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मूल
सुपच्चक्खाण दुपच्चक्खाण-पदं
२७. से नूणं भंते! सव्वपाणेहिं सब्वभूएहिं सव्वजीवेहिं सव्वसत्तेहिं पच्चक्खायमिति वदमाणस्स सुपच्चवखायं भवति ? दुपच्चवखायं भवति ?
गोयमा सव्वपाणेहिं जाव सव्वसतेहिं पच्चक्खायमिति वदमाणस्स सिव सुपच्चक्वायं भवति, सिय दुपच्चक्खायं भवति ॥
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२८ सेकेणद्वेगं भंते! एवं दुच्च सव्वपार्टिं जाव सव्वसत्तेहिं पच्चक्खायमिति वदमाणस्स सिय सुपव्यवखायं भवति ? सिया दुपव्यवखायं भवति ?
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गोयमा जस्स णं सव्वपाणेहिं जाव सव्वसतेहिं ! पच्चक्खायमिति वदमाणस्स गो एवं अभिसमन्नागयं भवति – इमे जीवा, इमे अजीवा, इमे तसा, इमे धावरा, तस्स गं सव्वपाणेर्हि जाव सव्वसत्तेहिं पञ्चक्खायमिति वदमाणस्स नो सुपच्चवखायं भवति, दुपच्चवखायं भवति । एवं खलु से दुपच्चक्लाई सव्वपानेहिं जाव सव्वसतेहिं पच्चक्खायमिति वदमाने नो सच्च भासं भासइ, मोसं मासं भासइ एवं खलु से मुसावाई सव्वपाणेहिं जाव सव्वसत्तेहिं तिविहं तिविहेणं असंजय - विरय-पडिहय-पच्चक्खायपावकम्मे, सकिरिए, असंवुडे, एगंतदंडे, एगंतवाले यावि भवति ।
जस्स णं सव्वपाणेहिं जाव सव्वसत्तेहिं पच्चक्वायमिति वदमाणस्स एवं अभिसमन्नागयं
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बीओ उद्देसो दूसरा उद्देशक
संस्कृत छाया
सुप्रत्याख्यान- दुष्प्रत्याख्यान-पदम् तन्नूनं भदन्त सर्वप्राणिभिः सर्वभूतः सर्वजीवे सर्वसत्त्वः प्रत्याख्यातमिति वदतः सुप्रत्याख्यातं भवति ? दुष्प्रत्याख्यातं भवति ?
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गीतम! सर्वपाणैः यावत् सर्वसत्त्वः प्रत्याख्यातमिति वदतः स्यात् सुप्रत्याख्यातं भवति, स्यात् दुखत्याख्यातं भवति ।
तत् केनार्थेन भदन्त । एवमुच्यते-सर्वप्राणिभिः यावत् सर्वसत्त्वैः प्रत्याख्यातमिति वदतः स्यात् सुप्रत्याख्यातं भयाति? स्यात् दुष्प्रत्याख्यातं भवति
तम यस्य सर्वप्राणिभिः यावत् सर्वसत्त्वः प्रत्याख्यातमिति वदतः नो एवं अभिसमन्वागतं भवति इमे जीवा, इमे अजीवा, इमे असाः, इमे स्थावराः, तस्य सर्वप्राणैः यावत् सर्वसत्त्वः प्रत्याख्यातमिति वदतः नो सुप्रत्याख्यातं भवति दुष्प्रत्याख्यातं भवति । एवं खलु स दुष्प्रत्याख्याची सर्वप्राणैः यावत् सर्वसत्त्वः प्रत्याख्यातमिति वदन् नो सत्यां भाषां भाषते, मृषां भाषां भाषते । एवं खलु समृषावादी सर्वप्राणैः यावत् सर्वसत्वैः त्रिविध-त्रिविधेन असंयत-विरत प्रतिहत-प्रत्याख्यात- पापकर्मा, सक्रियः, असंवृत्तः, एकान्तदण्डः, एकान्तबालः चापि भवति ।
यस्य सर्वप्राणैः यावत् सर्वसत्त्वैः प्रत्याख्यातमिति वदतः एवं अभिसमन्वागतं भवति —
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हिन्दी अनुवाद
सुप्रत्याख्यान- दुष्प्रत्याख्यान पद
२७. ' कोई पुरुष कहता है- मैंने सब प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों के वध का प्रत्याख्यान किया है । भन्ते ! उसका वह प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यात होता है ? अथवा दुष्प्रत्याख्यात होता है ?
गौतम ! जो पुरुष कहता है - मैंने सब प्राण यावत् सब सत्त्वों के वध का प्रत्याख्यान किया है। उसका वह प्रत्याख्यान स्यात् सुप्रत्याख्यात होता है, स्यात् दुष्प्रत्याख्यात होता है।
२८. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है-जो पुरुष कहता है - मैंने सब प्राण यावत् सब सत्वों के वध का प्रत्याख्यान किया है, उसका वह प्रत्याख्यान स्यात् सुप्रत्याख्यात होता है, स्यात् दुष्प्रत्याख्यात होता
गौतम! जो पुरुष कहता है-- मैंने सब प्राण यावत् सत्त्वों के वध का प्रत्याख्यान किया है और जिसे यह ज्ञात नहीं होता कि ये जीव हैं, ये अजीव हैं; ये त्रस हैं ये स्थावर हैं, उसके सब प्राण यावत् सब सत्वों के वध का प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यात नहीं होता, दुष्प्रत्याख्यात होता है।
इस प्रकार वह दुष्प्रत्याख्यानी कहता है मैंने सब प्राण यावत् सब सत्त्वों के वध का प्रत्याख्यान किया है, वह सत्य भाषा नहीं बोलता है, मृषा भाषा बोलता है। इस प्रकार वह मृषावादी मनुष्य सब प्राण यावत् सब सत्वों के प्रति तीन योग और तीन करण से असंयत, अविरत, अतीत के पापकर्म का प्रतिहनन न करने वाला, भविष्य के पापकर्म का प्रत्याख्यान न करने वाला होता है। वह कायिकी आदि क्रिया से युक्त, असंवृत, एकान्तदण्ड और एकान्तबाल भी होता है। जो पुरुष कहता है - मैंने सब प्राण यावत् सब सत्त्वों के वध का प्रत्याख्यान किया है, और जिसे यह ज्ञात
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