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श.७ : उ.२ : सू.२७,२८
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भवति-इमे जीवा, इमे अजीवा, इमे तसा, इमे जीवाः, इमे अजीवाः, इमे त्रसाः, इमे इमे थावरा, तस्स णं सब्वपाणेहिं जाव स्थावराः, तस्य सर्वप्राणैः यावत् सर्वसत्त्वैः सव्वसत्तेहिं पच्चक्खायमिति वदमाणस्स प्रत्याख्यात-मिति वदतः सुप्रत्याख्यातं भवति सुपच्चक्खायं भवति, नो दुपच्चक्खायं भवति। नो दुष्प्रत्याख्यातं भवति।
भगवई होता है कि ये जीव हैं, ये अजीव हैं। ये त्रस हैं ये स्थावर हैं, उसके सब प्राण यावत् सब सत्त्वों के वध का प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यात होता है, दुष्प्रत्याख्यात नहीं होता।
एवं खलु से सुपच्चक्खाई सव्वपाणेहिं जाव एवं खलु स सुप्रत्याख्यायी सर्वप्राणः यावत् । सव्वसत्तेहिं पच्चक्खायमिति वदमाणे सच्चं सर्वसत्त्वैः प्रत्याख्यातमिति वदन् सत्यां भाषां भासं भासइ, नो मोसं भासं भासइ। एवं खलु भाषते, नो मृषां भाषां भाषते। एवं खलु स से सच्चवादी सव्वपाणेहिं जाव सव्वसत्तेहिं सत्यवादी सर्वप्राणैः यावत् सर्वसत्त्वैः त्रिविधतिविहं तिविहेणं संजय-विरय-पडिहय-पच्च- त्रिविधेन संयत-विरत-प्रतिहत-प्रत्याख्यातक्खाय-पावकम्मे, अकिरिए, संवुडे, एगंत- पापकर्मा, अक्रियः, संवृतः, एकान्तपण्डितः पंडिए यावि भवति। से तेणटेणं गोयमा! एवं चापि भवति। तत्तेनार्थेन गौतम! एवमुच्यते--- वुच्चइ-सव्वपाणेहिं जाव सव्वसत्तेहिं पच्च- सर्वप्राणैः यावत् सर्वसत्त्वैः प्रत्याख्यातमिति क्खायमिति वदमाणस्स सिय सुपच्चक्खायं वदतः स्यात् सुप्रत्याख्यातं भवति, स्यात् भवति, सिय दुपच्चक्खायं भवति ॥ दुष्प्रत्याख्यातं भवति।
इस प्रकार वह सुप्रत्याख्यानी कहता है-मैंने सब प्राण यावत् सब सत्त्वों के वध का प्रत्याख्यान किया है, वह सत्य भाषा बोलता है, मिथ्या भाषा नहीं बोलता। इस प्रकार वह सत्यवादी मनुष्य सब प्राण यावत् सब सत्त्वों के प्रति तीन योग और तीन करण से संयत, विरत, अतीत के पाप कर्म का प्रतिहनन करने वाला, भविष्य के पापकर्म का प्रत्याख्यान करने वाला होता है, वह कायिकी आदि क्रिया से मुक्त, संवृत और एकान्तपण्डित भी होता है। गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है जो पुरुष कहता है मैंने सब प्राण यावत् सब सत्त्वों के वध का प्रत्याख्यान किया है, उसका वह प्रत्याख्यान स्यात् सुप्रत्याख्यात होता है, स्यात् दुष्प्रत्याख्यात होता है।
भाष्य
१. सूत्र २७, २८
भगवान महावीर ने वस्तु-सत्य का प्रतिपादन नय अथवा सापेक्ष दृष्टि के आधार पर किया था। इसलिए उसमें ऐकान्तिक आग्रह नहीं है, सत्य का संस्पर्श है। प्रत्याख्यान को निरपेक्ष दृष्टि से समीचीन अथवा असमीचीन कुछ भी नहीं कहा जा सकता। उसे समीचीन और असमीचीन सापेक्ष दृष्टि के आधार पर कहा गया है। कोई व्यक्ति जीव और अजीव को नहीं जानता। वह सब जीवों के वध का प्रत्याख्यान करता है। जीव-विषयक उसका ज्ञान स्पष्ट नहीं है। उस अवस्था में वह सब जीवों के वध के प्रत्याख्यान का पालन कैसे कर सकेगा?
