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________________ श.७ : उ.१ : सू.२५,२६ ३३८ भगवई ये ४२ दोष आगम-साहित्य में एकत्र कहीं भी वर्णित नहीं है, किंतु वैशिक- 'वेसिय' पद के दो संस्कृत रूप हो सकते हैं-वैशिक प्रकीर्ण रूप में मिलते हैं। श्रीमज्जयाचार्य ने उनका अपुनरुक्त संकलन किया और व्येषित। मुनिवेश के निमित्त से जो भिक्षा प्राप्त होती है, उसे वैशिक' कहा है। आधाकर्म, औद्देशिक, मिश्रजात, अध्यवतर, पूतिकर्म, क्रीत-कृत, प्रामित्य, जाता है। विशेष अथवा विविध प्रकार की एषणा से प्राप्त 'व्येषित' कहलाती है। आच्छेद्य, अनिसृष्ट और अभ्याहृत—ये ठाणं, ६/६२ में बतलाए गए हैं। वृत्ति में 'व्येषित' मूल रूप में और 'वैशिक' वैकल्पिक रूप में धाबीपिण्ड, दूतीपिण्ड, निमित्तपिण्ड, आजीवपिण्ड, वनीपकपिण्ड, चिकित्सापिण्ड, व्याख्यात है। क्रोधपिण्ड, मानपिण्ड, मायापिण्ड, लोभपिण्ड, विद्यापिण्ड, मंत्रपिण्ड, योगपिण्ड, सामुदानिक-माधुकरी वृत्ति से प्राप्त भिक्षा। चूर्णपिण्ड और पूर्व-पश्चात्-संस्तव-ये निसीहज्झयणं, १३/६१-७५ में शस्त्र-प्रसंगवश यहाँ 'शस्त्र' का अर्थ 'अग्नि' होना चाहिए। बतलाए गए हैं। परिवर्त का उल्लेख आयारचूला, १/२१ में मिलता है। मूलकर्म वृत्तिकार ने इसका अर्थ 'खड्ग' आदि किया है।' पण्हावागरणाइं, संवर १/१५ में है। उद्भिन्न, मालापहृत, अध्यवतर, व्यपगत-स्वयं पृथग्भूत शंकित, मक्षित, निक्षिप्त, पिहित, संहृत, दायक, उन्मिश्र, अपरिणत, लिप्त और च्युत-मृत। छर्दित-ये दसवेआलियं के पिण्डैषणा अध्ययन में मिलते हैं। च्यावित–'चाइय' शब्द के दो संस्कृत रूप हो सकते हैं-च्यावित ३. आहार करने की विधि-आहार करते समय अमूर्छा, अक्रोध और त्याजित।' और अस्वाद का प्रयोग किया जाए। 'सुरसुर' 'चवचव' इस प्रकार का शब्द न। अनाहूत-वृतिकार ने इसका अर्थ अनित्यपिण्ड किया है। आप हो। बहुत शीघ्रता से न खाए और बहुत मन्थरगति से भी न खाए। खाते समय मेरे घर से नित्य आहार लें-इस प्रकार आमन्त्रणपूर्वक लिया जाने वाला भोजन की सीथों को नीचे न गिराए। भोजन आहूत अथवा नित्यपिण्ड कहलाता है। और आमन्त्रणरहित भोजन ४. आहार की मात्रा-जैसे गाड़ी की धूरी पर अञ्जन लगाया अनाहूत। जाता है और व्रण पर लेप किया जाता है, आहार करते समय वैसी दृष्टि रखें; नवकोटिपरिशुद्ध-ठाणं' में भिक्षा की नौ कोटियां बतलाई गई संयम यात्रा के लिए जितना आवश्यक हो, उतना भर खाए। हैं-जीवों का वध न करना, न कराना, करने वाले का अनुमोदन न करना। ५. आहार करने का लक्ष्य-आहार करने का लक्ष्य है- भोजन न पकाना, न पकवाना और न पकाने वाले का अनुमोदन करना। आने संयम-भार का निर्वाह। लिए