________________
श.३ : उ.२ : सू.१०७-१०६
४८
भगवई
भत्ताइं अणसणाए छेदेत्ता, कालमासे कालं छित्त्वा, कालमासे कालं कृत्वा चमरचञ्चायाः किच्चा चमरचंचाए रायहाणीए उववायसभाए राजधान्याः उपपातसभायां यावद् इन्द्रत्वेन जाव इंदत्ताए उववण्णे॥
उपपन्नः।
को छेद कर कालमास में काल को प्राप्त कर चमरचञ्चा राजधानी की उपपात सभा में यावत् इन्द्र रूप में उपपन्न हो गया।
१०८. तए णं से चमरे असुरिंदे असुरराया ततः स चमरः असुरेन्द्रः असुरराजः अधुनो- १०. वह तत्काल उपपन्न असुरराज असुरेन्द्र चमर पांच
अहुणोववण्णे पंचविहाए पज्जत्तीए पज्ज- पपन्नः पञ्चविधया पर्याप्त्या पर्याप्तिभावं प्रकार की पर्याप्तियों से पर्याप्त भाव को प्राप्त होता है त्तिभावं गच्छइ, (तं जहा-आहारपज्जत्तीए गच्छति, (तद् यथा-आहारपर्याप्त्या यावद् (जैसे-आहार पर्याप्ति से यावत् भाषा-मनः पर्याप्ति जाव भास-मणपज्जत्तीए) ॥
भाषा-मनःपर्याप्त्या)।
चमरस्स कोव-पदं
चमरस्य कोप-पदम्
चमर का कोप-पद १०६. तए णं से चमरे असुरिंदे असुरराया पंच- ततः सः चमरः असुरेन्द्रः असुरराजः पञ्च- १०६ वह असुरेन्द्र असुरराज चमर पांच प्रकार की विहाए पज्जत्तीए पज्जत्तिभावं गए समाणे विधया पर्याप्या पर्याप्तिभावं गतः सन् ऊर्ध्व पर्याप्तियों से पर्याप्त भाव को प्राप्त हो, स्वाभाविक' उडुढं वीससाए ओहिणा आभोएइ जाव विस्रसया अवधिना आभोगयति यावत् सौधर्मः अवधिज्ञान द्वारा ऊर्ध्वलोक में यावत् सौधर्म कल्प सोहम्मो कप्पो, पासड़ य तत्थकल्पः पश्यति च तत्र
तक ध्यान देता है। वहां वह देखता है-देवेन्द्र देवराज सक्कं देविंदं देवरायं,
शक्र देवेन्द्रं देवराज,
मघवा पाकशासन शतक्रतु सहस्राक्ष वज्रपाणि पुरन्दर मघवं पाकसासणं।
मघवं पाकशासनम्।
शक्र को। सयक्कतुं सहस्सक्खं,
शतक्रतुं सहस्राक्षं, वज्जपाणिं पुरंदरं ॥
वज्रपाणिं पुरंदरम्॥ दाहिणड्ढलोगाहिवई बत्तीसविमाणसयस- दक्षिणार्धलोकाधिपतिं द्वात्रिंशत्शतसहस्र- दक्षिणार्धलोक का अधिपति, बत्तीस लाख विमानों का हस्साहिवइं एरावणवाहणं सुरिंदं अरयंबर- विमानाधिपतिम् ऐरावणवाहनं सुरेन्द्रम् अर- अधिपति, ऐरावण हाथी की सवारी करने वाला, वत्थधर आलइयमालमउडं नव-हेम-चारु- जोऽम्बरवस्त्रधरम् आलगितमालमुकुटं नव- देवताओं का स्वामी, आकाश के समान निर्मल-वस्त्र चित्त चंचल-कुंडल-विहिज्जमाणगंडं भासुर- हेम-चारुचित्र-चंचल-कुण्डल-विलिख्यमानगण्ड धारण करने वाला, मुकुट तक माला धारण करने बोंदि पलंबवणमालं दिव्वेणं वण्णेणं जाव भासुरबोंदि प्रलम्बवनमालं दिव्येन वर्णेन यावद् वाला, नए स्वर्णिम सुन्दर चित्रों से युक्त चंचल कुण्डलों दस दिसाओ उज्जोवेमाणं पभासेमाणं सोहम्मे दशदिशः उद्योतयन्तं