्वा । १. सूत्र १८२-१९० आरम्भ और परिग्रह--- ये दोनों जीव की मौलिक प्रवृत्तियां हैं। ये नैरयिक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव-सभी जीवों में उपलब्ध होती हैं। जीवों के छह निकाय हैं— पृथ्वीकाय, अपूकाय, तेजस्काय, वायुकाय वनस्पतिकाय और उसका नैरयिक पजीवनिकाय के जीवों की हिंसा करता है, इसलिए वह सारम्भ (स आरम्भ, हिंसा सहित) होता है। ठाणं में परिग्रह के तीन प्रकार निर्दिष्ट है—शरीर, कर्म और उपधि (पौद्गलिक द्रव्य पदार्थ)। काः यथा भवनवासिनः तथा नेतव्याः । प्रस्तुत आलापक में परिग्रह के तीनों प्रकार निर्दिष्ट हैं- “सरीरा परिगरिया भवति, कम्मा परिगडिया भवंति सचिताचित मीराबाई दव्वाइं परिग्गहियाइं भवंति ।" नैरयिक के पास तीनों प्रकार का परिग्रह होता है, इसलिए वह सपरिग्रह है। ठाणं में नैरयिक और एकेन्द्रिय के पास तीसरे प्रकार के परिग्रह पदार्थ का निषेध किया गया है। भाष्य भाण्ड - मिट्टी का पात्र । उपकरण—तवा, कड़छी आदि । टंक पहाड़ी की ढाल, दरार। २०२ प्रस्तुत आलापक में परिग्रह का तीसरा प्रकार दो भागों में विभक्त हैं - १. भवन, आसन, शयन, पात्र आदि। २. आहार के लिए उपयुक्त सचित्त, अचित्त, मिश्र द्रव्य नैरयिक सचित्त, अचित्त, मिश्र द्रव्य रूप परिग्रह का उपयोग करता है, किन्तु उसके पास भवन, स्त्री, आसन, शयन आदि का परिग्रह नहीं होता। देव के प्रसंग में भवन, आसन, शयन आदि तथा सचित, अचित, मिश्र द्रव्य इन दोनों विधाओं का उल्लेख है। Jain Education International १. ठाणं, ३ / ९५ - विविहे परिग्गहे पण्णत्ते, तंजहा— कम्मपरिग्गहे, सरीरपरिग्गहे, बाहिरभंडमत्तपरिग्गहे। एवं असुरकुमाराणं । एवं एगिंदियणेरइयवज्जं जाव वैमाणियाणं । २. वही, ३ / ९५ - अहवा -- तिविहे परिग्गहे पण्णत्ते, तं जहा—सचित्ते, अचित्ते, मीसए। एवं रइयाण निरंतर जाव वेमाणियाणं । ३. भ. वृ. ५/१८७ -- तत्कृतगृहकादीन्यवसेयानि। ४. प्राकृत व्याकरण १ / ९८ - वा निर्झरे ना। ५. भ. वृ. ५ / २३८ – 'सर' त्ति सरांसि स्वयंसंभूत जलाशय - - विशेषाः । कूट पर्वत की चोटी । शैल-शिखर- रहित पर्वत ! शिखरी— चोटी वाला पर्वत । प्राग्भार कुछ झुका हुआ पर्वत प्रदेश । लयन पर्वत में उत्कीर्ण गृह । उज्झर — पर्वतीय तट से जल का नीचे गिरना । निर्झर झरना । आचार्य हेमचन्द्र ने प्राकृत व्याकरण में निर्झर के निज्झर और ओज्झर दोनों रूप सिद्ध किए हैं। ४ चिल्लल-कर्दमयुक्त तालाव । पल्वल छोटा तालाव । वप्पिण— क्यारी युक्त खेत। - भगवई वक्तव्य हैं। वानमन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों की वक्तव्यता भवनवासी देवों की भांति ज्ञातव्य है। उद्यान — पहाडी भूमि पर होने वाला बगीचा । कृतिकार ने इसका अर्थ 'फूलों से लदे हुए वृक्षों से संकुल बगीचे' २ द्रष्टव्य सूत्र, १८४,९८५ । एकेन्द्रिय की वक्तव्यता नैरयिक के समान है— द्रष्टव्य सूत्र १८६। सचित्त, अचित्त और मिश्र द्रव्य - रूप परिग्रह नैरयिक और एकेन्द्रिय में होता है—यह ठाणं में भी स्वीकृत है। इसलिए किया है, जो उत्सव के अवसर पर बहुत जनों के उपयोग में आते हैं। प्रस्तुत आलापक और ठाणं की वक्तव्यता में कोई विरोध नहीं है । द्वीन्द्रिय जीव बाह्य पदार्थों का संग्रह करते हैं। वे अपने लिए घर-मिट्टी के परोन्दे भी कानन- नगर के निकट होने वाला उपवन। बना लेते हैं। इसलिए उनकी वक्तव्यता एकेन्द्रिय से भिन्न है। शब्द-विमर्श अगड-कुआ । पुष्करिणी— वर्तुलाकार बावड़ी, कमल-युक्त जलाशय । सारिणी सोता, जल-प्रणाली । गुंजालिका– वक्र जल-प्रणाली । सर—वह तालाव जिसके जल का सोता भीतर होता है। सरपंक्ति-पंक्तिबद्ध नैसर्गिक जलाशय । सरसरपंक्ति-तालावों की वह श्रेणी जिसमें एक तालाव का पानी ६ संचरण द्वार से दूसरे तालाव में जाता है।' बिल पंक्ति गहरे और लंबे गढे की श्रेणि । आराम—उपवन, बगीचा । वन नगर के दूरवर्ती वृधा संकुल प्रदेश। वनषण्ड —एक जाति के वृक्ष वाला वन वनराज वृक्ष - पंक्ति । ११ देवकुल देवल देव मंदिर। सभा— ग्राम पंचायत का स्थल, न्यायालय । प्रपा-प्याऊ । स्तूप ईंट आदि से बना हुआ विशेष प्रकार का स्तम्भ । ६. भ. बृ. ५ / १८९ - - ' सरपंतियाओ' ति सर: पंक्तय: 'सरसरपंतियाओ' ति यासु सरः पंक्तिसु एकस्मात्सरसोऽन्यस्मिन्नन्यस्मादन्यत्र एवं सञ्चारकपाटकेनोदकं संचरतिताः सरःसरः पंक्तयः । ७. वही, ५ / १८९ - उद्यानानि पुष्पादिमद् वृक्षसंकुलानि उत्सवादी बहुजनभोग्यानि । ८. वही, ५ / १८९ – काननानि सामान्यवृक्षसंयुक्तानि नगरासन्नानि। ९. वही, ५ / ९८९ - वनानि नगरविप्रकृष्टानि । १०. वही, ५ / १८९ - वनषण्डाः एक जातीयवृक्षसमूहात्मकाः । १९. वही, ५११८९ - वनराजयो वृक्षपंक्तय: । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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