अभयदेवसूरि ने लिखा है-जीव और अजीव के ज्ञान के अभाव में प्रत्याख्यान का यथावत् पालन नहीं किया जा सकता। इस अपेक्षा से अज्ञानी का प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान नहीं हैं।' ।
जयाचार्य ने अपेक्षा-दृष्टि को विकसित किया है। उनके अनसार १. भ. वृ७/२८-ज्ञानाभावेन यथावदपरिपालनात् सुप्रत्याख्यानत्वाभावः । २. भ जो. २/११५/१६-२६--
इहां जाण्यां विण जीव, त्याग किया थी तेहना। दुपचखाण कहीव, जाण्यां विण किम पालियै ।। •जीव त्रसादिक देह, जाणी तसु हणवा तणां। जो पचखाण करेह, पिण समदृष्टि ते नहीं। संवर आश्री तास, दुपचखाण कहीजिये। संवर गुण सुविमास, कर्म रोकण नो तसु नहीं ॥ हिंसादिक पहिछाण, त्यागी मिथ्याती तणे । निर्जरा लेखे जाण, सुध पचखाण कही जियै ॥ सप्तम उत्तरज्झयण, वर गाथा जे बीस मी। धुर गुणटाणे वयण, कह्यो सुब्बए स्वामजी ॥
जीव-अजीव को नहीं जानता, वह मिथ्यादृष्टि है। वह सब जीवों को नहीं जानता
और उन्हें जाने बिना सब जीवों को मारने का प्रत्याख्यान करता है वह अज्ञान की अपेक्षा दुष्प्रत्याख्यान है। जो मिथ्यादृष्टि त्रस अथवा स्थावर जीव को जानकर उसके वध का प्रत्याख्यान करता है, उसका प्रत्याख्यान संवर की अपेक्षा दुष्प्रत्याख्यान है, किंतु निर्जरा की अपेक्षा वह दुष्प्रत्याख्यान नहीं है, सुप्रत्याख्यान है। इसके समर्थन में उन्होंने आगम के अनेक संदर्भ प्रस्तुत किये हैं।
प्रत्याख्यान की प्रथम अर्हता है-सम्यग् दर्शन। जो जीव और अजीव का भेद नहीं जानता, उसे सम्यग् दर्शन उपलब्ध नहीं होता। उसके अभाव में वह मुनि की भूमिका में नहीं जा सकता। तिविहं तिविहेणं-तीन योग-कृत, कारित और अनुमोदन, तीन करण-मन, वचन और शरीर से सब जीवों के वध का प्रत्याख्यान करना-यह मुनि की भूमिका है। सम्यग् दर्शन की भूमिका पर आरोहण किए बिना मुनि की भूमिका पर आरोहण करने का प्रत्याख्यान मिथ्या प्रत्याख्यान है। यह प्रस्तुत आलापक का प्रतिपाद्य है। कुछ अन्यतीर्थिक
देश आराधक जाण धुर गुणठाणां नों धणी। अष्टम शतक पिछाण, दशम उदेशे भगवती ॥ सूत्र विपाक मझार, सुमुख दान दे मुनि भणी। कियो परित्त संसार, मनुष्य आउखो बांधियो । गज भव मेघकुमार, परित्त संसार दया थकी। धुर गुणठाणे धार, नर आयू बंध्यो तिणे॥ असोच्चा अधिकार, प्रथम गुणठाणे जिन कह्यो। अपोह अर्थ विचार, धर्म ध्यान परिणाम शुभ ॥ इत्यादिक अवलोय पहिला गणठाणां तणी। निरवद करणी जोय ते छै आज्ञा माहिली ॥ ते गाटै पहिछाण तेहना दुपचखाण ते। संवर आश्री जाण निर्जरा आश्री छै नहीं।
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