प्रभासयन्तं सौधर्मे कल्पे से रेखाङ्कित कपोल वाला, दीप्तिमान् शरीर वाला, प्रलम्ब कप्पे सोहम्मवडेंसए विमाणे सभाए सुहम्माए सौधर्मावतंसके विमाने सभायां सुधर्मायां शक्रे वनमाला धारण करने वाला, दिव्य वर्ण से यावत् दसों सक्कंसि सीहासणंसि जाव दिव्वाइंभोगभोगाइं सिंहासने यावद् दिव्यान् भोग्यभोगान् भुञ्जानं दिशाओं का उयोतित करने वाला, प्रभासित करने भुंजमाणं पासइ, पासित्ता इमयारूवे अज्झ- पश्यति, दृष्ट्वा अयमेतद्रूपः आध्यात्मिकः, वाला है। उसे सौधर्म कल्प में सौधर्मावतंसक विमान थिए चिंतिए पत्थिरए मणोगए संकप्पे समुष्प- चिन्तितः, प्रार्थितः, मनोगतः संकल्पः, समुद- में सुधर्मा सभा के शक नामक सिंहासन पर यावत् ज्जित्था-केस णं एस अपत्थिपत्थए दुरंत- पादि-कः एष अप्राथितप्रार्थिकः दुरन्तप्रान्त- दिव्य भोगार्ह भोगों को भोगते हुए देखता है, देख कर पंतलक्खणे हिरिसिरिपरिवज्जिए हीणपुण्ण- लक्षणः हीश्रीपरिवर्जितः हीनपुण्यचातुर्दशः, यन् असुरेन्द्र चमर के यह इस प्रकार का आध्यात्मिक, चाउद्दसे जं णं ममं इमाए एयारुवाए दिव्वाए मम अस्याम् एतद्रूपायां दिव्यायां देव: स्मृत्यात्मक, अभिलाषात्मक मनोगत संकल्प उत्पन्न देविड्ढीए दिव्वाए देवज्जुतीए दिवे देवाणुभावे दिव्यायां देवद्युतौ दिव्ये देवानुभावे लब्धे प्राप्ते हुआ-कौन है यह अप्रार्थनीयको चाहने वाला, दुखःद लद्धे पत्ते अभिसमण्णागए उप् िअप्पुस्सुए अभिसमन्वागते उपरि अल्पोत्सुकः दिव्यान् अन्त और अमनोज्ञ लक्षणवाला, लज्जा और शोभा दिव्वाइं भोगभोगाई मुंजमाणे विहरइ–एवं भोग्यभोगान् भुजानः विहरति-एवं संप्रेक्षते, से रहित, हीनपुण्य-चतुर्दशी को जन्मा हुआ जो ऐसी संपेहेइ, संपेहेत्ता सामाणियपरिसोववण्णए देवे संप्रेक्ष्य सामानिकपरिषदुपपन्नकान् देवान् विशिष्ट प्रकार की दिव्य देवर्धि, दिव्य देवधुति और सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी-केस णं एस शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत्--कः स एष दिव्य देवानुभाव उपलब्ध करने, प्राप्त करने, अभिदेवाणुप्पिया! अपत्थियपत्थए जाव दिव्वाइं देवानुप्रियाः। अप्रार्थितप्रार्थकः यावद् दिव्यान् समन्वागत (विपाकाभिमुख) करने पर भी मेरे सिर भोगभोगाइं भुंजमाणे विहरइ? भोग्यभोगान् भुजानः विहरति?
पर बैठा हुआ, बड़े धैर्य के साथ दिव्य भोगार्ह भोग भोगता हुआ रहता है। ऐसा सोचता है, सोच कर सामानिक परिषद में उपपन्न देवों को आमन्त्रित करता है, आमन्त्रित कर इस प्रकार बोला-हे देवानुप्रियो! यह कौन है अप्रार्थनीय को चाहने वाला यावत् दिव्य भोगार्ह भोग भोगता हुआ रहता है ?
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org