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श.६ : उ.१ : सू.५-१५
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भगवई
१४. ओरालियसरीरा सव्वे सुभासुभेणं वेमा- याए। देवा सुभेणं साय।।
औदारिकशरीरा: सर्वे शुभाशुभेन विमात्रया। १४. औदारिक शरीर वाले सभी जीव शुभ और अशुभ
करण से विमात्र वेदना का वेदन करते हैं। देवा: शुभेन साताम्।
देव शुभ करण से सात वेदना का वेदन करते हैं।
भाष्य
१. सूत्र ५-१४
निमित्त बनने वाला जीव का वीर्य कर्मकरण कहलाता है। 'करण' शब्द का शाब्दिक अर्थ है साधन । कार्य की सिद्धि में जो प्रस्तुत आलापक में सातवेदन और असातवेदन तथा करण का साधकतम होता है वह, करण कहलाता है। अभयदेवसूरि ने करण का अर्थ सम्बन्ध प्रदर्शित किया गया है। मन,वाक्, काय और कर्म-ये करण अशुभ 'जीव-वीर्य किया है। इस आधार पर मन, वाक् और शरीर की प्रवृत्ति के होते हैं उस अवस्था में असात का वेदन होता है और ये शुभ होते हैं उस हेतुभूत जीववीर्य को क्रमश: मनकरण, वाक्करण और कायकरण कहा जा अवस्था में सात का वेदन होता है। अशुभ मन दु:ख का संवेदन उत्पन्न करता सकता है। अभयदेवसूरि की व्याख्या का मूल आधार तत्त्वार्थसूत्र की है, मानसिक चिकित्सा की दृष्टि से यह उल्लेखनीय सूत्र है। भाष्यानुसारिणी टीका है। उसके अनुसार करण का अर्थ है पर्याप्ति! नारक और देव के वैक्रिय शरीर होता है। शेष सब जीवों के कायवर्गणा के योग्य पुद्गलों से कायकरण (शरीरपर्याप्ति) निष्पन्न होता है। औदारिक शरीर होता है। औदारिक शरीर वाले जीव शुभ करणों से सुखात्मक इसी प्रकार भाषावर्गणा के योग्य पुद्गलों से वाक्करण (भाषापर्याप्ति) और संवेदन करते हैं और अशुभ करणों से दु:खात्मक संवेदन करते हैं। नारक मनोवर्गणा के योग्य पुद्गलों से मनकरण (मन:पर्याप्ति) निष्पन्न होता है। अशुभ करणों से दु:ख का संवेदन करते हैं। देव शुभ करणों से सुख का कायकरण, वाक्करण और मनकरण—ये तीनों जीव के वीर्य की परिणति के संवेदन करते हैं। ये दोनों सूत्र प्रायिक हैं, बहुलता की अपेक्षा से है। वास्तव साधन बनते हैं। इसलिए इनकी करण संज्ञा उपयुक्त है। मनन करना मनयोग में नारक और देव में सात, असात और सातासात तीनों प्रकार की वेदना का है, बोलना वचनयोग है और गमन आदि करना काययोग है। मनन, भाषण उल्लेख मिलता है। नरक में भी कदाचित् शुभ करण और सुख का संवेदन और गमन में साधन बनने वाले पुद्गल भी मनकरण, वाक्करण और कायकरण हो सकता है। देवों में भी कदाचित् अशुभ करण और असुख का संवेदन हो
सकता है। कर्म-प्रकृति में कर्म के आठ करण बतलाए गए हैं—बन्धन, ठाणं में कर्मकरण का उल्लेख नहीं है। वहां मनकरण, वाक्करण संक्रमण, उद्वर्तन, अपवर्तन उदीरणा, उपशामना, निधत्ति और निकाचना और कायकरण के अतिरिक्त करण के दो वर्गीकरण और मिलते हैं। गोम्मटसार में करण के दस प्रकार मिलते हैं। उनमें आठ पूर्वोक्त ही हैं, सत्व शब्द-विमर्श और उदय-ये दो अतिरिक्त हैं।
विमात्र–विविध मात्रा, कभी सुख का संवेदन, कभी दु:ख का बन्धन, संक्रमण आदि कर्म की अवस्थाओं के घटित होने में संवेदन।
कहलाते हैं।
महावेदणा-महानिज्जरा-चउभंग-पदं महावेदना-महानिर्जरा-चतुर्भंग-पदम् महावेदना-महानिर्जरा-चतुर्भंग-पद १५. जीवा णं भंते ! किं महावेदणा महा- जीवा: भदन्त ! किंमहावेदना: महानिर्जरा:? १५. ' भन्ते ! क्या जीव महावेदना और महानिर्जरा निज्जरा? महावेदणा अप्पनिज्जरा? अप्प- महावेदना: अल्पनिर्जरा:? अल्पवेदनाः वाले हैं? महावेदना और अल्पनिर्जरा वाले हैं? वेदणा महानिज्जरा? अप्पवेदणा अप्प- महानिर्जरा:? अल्पवेदना: अल्पनिर्जरा:? अल्पवेदना और महानिर्जरा वाले हैं? अल्पवेदना निज्जरा?
और अल्पनिर्जरा वाले हैं? गोयमा ! अत्थेगतिया जीवा महावेदणा गौतम ! अस्त्येकके जीवा: महावेदनाः । गौतम ! कुछ जीव महावेदना और महानिर्जरा वाले महानिज्जरा, अत्थेगतिया जीवा महावेदणा महानिर्जरा:, अस्त्येकके जीवा: महावेदनाः । हैं, कुछ जीव महावेदना और अल्पनिर्जरा वाले हैं, अप्पनिज्जरा, अत्थेगतिया जीवा अप्प- अल्पनिर्जराः, अस्त्येकके जीवा: अल्प- कुछ जीव अल्पवेदना ओर महानिर्जरा वाले हैं, कुछ वेदणा महानिज्जरा, अत्थेगतिया जीवा वेदना: महानिर्जराः, अस्त्येकके जीवाः जीव अल्पवेदना और अल्पनिर्जरा वाले हैं। अप्पवेदणा अप्पनिज्जरा।
अल्पवेदना: अल्पनिर्जरा:। १. भ.वृ.६/५–करणं जीववीर्यम् ।
कर्मकरणम्। २. त.सू.भा.वृ.-८/१२।
७. भ. ६/१८५1 ३. वही, ६/१॥
८. भ.३/९२ का भाष्य। ४. द्रष्टव्य, भ. १/२३, २४ का भाष्य।
९.(क) ठाणं, ३/१६-तिविहे करणे पण्णत्ते, तं जहा–आरंभकरणे, संरभकरणे, समारंभकरणे ५. गो. क. गा. ४३७१
(ख) ठाणं, ३/५०६-तिविहे करणे पण्णत्ते, तं जहा-धम्मिए करणे, अधम्मिए करणे, ६. भ.वृ. ६/५–'कम्मकरणं' त्ति कर्मविषयं करणं जीववीर्य बन्धनसंक्रमणादिनिमित्तभूतं धम्मियाधम्मिए करणे।
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