न मोल लेना, न लिवाना और न लेने वाले का अनुमोदन करना। विषय के निगमन का निष्कर्ष यह है कि निर्ग्रन्थ अस्वाद वृत्ति से गाड़ी के पहिए की धुरी पर किए जाने वाले म्रक्षण (अक्खोआहार करे जैसे सर्प बिल में प्रवेश करते समय पार्श्वभाग को छुए बिना सीधा वंजण)-अक्ष-गाड़ी की धुरी। उपाञ्जन-म्रक्षण करना, खञ्जन लगाना। चला जाता है, वैसे ही निर्ग्रन्थ खाद्य वस्तु को स्वाद के लिए इधर-उधर घुमाए (द्रष्टव्य सूय. २/२/५०) बिना सीधा खाए। संयमयात्रामात्रवृत्तिक (संजमजायामायावत्तियं) अभयदेवसरि ने मात्रा का अर्थ 'आलम्बन-समूह का अंश' किया है। 'वत्तिय' पाठांश के दो शब्द-विमर्श अर्थ किए हैं-वृत्तिक और प्रत्यया शस्त्रातीत-शस्त्र-अग्नि आदि से उत्तीर्ण।' शीलांकसूरि ने ‘मात्रा' का संबंध आहार के साथ बतलाया है। आहार की जितनी मात्रा से संयम-यात्रा चल सके उतनी वृत्ति करने वाला 'संयमशस्त्रपरिणामित-शस्त्र-योग से अचित्त किया हुआ। एषित-एषणा की विधि से गवेषित। यात्रामात्रवृत्तिक' होता है। २६. सेव भंते ! सेवं भंते! ति॥ तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति। २६. भन्ते ! वह ऐसा ही है, भन्ते ! वह ऐसा ही है। १. द्रष्टव्य, सूय. २/१/६६ और उसके टिप्पण। अनित्यपिण्डोऽभ्याहतो वेत्यर्थः। स्पर्द्धा वाऽऽहूतं तन्निषेधादनाहूतो, दायकेनास्पर्द्धया २. वही, २/२/५०। दीयमानमित्यर्थः, अनेन भावतोऽपरिणताभिधानएषणादोषनिषेध उक्तोऽतस्तम् । ३. भ. वृ.७/२५---विशेषेण विविधैर्वा प्रकाररेषितं-व्येषितं ग्रहणेषणा ग्रासैषणाविशोधितं । ७. ठाणं, ६/३०। तस्य। अथवा वेषो-मुनिनेपथ्यं स हेतुर्लाभे यस्य तद्वैषिकम्-आकारमात्रादर्शनादवाप्तं न । ८. भ. दृ. ७/२५-संयमयात्रा-संयमानुपालनं सैव मात्रा-आलम्बनसमूहांशः संयमत्वावर्जनया। यात्रामात्रा तदर्थं वृत्तिः-प्रवृत्तियत्राहारे स संपमयात्रामात्रावृत्तिको ऽतस्तं। संयमयात्रा४. वही, ७/२५-त्यक्तखड्गादि शस्त्रमुसलः। मात्रावृत्तिकं यथा भवति संयमयात्रामात्राप्रत्ययो वा यत्र स तथाऽतस्तं संयमयात्रामात्राप्रत्ययं ५. द्रष्टव्य दसवे. २/२-'नित्याग' का टिप्पण। वा यथा भवति। ६. भ. वृ.७/२५---न च विद्यते आहूतम् -- आहानमामन्त्रणं नित्यं मद्गृहे पोषमात्रामन्नं ६, सूय.२/२/५०, वृ. प. ४०-संयमयात्रायां मात्रा संयमयात्रामात्रा, यावत्याहारमात्रया गाह्यमित्येवरूपं कामकरायाकारणं वा साध्वर्थ स्थानान्तरादन्नाद्यानयनाय यत्र सोऽनाहूतः- संयमयात्रा प्रवर्तते सा तथा, तया संयमयात्रामात्रया वृतिर्यस्य तत्तथा। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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