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________________ भगवई महासुक्कागयदेव पण्ह-पदं ८३. तेणं कालेणं तेषं समएणं महासुक्काओ कप्पाओ, महासामाणाओ विमाणाओ दो देवा महिड्ढिया जाव महाणुभागा समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं पाउन्भूया तए णं ते देवा समणं भगवं महावीरं वदति नमंसंति, मणसा चेव इमं एयारूवं वागरणं पुच्छंति - ८४. कति णं भंते ! देवाणुप्पियाणं अंतेवासीसयाई सिज्झिहिंति जाव अंतं करेहिं ति? तए णं समणे भगवं महावीरे रोहिं वेहिं मणसा पुट्ठे तेसिं देवाणं मणसा चेव इमं एवारूवं वागरणं वागरे एवं खलु देवाप्पिया ! ममं सत्त अंतेवासीसयाई सिज्झिहिंति जाव अंतं करेहिंति । राणं ते देवा समनेषं भगवया महावीरणं मणसा पुट्ठेणं मणसा चैव इमं एयारूवं वागरणं नागरिया समाणा हतुचित मादिया गंदिया पी मणा परमसोमणस्सिया हरिसवसविसप्पमाणहियया समणं भगवं महावीरं वंदंति नमंसंति, वंदित्ता नमसिता मणसा चैव सुस्सुसमाणा नम समाणा अभिमुहा विणएणं पंजलियडा पज्जुवासंति ॥ ८५. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगव ओ महावीरस्स बेडे अंतेवासी इंदंभूई नाम अणगारे जाव अदूरसामंते उजाणू अहोसिरे झाणकोडोवगए संजणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहर । तए णं तस्स भगवओ गोयमस्स झाणंतरियाए वमाणस्स इमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्विए मनोगए संकष्ये समुप्प ज्जित्था — एवं खलु दो देवा महिड्ढिया जाव महाणुभागा समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं पाउब्भूया, तं नो खलु अहं ते देवे जाणामि कयराओ कप्पाओ वा सग्गाओ वा विमाणाओ वा कस्स वा अत्थस्स अट्ठाए इहं हव्वमागया? तं गच्छामि णं समणं भगवं महावीरं वंदामि Jain Education International १५९ महाशुक्रागतदेव प्रश्न-पदम् तस्मिन् काले तस्मिन् समये महाशुक्रात् तस्मिन् काले तस्मिन् समये महाशुक्रात् कल्पात् महासामानाद् विमानाद द्वौ देवी महर्द्धिकौ यावद् महानुभागौ श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य अन्तिकं प्रादुर्भुतौ । ततः ती देवी श्रमण भगवन्तं महावीरं वन्देते नमस्यतः, मनसा चैव इदम् एतद्रूपं व्याकरणं पृच्छतः कति भदन्त ! देवानुप्रियाणाम् अन्तेवासिशतानि सेत्स्यन्ति यावदन्तं करिष्यन्ति ? ततः श्रमण भगवान् महावीरः ताम्यां देवाभ्यां मनसा पृष्टः तौ देवौ मनसा चैव इदम् एतद्रूपं व्याकरणं व्याकरोति एवं खलु देवानुप्रियो ! मम सप्त अन्तेवासिशतानि सेत्स्यन्ति यावदन्तं करिष्यन्ति। ततः तौ देवौ श्रमणेन भगवता महावीरण मनसा पृष्टेन मनसा चैव इदम् एतद्रूपं व्याकरणं व्याकृती सन्ती, हृष्टतुष्टचित्ती आनन्दिती नन्दितौ प्रीतिमनसौ परमसौमनस्थितौ हर्षवशविसर्पद् हृदयौ श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्देते नमस्यतः, वन्दित्वा नमस्यित्वा मनसा चैव शुश्रूषमाणौ नमस्यन्तौ अभिमुखी विनयेन कृतप्राञ्जली पर्युपासते । " तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य ज्येष्टः अन्तेवासी इन्द्रभूतिः नाम अनगार: यावद अदूरसामन्तः अजानुः अधः शिराः ध्यानकोष्ठोपगतः संयमेन तपसा आत्मानं भावयन् विहरति । ततः तस्य भगवतः गौतमस्य ध्यानान्तरिकायां वर्तमानस्य अयमेतद्रूपः आध्यात्मिकः चिन्तितः प्रार्थित: मनोगत: संकल्पः समुदपादि — एव खलु द्वौ देवौ महर्द्धिकी यावद् महानुभागो भ्रमणस्य भगवतः महावीरस्य अन्तिकं प्रादुर्भूतौ, तन्नो खलु अहं तौ देवौ जानामि कतरस्मात् कल्पात् वा स्वर्गाद् वा विमानाद वा कस्य वा अर्थस्य अर्थाय इह 'हव्व' मागतौ ? तद् गच्छामि भ्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दे For Private & Personal Use Only श. ५: उ. ४: सू. ८३-८५ महाशुक्र से समागत देवों द्वारा प्रश्न का पद ८३. उस काल और उस समय महाशुक्र कल्प के महासामान विमान से महर्द्धिक यावत् महान् सामर्थ्य वाले दो देव श्रमण भगवान् महावीर के पास प्रगट हुए। वे देव श्रमण भगवान् महावीर को वन्दननमस्कार करते हैं और मानसिक स्तर पर ही यह इस प्रकार का प्रश्न पूछते हैं. - ८४. भन्ते ! आपके कितने सौ अन्तेवासी सिद्ध होंगे यावत् सब दुःखों का अन्त करेंगे? उन देवों द्वारा मानसिक स्तर पर प्रश्न उपस्थित करने पर श्रमण भगवान् महावीर उन देवों को मानसिक स्तर पर ही यह इस प्रकार का उत्तर देते हैं— देवानुप्रियो ! मेरे सात सौ अन्तेवासी सिद्ध होगे यावत् सब दुःखों का अन्त करेंगे। वे देव श्रमण भगवान् महावीर के द्वारा मानसिक स्तर पर पूछे गए प्रश्नों का मानसिक स्तर पर ही इस प्रकार का उत्तर दिए जाने पर वे देव हृष्ट- तुष्ट चित्त वाले, आनन्दित, नन्दित, प्रीतिपूर्ण मन वाले और परम सौमनस्य युक्त हो गए। हर्ष से उनका हृदय फूल गया। वे श्रमण भगवान महावीर को वन्दननमस्कार करते हैं। वन्दन - नमस्कार कर मानसिक स्तर पर ही शुश्रुषा और नमस्कार की मुद्रा में उनके सम्मुख सविनय बद्धाञ्जलि हो कर पर्युपासना कर रहे हैं। ८५. उस काल और उस समय श्रमण भगवान् महावीर के ज्येष्ठ अन्तेवासी इन्द्रभूति नामक अनगार भगवान महावीर के न अति दूर और न अति निकट, अर्ध्वजानु अधः सिर ( उकडू आसन की मुद्रा में) और ध्यानकोष्ट में लीन होकर संयम और तप से अपने आपको भावित करते हुए रह रहे हैं। ध्यानान्तरिका में वर्तमान उन भगवान गौतम के यह इस प्रकार का आध्यात्मिक, स्मृत्यात्मक, अभिलाषात्मक मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ— महर्द्धिक यावत् महान् सामर्थ्यवान दो देव श्रमण भगवान् महावीर के पास प्रगट हुए हैं, मैं नहीं ताकि वे देव किस कल्प, स्वर्ग अथवा विमान से किस प्रयोजन के लिए यहाँ आए हैं? इसलिए मैं श्रमण भगवान् महावीर के पास जाऊं, उन्हें वन्दननमस्कार करूं यावत् पर्युपासना करूं और इन इस प्रकार के प्रश्नों को पूछूंगा, ऐसा सोच कर वे संप्रेक्षा www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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