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________________ भगवई २३७ श.६ : उ.१ : सू.१५-१७ १६. से केणटेण? तत् केनार्थेन? गोयमा! पडिमापडिवनए अणगारे महावेदणे गौतम ! प्रतिमाप्रतिपन्नक: अनगार: महा- महानिज्जरे। छट्ठ-सत्तमासु पुढवीसु नेरइया वेदन: महानिर्जर:। षष्ठीसप्तमयो:पृथिव्योः महावेदणा अप्पनिज्जरा। सेलेसिं पडिवन्नए नैरयिका: महावेदना: अल्पनिर्जरा:। अणगारे अप्पवेदणे महानिज्जरे। अणुत्तरोव- शैलेशी प्रतिपन्नक; अनगार: अल्पवेदन: वाइया देवा अप्पवेदणा अप्पनिज्जरा॥ महानिर्जरः। अनुत्तरोपपातिका: देवाः अल्पवेदना: अल्पनिर्जरा:। १६. यह किस अपेक्षा से? गौतम ! प्रतिमा-प्रतिपन्न अनगार महावेदना और महानिर्जरा वाले हैं। छठी-सातवीं मरक भूमियों के नैरयिक जीव महावेदना और अल्पनिर्जरा वाले हैं। शैलेशी अवस्था को प्रतिपन्न अनगार अल्पवेदना और महानिर्जरा वाले हैं। अनुत्तरोपपातिक देव अल्पवेदना और अल्पनिर्जरा वाले हैं। भाष्य १. सूत्र १५, १६ निर्जरा महान् होती है। प्रथम आलापक (सू. १-४) में महावेदना और महानिर्जरा आदि अनुत्तर विमान के देवों के वेदना भी अल्प और निर्जरा भी अल्प का विमर्श प्रशस्त निर्जरा के आधार पर किया गया है। प्रस्तुत आलापक में होती है। महावेदना और महानिर्जरा आदि का विमर्श उदाहरणपूर्वक किया गया है। इन चारों उदाहरणों का तुलनात्मक अध्ययन करने पर एक निष्कर्ष भिक्षु के लिए बारह प्रतिमाओं का निर्देश है। प्रतिमा प्रतिपन्न भिक्षु अनेक और निकलता है कि जिनमें निर्जरा करने का प्रयत्न होता है, उनके अविपाकी प्रकार के कष्टों को सहन करता है। इसलिए उसके वेदना महान् होती है। वह निर्जरा होती है। वे उदीरणा कर अविपक्व कर्मों को उदय में लाकर निर्जीण प्रशस्त अध्यवसाय युक्त होता है, वेदना को सहने में समभाव रखता है, कर देते हैं। प्रतिमा-प्रतिपन्न अनगार और शैलेशी-प्रतिपन्न अनगार—ये दो इसलिए उसके निर्जरा भी महान् होती है। छठी-सातवीं पृथ्वी के नैरयिक इस कोटि के उदाहरण हैं। छठी-सातवीं पृथ्वी के नैरयिक और अनुत्तरविमान क्षेत्रजनित महावेदना का अनुभव करते हैं। उनके निर्जरा अल्प होती है। उक्त के देव—ये विपाकी निर्जरा के उदाहरण हैं। उनमें निर्जरा का प्रयत्न नहीं दोनों सूत्रों का तुलनात्मक अध्ययन करने पर यह निष्कर्ष निकलता है कि होता। अशुभ और शुभ कर्म उदयावली में प्रविष्ट होकर अपना फल देकर महानिर्जरा का आधार वेदना की अल्पता या अधिकता नहीं है। निर्जरा की निवृत्त हो जाते हैं। अल्पता या अधिकता का कारकतत्त्व वेदना को सहन करने की पद्धति है। शब्द-विमर्श प्रतिमा प्रतिपन्न अनगार महावेदना को समभाव से सहन करता है, इसलिए उसके महानिर्जरा होती है। प्रतिमा-प्रतिपन्नक-प्रतिमा-साधना का विशेष प्रयोग, विशेष छठी-सातवीं पृथ्वी के नैरयिक महावेदना को समभाव से सहन प्रकार का अभिग्रह और संकल्प। प्रतिमा को स्वीकार करने वाला प्रतिमानहीं करते, इसलिए उनके निर्जरा अल्प होती है। प्रतिपन्नक कहलाता है। शैलेशी अवस्था को प्रतिपन्न अनगार के वेदना अल्प होती है, शैलेशी-चौदहवें गुणस्थान की अवस्था इसमें योग का सर्वथा किन्तु समभाव अधिकतम होता है, इसलिए अल्पवेदना की अवस्था में भी निरोध हो जाता है, इसलिए यह मेरु की भांति अप्रकम्प होती है। १७. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति। तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति। १७. भन्ते! वह ऐसा ही है, भन्ते ! वह ऐसा ही है। संगहणी गाहा महावेदणे य वत्थे, कद्दम-खंजणकए य अहिगरणी। तणहत्थे य कवल्ले, करण-महावेदणा जीवा॥ संग्रहणी गाथा महावेदनश्च वस्त्रं कर्दम-खञ्जनकृतं चाधिकरणी। तृणहस्तश्च कवल्ले, करण-महावेदना: जीवाः।। संग्रहणी गाथा महावेदना, कर्दम और खञ्जन से रंगा हुआ वस्त्र, अहरन, पूला, लोह का तवा, करण ओर महावेदना वाले जीव-प्रथम उद्देशक में ये विषय वर्णित हैं। १. दसाओ, ७/१-३५॥ २. (क) द्रष्टव्य, भ.६/१-४ का भाष्य (ख) त.सू. सर्वार्थसिद्धि, ८/२३॥ Jain Education Intemational For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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